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कारगिल युद्ध: बिहार के जांबाजों ने रस्सी के सहारे पहाड़ पर चढ़कर पहुंचाया था हथियार, जानें अन्य रोचक किस्से..

kargil vijay diwas: कारगिल युद्ध में बिहार के कई जवान शहीद हो गए थे. उनके परिजन व साथी बताते हैं कि किस तरह देश की खातिर वीरों ने अपने प्राणों की आहूति दे दी. उत्तर बिहार के जवानों की शहादत से जुड़ी सोमनाथ सत्योम की विशेष रिपोर्ट पढ़िए और गर्व किजिए..

kargil vijay diwas: कारगिल युद्ध को 24 साल बीत गये. जब युद्ध छिड़ा, तो सैकड़ों वीर जवानों ने देश की सीमा की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिये थे. बिहार के वीर सपूतों ने भी जान की बाजी लगा कर दुश्मनों को मार गिराया. कारगिल युद्ध करीब 83 दिनों तक चला था. 03 मई को युद्ध शुरू हुआ था और 26 जुलाई 1999 को भारत को युद्ध में विजय मिली थी. इसमें 530 जवान-अफसर युद्ध में शहीद हुए थे. 1363 जवान व अफसर दुश्मनों की गोली से जख्मी हुए थे. इनमें मुजफ्फरपुर के सिपाही प्रमोद कुमार और नायक सुनील कुमार सिंह सहित 16 जवान व अफसर शहीद हुए थे. इन वीर जवानों की स्मृति में 26 जुलाई को विजय दिवस मनाया जाता है. जानिए बिहार के जांबाजों के किस्से..

रस्सी के सहारे पहाड़ पर चढ़ साथियों को पहुंचाया था हथियार

मुजफ्फरपुर के पड़ाव पोखर निवासी देव आनंद ठाकुर भी कारगिल युद्ध के चश्मदीदों में से एक हैं. उस वक्त वे अल्मोड़ा में तैनात थे. लेकिन, युद्ध के बीच उनकी गोरखा बटालियन की पोस्टिंग कारगिल में हो गयी. टाइगर हिल्स और थर्ड ग्लेशियर पर तैनात किये गये. वे लोग नीचे थे और दुश्मन हजारों मीटर ऊपर. कई यूनिट ऊपर युद्ध कर रही थी. देव आनंद ठाकुर ने बताया कि वे लोग रात के अंधेरे में रस्सी के सहारे पहाड़ पर चढ़ते थे. हथियार, खाना, दवा और गोपनीय सूचनाएं लेकर जाते थे. कई बार तो रस्सी टूटी, गिरे, फिर वही काम करते थे. इसे लेकर देव आनंद को ओपी कारगिल मेडल से सम्मानित किया गया. साथ ही दर्जनभर से अधिक मेडल से अपने सेवा काल में नवाजे गये हैं.

दुश्मनों से लोहा लेते पहाड़ से गिर कर वीरगति को प्राप्त हुए थे नायक सुनील

करजा थाना फंदा निवासी नायक सुनील कुमार सिंह सियाचिन में दुश्मनों से पंगा लेते शहीद हो गये थे. 23 जुलाई को नायक सुनील कुमार सिंह सियाचिन ग्लेशियर पर दुश्मनों की ईंट से ईंट बजा रहे थे. इस बीच एक दुश्मन से पंगा लेने के दौरान पहाड़ के नीचे गिर गये और वीरगति को प्राप्त हुए. तीन दिन बाद उनका पार्थिव शरीर करजा के फंदा गांव पहुंचा था. जहां सैनिकों की सलामी के साथ उन्हें नम आंखों से अंतिम विदाई दी गयी थी. इसके बाद नायक सुनील की पत्नी की राह आसान नहीं था. उनके अपने परिजनों ने ही उसे सताना शुरू कर दिया. ससुराल पक्ष ने उन्हें घर से निकाल दिया. मायके पक्ष यानी पिता ने एक बार फिर साथ दिया. साथ ही जिला सैनिक कल्याण बोर्ड ने भी मीना की मदद की. उनके हक के लिए मुजफ्फरपुर से दिल्ली तक जंग लड़ी और मीना को जीत दिलायी. फिलहाल मीना वर्तमान में बिहार सरकार में सेवा दे रही हैं. बच्चे को भी काबिल बना चुकी हैं.

