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Thursday, March 28, 2024

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झारखंड पंचायत चुनाव: पहले प्रत्याशियों की लोकप्रियता थी अहम, नहीं था पैसों का जोर, बोले पूर्व मुखिया नरेश

Jharkhand Panchayat Chunav 2022: पूर्व मुखिया नरेश मुर्मू कहते हैं कि 44 साल पहले के चुनाव और वर्तमान चुनाव में काफी बदलाव आ गया है. पहले पंचायत चुनाव साधारण तरीके से होता था, जिसमें कोई तामझाम नहीं होता था और ना ही एक रुपये का खर्चा था, लेकिन अब बगैर तामझाम और बिना पैसे का चुनाव नहीं होता.

Jharkhand Panchayat Chunav 2022: धनबाद जिले के पूर्वी टुंडी प्रखंड के कुरकुटांड़ निवासी नरेश मुर्मू (80 वर्ष) पूर्व मुखिया और पूर्व जिला परिषद सदस्य हैं. वे बताते हैं कि 1973-74 में महाजनी प्रथा के साथ-साथ अन्य आंदोलन में दिशोम गुरु शिबू सोरेन के साथ खड़े रहे थे और पंचायत चुनाव में कदम रखा था. वे 37 साल तक पंचायत प्रतिनिधि रहे. उस वक्त चुनाव में प्रत्याशियों की लोकप्रियता अहम थी. पैसों का जोर नहीं रहता था. काम के बदले इज्जत मिलती थी. आज के झारखंड पंचायत चुनाव में बिना पैसे का चुनाव नहीं जीत सकते हैं.

पहले नहीं होता था ज्यादा पैसा खर्च

पूर्व मुखिया नरेश मुर्मू कहते हैं कि 44 साल पहले के चुनाव और वर्तमान चुनाव में काफी बदलाव आ गया है. पहले पंचायत चुनाव साधारण तरीके से होता था, जिसमें कोई तामझाम नहीं होता था और ना ही एक रुपये का खर्चा था, लेकिन अभी के समय में बगैर तामझाम और बिना पैसे का चुनाव नहीं होता है. नरेश मुर्मू कहते हैं कि वर्ष 1978 में जो उम्मीदवार खड़ा होता था, वह प्रत्येक गांव पैदल जाकर गांव के मुख्य व्यक्ति से मिलता था. अपने चुनाव या उम्मीदवारी संबंधी जानकारी देता था फिर वही व्यक्ति पूरे गांव के लोगों को बैठाकर चुनाव या उम्मीदवार के बारे में बताता था. उस समय एक या दो नामी गिरामी उम्मीदवार ही होते थे. अभी जिसे मन हुआ वही उम्मीदवार बन जाता है. उस समय चुनाव जीतने के लिए अभी की तरह पैसा खर्च और मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी.

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पहले काम के बदले मिलती थी इज्जत

पूर्व मुखिया नरेश मुर्मू कहते हैं कि 1978 से 2010 तक वे मैरानवाटांड़ पंचायत के मुखिया रहे. उसके बाद 2010 से 2015 तक जिला परिषद सदस्य रहे. 2010 में जिला परिषद सदस्य का चुनाव जीतने के बाद धनबाद जिला परिषद अध्यक्ष के चुनाव में वोटिंग के लिए मोटी रकम का ऑफर भी मिला था, लेकिन उन्होंने ऑफर को ठुकरा दिया था. पंचायत के लोग काम और न्याय करने की क्षमता देखकर ही मुखिया और सरपंच चुनते थे. पहले मुखिया और सरपंच का अलग-अलग काम होता था. मुखिया पंचायत के विकास का काम देखता था, जबकि सरपंच का काम न्याय करना था. सरपंच जमीन जायदाद का बंटवारा, लड़ाई-झगड़ा, एक्सीडेंट, मारपीट के मामले को पंचायती के माध्यम से ही सलटाते थे. सरपंच गांव वालों के साथ बैठकर मामले का निपटारा करते थे. अभी के पंचायत जनप्रतिनिधियों को सरकार की ओर से कई तरह की सुविधाएं मिल रही हैं, लेकिन पहले सरकार की ओर से कोई सुविधा नहीं मिलती थी. ना ही वेतन मिलता था. बस गांव-गांव घूमकर लोगों की सेवा करने का काम करते थे, उस काम के बदले नाम और इज्जत मिलती थी. आज पैसे के बल पर लोग चुनाव जीतते हैं, तो लोगों का विकास कैसे होगा.

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रिपोर्ट: भागवत दास

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