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माता-पिता जमा पूंजी, इन्हें नहीं भूलें

मुजफ्फरपुर : हमारा होना प्रकृति का सुंदरतम संयोग. जिसकी वजह से हम, वे हमारे स्रष्टा. जिसने हमें धरती पर लाकर हमारी खुशियों को संवारा. हमारा जन्मदाता यानी भगवान. शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान वह नहीं, जिनकी कल्पना कर हम प्रार्थना करते हैं. भगवान तो हमारे सामने हैं, हमारे माता-पिता. जिनके वात्सल्य व इच्छाओं […]

मुजफ्फरपुर : हमारा होना प्रकृति का सुंदरतम संयोग. जिसकी वजह से हम, वे हमारे स्रष्टा. जिसने हमें धरती पर लाकर हमारी खुशियों को संवारा. हमारा जन्मदाता यानी भगवान. शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान वह नहीं, जिनकी कल्पना कर हम प्रार्थना करते हैं. भगवान तो हमारे सामने हैं, हमारे माता-पिता. जिनके वात्सल्य व इच्छाओं की कुर्बानी ने हमें सींच कर बड़ा बनाया. हमें इस लायक बनाया कि हम अपने पैरों पर खड़े होकर जीवन जी सके, लेकिन आज ये भगवान उपेक्षित कर दिये गये.

बचपन से जवानी तक हजार आंसू पी कर बच्चों का जीवन बख्शने वाले माता-पिता को अपने साथ रखने के लिए बेटे तैयार नहीं हैं. ऐसे मां-बाप वृद्ध आश्रम में किसी तरह अपना गुजारा कर रहे हैं. बेटे-बेटियों का जब बचपन याद आता है तो इनके आंखों से समुंदर फूट पड़ता है. लेकिन करें भी क्या. ऐसे ही जीना उनकी नियति बन गयी है. बच्चों को कभी अपने माता-पिता की याद नहीं आती. ये नहीं समझते कि जिन मा-बाप को उन्होंने वृद्धाश्रम में छोड़ दिया है, वह उनकी पूंजी हैं. समाज में आयी आधुनिकता व बाजारवाद ने हमारी संवेदना को बर्फ कर दिया है. हमारे खून के रिश्ते नफा-नुकसान के व्याकरण से तौले जा रहे हैं. ऐसे ही परिभाषा के दायरे में आने वाले शहर के दर्जनों वृद्ध अपना जीवन गोधूलि व सहारा वृद्धाश्रम में बिता रहे हैं. विडंबना यह है कि इनमें से कई वृद्ध ऐसे हैं, जिनके बेटे-बेटियां उनसे मिलने तो आते हैं, लेकिन अपने साथ रखना नहीं चाहते. हम यहां ऐसे ही वृद्धों का दर्द उनकी जुबानी रख रह रहे हैं.

पति की हुई मौत, तो पहुंच गयी वृद्धाश्रम

पति के निधन के बाद ही बालूघाट निवासी रमणी देवी वृदाश्रम पहुंच गयीं. इनका अपना चॉकलेट का बिजनेस था. भाई-भतीजे के साथ रहती थीं. पति विजयकांत झा की बीमारी से मौत हो गयी. इसके बाद से घर में इनकी पूछ समाप्त हो गयी. ये एक साल से वृद्धाश्रम में हैं. रमणी कहती हैं कि उन्हें संतान नहीं है. भतीजा व उसका परिवार है. पति की मृत्यु के बाद उसे परेशान किया जाने लगा. जिससे वे परेशान रहने लगी. एक दिन उसे यहां पहुंचा दिया गया. तबसे उनका परिवार के प्रति मोह भी खत्म हो गया. यही उनका घर है. जब वे बीमार पड़ती हैं तो यहीं के लोग उनकी सेवा करते हैं. शाम में रामायण पढ़ कर व भजन गाकर भगवान को याद करती हैं. उन्हें अब ये महसूस नहीं होता कि ये कहीं और रह रही हैं.

यहां लोग बहुत प्यार करते हैं. यह महसूस ही नहीं होता कि वे दूसरी जगह रह रही हैं.

वृद्धाश्रम ही अब घर-परिवार

चकिया के मांडी छपरा के कबीर राय पिछले नौ महीने से वृद्धाश्रम में रह रहे हैं. ये एक बार चकिया से मुजफ्फरपुर डॉक्टर से दिखाने आये थे. इसी क्रम में रात हो गयी. ज्यादा बीमार होने की वजह से उन्हें किसी ने यहां पहुंचा दिया. ये बताते हैं कि एक-दो दिन बाद ये अपने घर गये थे घर में ताला बंद था. पता चला कि उनके बेटे बिशु राय घर बंद कर चले गये हैं. फिर वे वहां से वापस यहां लौट आये. कबीर कहते हैं कि इनके बेटे ने उनकी खोज नहीं की तो उन्होंने भी घर के बजाये यही रहना ठीक समझा. जब बेटे को उनकी जरूरत नहीं तो वे क्यों याद करें. कबीर कहते हैं कि बेटे की उपेक्षा ने उन्हें बहुत तोड़ दिया है. अब कहीं रहना उन्हें अच्छा नहीं लगता. यहां वे आराम से रह रहे हैं. किसी तरह की कोई परेशानी नहीं हो रही है. यहां के लोग आपस में मिल कर रहते हैं. उनका पूरा ध्यान रखते हैं. उन्हें कोई परेशानी नहीं है.

