मधुबनीः मिथिला प्रक्षेत्रों में पर्व त्योहार अब धार्मिक अनुष्ठान तक ही सिमट कर रह गये हैं. पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही पर्व त्योहारों की परंपरा अब लुप्त होती नजर आ रही है. विलुप्त हो रहे पर्व त्योहारों की श्रेणी दिन ब दिन बढ़ता ही जा रहा है. यहां के अद्भुत संस्कृति का क्षरण होता जा रहा है.
सत्तू खाने की तैयारी
इस पर्व को लेकर लोगों ने सत्तू की खरीदारी शुरू कर दी है. गांव में लोग अपने खेत में उपजाये गये चने से सत्तू बनाने का काम किया. वहीं शहर में लोगों ने इसकी बाजार से खरीदारी की. यह सोमवार को खाया जायेगा. वहीं इसी दिन शाम को बनने वाले विभिन्न व्यंजनों को लेकर भी लोगों ने घर में सब्जी जुटाये.
मंगलवार को बासी भोजन के रूप में खाया जायेगा. इस भोजन में आम की चटनी निश्चित रूप से खायी जाती है. बाजार में इसके महत्व को लेकर आम के टिकोले तीन रुपये में दो के हिसाब से बिके. कई स्थानों पर इसकी कीमत प्रति टिकोले 4 रुपये तक रही. एक जमाना था जब जुड़ शीतल नाम से प्रसिद्ध मिथिला के ख्याति प्राप्त पर्व धार्मिक अनुष्ठान के साथ साथ कई को समेटने में सक्षम था परंतु आज यह पर्व खुद अपनी अस्तित्व को भी सहेजने में असक्षम प्रतीत होता जा रहा है. कई कारण से यहां के लोग इस पर्व को अन्य परंपराओं की तरह भुलते जा रहे हैं. पहले जहां मिथिला के गांवों में जुड़ शीतल मनाने की कवायद 10-15 दिन पूर्व से ही आरंभ हो जाती थी.
खासकर नौजवान एवं बच्चे बांस की हस्तनिर्मित पिचकारी बनाने व उस पिचकारी को लेकर तालाबों में खेलने की तैयारी में जुट जाते थे. गांव के नौजवान एवं बच्चे दो टोली में बंट कर तालाबों के पानी में पिचकारी से एक दूसरे के ऊपर पानी उड़ेलने का खेल खेलते थे तो बड़े बुजुर्ग अपने अपने घरों के आसपास की कीचड़ की सफाई व तालाबों एवं कुआं की उड़ाही का कार्य भी खेल- खेल में संपादित करते थे. कीचड़ एवं गोबर एक दूसरे पर फेंकने की प्रथा जुड़ शीतल वर्षो से चलती आयी है. इस खेल में गांवों की महिलाएं भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती थी. यह खेल सुबह के पहले पहर में खेला जाता था. माना जाता है कि इसका प्राकृतिक चिकित्सा के दृष्टिकोण से यह महत्वपूर्ण माना जाता है. जुड़ शीतल पर्व के दिन अहले सुबह घर की श्रेष्ठ महिला द्वारा सभी सदस्यों के माथे को पानी से शिक्त किया जाता है. जिसे जुड़ाया जाना कहा जाता है. कहा जाता है कि परिवार के बड़ों के आशीर्वाद से लोग पूरे साल खुशहाली की जिंदगी जीते हैं. विभिन्न ग्रंथों में इसकी चर्चा है. वहीं इस परंपरा को निभाये जाने के बाद हर कोई तमाम पेड़ पौधे की सिंचाई में जुट जाते हैं.
माना जाता है कि गरमी की बढ़ती तपिश से बचाने के लिए हर कोई संकल्पित है. फिर लोग नहा धोकर मिथिला की अति विशिष्ट व्यंजन कढ़ी और बड़ी के साथ चावल को भोजन के रूप में ग्रहण करते थे. इसके उपरांत दो बजते बजते लोग झुंड में लाठी, भाला, बरछी, फरसा आदि से लैश होकर वन में शिकार खेलने निकल जाते थे. शिकार में शाही, खरहा सहित अन्य खाद्य पशु पक्षियों की शिकार की जाती थी. यदि शिकार नहीं मिला या लोग शिकार करने में असफल रहे तो अशुभ माना जाता था. कहीं कहीं इस विशेष पर्व की विशिष्टता को भुनाने के उद्देश्य से इस दिन दंगल एवं कुश्ती की प्रतियोगिता भी आयोजित की जाती थी. शाम होते ही लोग भांग एवं चीनी की शरबत पीकर मदमस्त हो जाते थे. इसके बाद गांवों में लोग भजन कीर्तन का आयोजन करते थे. परंतु अफसोस की आज कल के युवक इसे महज एक इतिहास की कहानी ही समझते हैं क्योंकि आज जुड़ शीतल पर्व की लोकप्रियता पूर्णत: धूमिल हो गयी है. या यूं कहें कि युवा वर्गो में इस पर्व को लेकर उत्साह देखा ही नहीं जाता है.