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Bihar Election 2025: कांग्रेस को अब तक का सबसे बड़ा नुकसान, 74 साल के इतिहास में सबसे खराब प्रदर्शन

Bihar Election 2025: बिहार की राजनीति में जहां गठबंधन बदलते हैं, चेहरे बदलते हैं, समीकरण बदलते हैं, वहीं एक ग्राफ लगातार नीचे जा रहा है.यह कांग्रेस का ग्राफ है, जो 1951 के बाद पहली बार इतना नीचे आया है कि आंकड़े खुद पार्टी की कहानी कह रहे हैं.

Bihar Election 2025: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजों ने कांग्रेस के लिए एक कड़वी हकीकत उजागर कर दी है. महागठबंधन के साथ चलने के बावजूद पार्टी अपने जनाधार को न सिर्फ बढ़ा नहीं पाई, बल्कि 74 साल के चुनावी इतिहास में सबसे कमजोर प्रदर्शन का रिकॉर्ड बनाया. 61 सीटों पर चुनाव लड़कर केवल 5 सीटों पर सिमट जाना यह बताने के लिए काफी है कि कांग्रेस के सामने सिर्फ हार नहीं, बल्कि गंभीर अस्तित्व संकट खड़ा हो गया है.

इस बार का चुनाव नतीजा दिखाता है कि कांग्रेस का वोट-बेस न तो दोस्ताना मुकाबलों से बच पाया और न ही नए सामाजिक समीकरणों से सामंजस्य बैठा सका.

कभी 41% वोट वाली कांग्रेस अब 8% पर कैसे आ गई?

कांग्रेस का बिहार में कभी ऐसा दौर भी था जब सत्ता का दूसरा नाम ही कांग्रेस था. 1951 से लेकर 1980 तक पार्टी का वोट शेयर 30 से 41 प्रतिशत के बीच झूलता रहा. 1980 में कांग्रेस को 239 सीटें मिली थीं, तब उसका वोट प्रतिशत 41.38 था, जो कि पार्टी का बिहार में स्वर्णकाल माना जाता है.

लेकिन इसके बाद यह गिरावट ऐसी शुरू हुई कि 1990 तक कांग्रेस 71 सीटों पर आ गई और 2000 में यह संख्या और घटकर सिर्फ 23 सीट रह गई. इसके बाद पार्टी का ग्राफ कभी ऊपर नहीं गया. 2020 में भी कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़कर 19 सीटें जीती थीं, लेकिन इस बार का प्रदर्शन इससे भी कई गुना बुरा रहा.

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Sonia gandhi, mallikarjun kharge and rahul gandhi

चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि 2025 में कांग्रेस का वोट शेयर 8.74% पर सिमट गया, जो 2020 के 9.48% से भी कम है. यह लगातार चुनाव-दर-चुनाव गिरावट की पुष्टि करता है.

महागठबंधन में दोस्ताना लड़ाई, लेकिन मतदाता नहीं समझ पाए संदेश

2025 के चुनाव में पहली बार महागठबंधन की कई सीटों पर कांग्रेस के खिलाफ सहयोगी दल ही मैदान में उतर आए. इसे पार्टी ने “दोस्ताना मुकाबला” कहा, लेकिन मतदाताओं के लिए यह भ्रम की स्थिति थी.

वैशाली, बिहार शरीफ, बछवाड़ा, राजापाकर, बेलदौर, चैनपुर, कलहगांव, सुलतानगंज, सिकंदरा, नरकटिया और करगहर जैसी सीटों पर इस ‘दोस्ताना लड़ाई’ ने कांग्रेस के वोट को विभाजित किया.

सवाल यह है कि क्या कांग्रेस अपनी ही गठबंधन राजनीति को अपने मतदाताओं तक सही तरीके से समझा नहीं पाई?

मुस्लिम उम्मीदवारों पर दांव भी नहीं चला

इस चुनाव में कांग्रेस ने अपने पुराने वोट बैंक को साधने के लिए कुल 18% सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारे. यह रणनीति सांख्यिकी रूप से आकर्षक लग सकती थी, पर जमीन पर इसका खास असर दिखाई नहीं दिया. जिन क्षेत्रों में कांग्रेस को समर्थन मिलने की उम्मीद थी, वहां भी पार्टी पीछे रह गई.

यह तथ्य बताता है कि बिहार की राजनीति में धार्मिक या जातीय समीकरणों की भरोसेमंदता अब उतनी पक्की नहीं रह गई है, खासकर तब जब क्षेत्रीय दलों ने इन इलाकों में बेहतर पैठ बना ली हो.

वोटचोरी का मुद्दा भी असर नहीं दिखा पाया

चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस ने ‘वोट चोरी’ को बड़ा मुद्दा बनाया. कई प्रेस कॉन्फ्रेंस, कई बयान, कई संदेश इसी मुद्दे पर केंद्रित रहे. लेकिन मतदान प्रतिशत के रिकॉर्ड आंकड़ों ने कांग्रेस के इस दावे को जमीन पर कमजोर कर दिया.

मतदान आयोग के अनुसार इस बार कई जिलों में वोटिंग प्रतिशत ने नया रिकार्ड बनाया. ऐसे में ‘मत चोरी’ का दावा मतदाताओं को विश्वसनीय नहीं लगा और इसका कांग्रेस को लाभ नहीं मिला.

कांग्रेस की हार… महागठबंधन के लिए भी चेतावनी

कांग्रेस की खराब प्रदर्शन का असर महागठबंधन की सीटों पर भी पड़ा. कई जगहों पर कांग्रेस के कमजोर होने से सहयोगी दलों को भी लाभ नहीं मिला. इसके विपरीत, गठबंधन का वोट शेयर भी कांग्रेस की गिरावट के साथ नीचे आया.
यह साफ है कि महागठबंधन को यदि 2025 के बाद भी कोई बड़ी चुनौती देनी है, तो कांग्रेस के पुनर्गठन और उसकी भूमिका तय किए बिना यह संभव नहीं.

कहां-कहां मिली कांग्रेस को जीत

मनिहारी, चनपटिया, फारबिसगंज, अररिया और वाल्मीकि नगर, ये पांच सीटें कांग्रेस के लिए सांत्वना ही कही जा सकती हैं. इनमें भी कई जगह जीत का अंतर बहुत कम रहा. यह बताता है कि कांग्रेस के पास अब वह मजबूत क्षेत्रीय पकड़ नहीं बची, जो कभी उसकी पहचान थी.

कांग्रेस की चुनौती सिर्फ राजनीतिक नहीं, अस्तित्व की है

बिहार चुनाव 2025 कांग्रेस के लिए सिर्फ एक पराजय नहीं, बल्कि चेतावनी है कि जब तक पार्टी संगठन, नेतृत्व और रणनीति में बड़े बदलाव नहीं करेगी, तब तक ‘राष्ट्रीय’ पार्टी का तमगा उसके लिए बोझ बन सकता है.
कांग्रेस के लिए जरूरी है कि वह पुराने जमाने की रणनीतियों से बाहर निकलकर नई पीढ़ी, नए मुद्दों और नए राजनीतिक नैरेटिव पर फोकस करे, वरना अगली बार यह कहानी और भी कमजोर हो सकती है.

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Pratyush Prashant
Pratyush Prashant
कंटेंट एडिटर. लाड़ली मीडिया अवॉर्ड विजेता. जेंडर और मीडिया में पीएच.डी. . वर्तमान में प्रभात खबर डिजिटल के बिहार टीम में काम कर रहे हैं. साहित्य पढ़ने-लिखने में रुचि रखते हैं.

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