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सिंधु नदी के किनारे हो रही गोलीबारी के बीच पहुंचे थे अपने पोस्ट

मनियारी माधोपुर के बहादुर रामबाबू सिंह कारगिल युद्ध में शामिल थे. इंजीनियरिंग कोर के जवान थे. युद्ध के बीच सूचना पहुंचाने की जिम्मेदारी थी. अपने पोस्ट से सिंद्धु नदी के किनारे और पहाड़ से होकर कारगिल के डाह बटालिक पहुंचे थे. जहां पाकिस्तान लगातार गोलीबारी कर रहा था. यह पहुंचने पर रेडियो फ्रिक्वेंसी के माध्यम से सूचना पहुंचाने का काम किया था. रामबाबू सिंह बताते हैं कि उस वक्त जुनून सवार था. घर-परिवार भी याद नहीं रहता था. पांच मई को उनलोगों को युद्ध की सूचना मिल चुकी थी. इसके तुरंत बाद फरमान भी आ गया और उन लोगों ने युद्ध में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया.

परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, हमें कारगिल फतह करना था

वायु सैनिक प्रवीण रंजन ने बताया कि कारगिल युद्ध के समय अंबाला में एक रडार इकाई में तैनात थे. लड़ाई शुरू होने पर उच्चाधिकारियों ने उन्हें श्रीनगर वायुसेना स्टेशन भेज दिया. जहां रडार नियंत्रण कक्ष में फाइटर प्लेन को नियंत्रित करने में जुट गये. बताया कि उस वक्त परिस्थिति ऐसी थी कि रात-दिन श्रीनगर से फाइटर प्लेन से दुश्मन हमला करने जाते-आते थे. आमने-सामने की लड़ाई लड़ रहे थे. सैनिकों को रसद-पानी भी श्रीनगर से ही आता था. फिर वहां से उन्हें भेजा जाता था. बताया कि उस वक्त एक ही बात दिमाग में थी कि परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, हमें कारगिल फतह करना है.

38 दिनों के बाद बर्फ से ढंका हुआ मिला था पार्थिव शरीर

द्रास सेक्टर में दुश्मनों की गोलियों से वीरगति को प्राप्त होने वाले बिहार रेजीमेंट के बहादुर जवान सह कुढ़नी के माधोपुर सुस्ता निवासी शहीद प्रमोद की मां दौलती देवी की आंखें आज भी नम हैं. चेहरे पर उदासी है. आवाज भी लड़खड़ा रही है. लेकिन, हिम्मत, धैर्य, दिलासा के साथ वे बताती हैं कि बेटा खोने की टीस आज भी उनके सीने में है. पर खुशी इस बात की है कि उन्होंने अपना बेटा देश के लिए खोया है. वह देश के लिए शहीद हुआ है. वे कहती हैं कि उसके बड़े भाई को 30 मई 1999 को ही इसका आभास हो गया था कि उनका भाई लड़ते-लड़ते शहीद हो गया है. उस वक्त वह नौ बिहार रेजिमेंट में थे. युद्ध में जाने से पहले प्रमोद ने उन्हें बताया था कि वह मेजर सदानंद के साथ द्रास सेक्टर जा रहा है. सूचना आयी थी कि मेजर सदानंद सहित पांच जवान द्रास में शहीद हो गये हैं. बताया कि 30 मई 1999 को द्रास सेक्टर में साथियों खोजने गये जवान प्रमोद का पार्थिव शरीर पूरे 38 दिनों के बाद बर्फ से ढंका हुआ मिला था. वहीं 48 दिन बाद पार्थिव शरीर गांव माधोपुर सुस्ता आया था. भाई श्यामनंदन यादव ने कहा कि उत्तर बिहार के वीरों पर उन्हें गर्व है. एक शहीद का भाई कहलाने से फक्र महसूस होता है.

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