क्रमश:
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अस्पताल जाने का इंतजाम है, आने का नहीं
जमशेदपुर : वनग्रामों के अध्ययन के सिलसिले में हम गत दिवस झारखंड के सीमांत गांव जोड़सा पहुंचे. गांव की सीमा पर एक बरसाती नाला बहता है. उसके ऊपर पुल बना हुआ है. यह ऐसा पुल है, जो नाले के दो पाटों को जोड़ने की बजाय अलग करता है. दरअसल, नाले का एक पाट झारखंड में […]
जमशेदपुर : वनग्रामों के अध्ययन के सिलसिले में हम गत दिवस झारखंड के सीमांत गांव जोड़सा पहुंचे. गांव की सीमा पर एक बरसाती नाला बहता है. उसके ऊपर पुल बना हुआ है. यह ऐसा पुल है, जो नाले के दो पाटों को जोड़ने की बजाय अलग करता है. दरअसल, नाले का एक पाट झारखंड में और दूसरा पाट पश्चिम बंगाल में पड़ता है. इन दोनों प्रदेशों को पाटता है, तो दलमा वनक्षेत्र (दलमा इको सेंसेटिव जोन).
जोड़सा गांव वैसे, तो पटमदा प्रखंड मुख्यालय से महज 12 किलोमीटर दूर है, लेकिन यहां तक पहुंचने में आपको कम से कम दो-ढाई घंटे लग जायेंगे. जैसे-जैसे आप पटमदा से दूर होते जाएंगे सड़क की लीक भी मिटती जायेगी. एक समय ऐसा आयेगा, जब आपको बोल्डर, पौधों की खूंटी और मुरूम की अधमिटी लीक के सहारे गांव तक का सफर तय करना पड़ेगा. परेशानी यहीं तक सीमित नहीं है. बड़़ी समस्या यह है िक इस रास्ते पर सार्वजनिक वाहन भी नहीं चलते.
इस गांव में आदिम जनजाति सबर के 40 घरों के साथ-साथ संताल, भूमिज, कुंभकार और दास आदि समुदाय के 300 घर हैं. सबर परिवार पूरी तरह भूमिहीन हैं. दूसरी जातियों के पास थोड़ी-बहुत रैयती जमीन है. सरकार की तरफ से सबरों को बिरसा आवास मुहैया कराया गया था. अब वे भी दयनीय अवस्था में पहुंच चुके हैं. कुछ महीनों से राशन मिलने लगा है, तो थोड़ी राहत मिली है. लेकिन, विकास की धारा तो अब भी इनके घरों तक नहीं पहुंची. गांव के 40 घरों में से किसी भी घर का युवक मैट्रिक तक नहीं पहुंच पाया है. इस जाति का एक बालक जयंत सबर लोगों के सहयोग से आठवीं क्लास तक पहुंचा है और जमशेदपुर में एक निजी स्कूल में पढ़ता है. बाकी घरों के युवा व अन्य सदस्य अपने इलाके में ही मेहनत-मजदूरी करते हैं. एक टाइम भात खाते हैं और इसकी भी व्यवस्था नहीं हुई, तो फाकाकशी करते हैं.
ज्यादातर घर फूस और खपड़े के हैं. दो-चार पक्के मकान भी हैं, जो इस उपेक्षित गांव में भी व्याप्त विषमता की कहानी बयां कर देते हैं. गत दिवस जब हम इस गांव में पहुंचे, तो ऐसे ही एक पक्के मकान के बाहर गौर सबर व उसके ससुर बंठा सबर माथे पर हाथ रखे बैठे थे. बताया गया कि गौर सबर की पत्नी शकुंतला सबर उम्मीद से थी. लेकिन, चार दिनों पहले अचानक उसे बहुत तेज प्रसव पीड़ा हुई और बच्चे की गति रुक गयी. गांव के एक तेज-तर्रार व्यक्ति हैं-सुबोध चंद्र दास. उन्होंने ग्राम प्रधान के साथ मिलकर ममता वाहन की व्यवस्था की और शकुंतला को पटमदा के सरकारी अस्पताल भिजवाया. वहां से उसे एमजीएम अस्पताल, जमशेदपुर रेफर कर दिया गया. एमजीएम अस्पताल में डॉक्टर उसके बच्चे को नहीं बचा सके. शकुंतला को खून भी चढ़ाना पड़ा. यहां तक तो पैसे की जरूरत नहीं पड़ी. लेकिन, शकुंतला का पति गौर सबर भला कब तक भूखे रहता. पत्नी की तबीयत सुधरते ही वह घर लौट आया. उधर, एक दिन बाद शकुंतला को डिस्चार्ज कर दिया गया और वह एमजीएम अस्पताल में अकेली रह गयी. अब समस्या थी कि शकुंतला को वापस कैसे लाया जाये? अस्पताल की तरफ से बताया गया कि ममता वाहन सिर्फ प्रसूता को लाने के लिए होता है, वापस छोड़ने के लिए नहीं. अब जिसके पास खाने के िलए कुछ नहीं हो, वह परिवहन शुल्क कहां से लाता. इसलिए, शकुंतला को फिलहाल एमजीएम अस्पताल में ही उसके हाल पर छोड़ दिया गया था.
क्रमश:
क्रमश:
(इनक्लूसिव मीडिया-यूएनडीपी फेलोशिप 2015 के तहत प्रकाशित)
डिग्रीधारी मजदूर बहुत हैं
ग्रामीणों को दलमा इको सेंसेटिव जोन के बारे में पता नहीं. कारण है कि वन विभाग का कोई भी कारिंदा इस गांव में कभी नहीं आता. बारिश हुई, तो लोग धान, टमाटर, बैंगन आदि उगा लेते हैं, वर्ना मजदूरी करनी पड़ती है. इन कठिनाइयों के बीच गैरसबर घरों में युवा ग्रेजुएशन व बीएड कर चुके हैं, लेकिन नौकरी नहीं मिली. ग्रामीणों के अनुसार ये डिग्रीधारी मजदूर हैं.
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