आंखाें में सिमटता है घर-परिवार

गोपालगंज के भिदौलिया निवासी ब्रज किशोर मिश्रा पिछले एक साल से वृद्धाश्रम में रह रहे हैं. इनके दो बेटे नीरज व पंकज ड्राइवर हैं. एक बार बीमार पड़ने के बाद उन्हें यहां पहुंचा दिया गया. तबसे कोई उन्हें देखने नहीं आता. ब्रज किशोर बताते हैं कि उनकी पत्नी काफी साल पहले गुजर गयी. गांव में उनका घर है, लेकिन अब कैसा है, इसकी जानकारी नहीं है. बेटे को काफी दिनों से नहीं देखा. वे लोग भी कभी उन्हें देखने नहीं आये. बेटे की याद तो आती है, लेकिन वे घर नहीं जाना चाहते. यहां उन्हें काफी प्यार मिलता है, वे इससे खुश हैं. यहां के लोग ही उनके रिश्तेदार हैं. काफी प्यार देते हैं. मुझे जब कोई परेशानी होती है, तो पूरा सहयोग करते हैं. अब यही मेरा घर परिवार है.

दो दिन साथ रख छोड़ देते हैं बेटे

खादी भंडार की रहनेवाली वैदेही की कहानी अलग है. इनके बेटे इन्हें कभी-कभी अपने साथ तो ले जाते हैं, लेकिन एक-दो दिन रखने के बाद वापस छोड़ जाते हैं. वैदेही बताती हैं कि उनके दो बेटे नवल व विमल हैं. विमल छठ के मौके पर यहां मुझे लेने आया था. दो तीन घर पर रख कर वापस छोड़ गया. उसके साथ मेरे दामाद गौरी लाल भी आये थे. वैदेही बताती हैं कि अब यही उनका घर है. साथ रहने वाले लोग मेरे भाई हैं. बेटों की मेरी चिंता नहीं है तो हम क्यों परेशान रहे. उन्हें अपने साथ रखना अच्छा नहीं लगता. मां को कौन पूछता है. पाल-पोस कर बड़ा कर दिया अब उसकी जिंदगी. वैदेही बताती हैं कि उनके बेटे उन्हें लेने आते हैं, तो ऐसा लगता है कि अब अपने साथ ही रखेंगे, लेकिन कुछ दिन बाद छोड़ देते हैं. अब तो उनके साथ जाने की इच्छा भी नहीं होती. वैदेही के आंसू ही उनका सारा दर्द बयां कर जाते हैं.

भूल जाना चाहते हैं पुरानी यादें

पत्नी-बेटा कोई नहीं. भाई भी है तो उसे कोई मतलब नहीं. बस यही जिंदगी गुजर रही है. कहने के लिए तो मैदापुर में घर है, लेकिन असली घर तो मेरा यही है. मेरे साथ रहने वाले मेरे भाई-मां हैं. इन्हीं के साथ जीना है, मरना है. याद भी आये, तो क्या करूं. कब तक सोच कर परेशान रहूं. अब सबकुछ भूल गया. मेरा कोई नहीं है. यह दर्द विनोद चौधरी का है. पिछले डेढ़ साल से वृद्धाश्रम में गुजर-बसर कर रहे विनोद अब सब कुछ भूलना चाहते हैं. याद रख कर परेशान नहीं होना चाहते. कुरेदने पर कुछ देर के लिए भावुक होते हैं, फिर खुद को संयमित कर लेते हैं. ज्यादा पूछने पर हाथ जोड़ लेते हैं. कहते हैं ये मेरी नयी जिंदगी है. पुरानी जिंदगी मौत के समान है.

आंसुओं से बयां होता रहा दर्द

कहने के लिए घर, बेटे-बेटियां व नाती-पोतों का भरा-पूरा परिवार. लेकिन अपना कोई नहीं. वह जिंदा हैं या मर गये, इससे किसी को मतलब नहीं. जिसे अपना खून जला कर पाला-पोसा वह बेगाना हो गया. आंसुओं से भरी आंखों में यादों के सारे चित्र एक-एक कर उभरते चले गये. कन्हौली के रहने वाले बैजनाथ गुप्ता बात करते-करते खो जाते हैं. बताते हैं उनका दो मंजिला मकान है. बेटा संजय कुमार गुप्ता व विजय कुमार गुप्ता का अपना व्यवसाय है. लेकिन किसी को कोई मतलब नहीं है. कोई भी उनकी सुधि लेने नहीं आता. बेटों का रुख देख कर वे भी अपने घर नहीं जाते. पिछले तीन साल से यहीं रह रहे हैं. इस बीच किसी ने एक बार भी याद नहीं किया. उन्हें तो यह पता भी नहीं है कि मैं जिंदा हूं या नहीं. बेटों से मिलने मैं भले ही नहीं जाता हूं, लेकिन भूल कैसे सकता हूं. याद तो आती ही हैं. बस आंसू बहा लेता हूं.

किससे मिलने जाएं, कोई अपना नहीं

बेलसर थाना के जाफरपुर के रहने वाले रूपम मंडल पिछले डेढ़ साल से वृद्धाश्रम में रह रहे हैं. अब उन्हें बेटों की याद नहीं आती. रूपम के दो बेटे रामजोगिंदर व राजू हैं. रूपम कहते हैं के बेटों ने उन्हें यहां पहुंचा दिया है, तो वे वापस क्यों जाएं. बस इसी को घर मान लिये हैं. यही सबके साथ खाना व रहना है. हालांकि, रूपम अपने अकेलेपन का दर्द नहीं छुपा पाते. कहते हैं जब वे यहां आये थे, तो बेटों की शादी नहीं हुई थी. वे किस हाल में इसकी जानकारी नहीं है. बेटों की याद भी आती है तो क्या करें, मिलने कैसे जाएं. मन ताे बहुत करता है, लेकिन करें भी क्या. जब यहां आ गये हैं तो यही मेरा घर है. इसको छोड़ कर अन्य कोई ठिकाना नहीं है. अब यहीं जीना है और यहीं से विदा लेना है.

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