बताया जाता है कि टिकैत मेदनी नारायण सिंह निःसंतान थे. हालांकि, उन्हें कई पुत्र हुए, लेकिन जन्म के बाद उनकी मृत्यु हो जाया करती थी. बाद में उन्होंने कोलकाता स्थित दक्षिणेश्वर काली मंदिर में जाकर पूजा की और वहां से प्रतीक चिह्न लाकर पटना चौक पर स्थापित किया. उक्त स्थान पर मां काली की प्रतिष्ठा कर वे भक्ति भाव से अराधना करने लगे. बाद में उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई. पुत्र प्राप्ति के बाद दीपावली के अवसर पर काली की प्रतिमा का निर्माण करवाकर धूमधाम से पूजा करने लगे. उन्होंने पटना चौक पर काली व देवी के मंदिर का निर्माण भी करवाया. इसके बाद से लगातार यहां प्रतिमा का निर्माण कर पूजा हो रही है. वर्तमान में टिकैत वंश की पांचवीं पीढ़ी के लोग यहां निवास कर रहे हैं. और पूजन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं. उनके वंशज बाबूमणी सिंह उर्फ हरिनारायण सिंह आज भी पुजारी के रूप में पूजन में बैठते हैं.
जमींदारी प्रथा समाप्त होने पर ग्रामीण करते हैं पूजा में सहयोग
प्रारंभ में कई वर्षों तक टिकैत की आने वाली पीढ़ी क्रमशः टिकैत कटि सिंह व टिकैत मसूदन सिंह आदि निजी खर्च पर पूजा करते थे. बाद में जमींदारी प्रथा समाप्त होेन पर ग्रामीणों के सहयोग से पूजा होने लगी. पूजा क्षेत्र के ग्रामीण बढ़-चढ़कर श्रद्धा के साथ भाग लेते हैं. दीपावली के दूसरे दिन यहां भव्य मेले का भी आयोजन किया जाता है. मंदिर के जर्जर होने के बाद ग्रामीणों ने इसके जीर्णोद्धार करवाया है. वर्तमान में उक्त स्थल पर विशाल राधाकृष्ण के मंदिर का भी निर्माण ग्रामीणों के सहयोग से करवाया जा रहा है. वर्ष में एक बार यहां अखंड कीर्तन का आयोजन भी होता है.
बलि की है परंपरा
पूजा समिति के बासो यादव, लखन महतो सुरेंद्र स्वर्णाकार आदि ने कहा कि पूर्व में यहां भैंसे की बलि दी जाती थी, लेकिन छठ के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए कार्तिक में कुष्मांड की बलि दी जाती है. वहीं चैत्र व आश्विन नवरात्र के अवसर पर बकरों की बलि दी जाती है. यह क्षेत्र के लिए आस्था का केंद्र है. यहां लगने वाले मेले में काफी भीड़ उमड़ती है. सुदूर इलाके से लोग यहां आकर पूजा करते हैं. सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होता है.
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