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महिलाओं की जाति नहीं होती

गया : दलित व स्त्री होना करैले पर नीम के समान है. अस्तित्व के संघर्ष में दलित महिलाएं काफी पीछे हैं. ऐसा नहीं कि उनके अंदर संवेदना नहीं. उन्होंने संघर्ष नहीं किया. बस, उनकी कहीं गाथा नहीं है. इसके पीछे कारण था कि दलित स्त्री विमर्श लिखनेवाला कोई नहीं था. उक्त बातें जामिया मिलिया इसलामिया […]

गया : दलित व स्त्री होना करैले पर नीम के समान है. अस्तित्व के संघर्ष में दलित महिलाएं काफी पीछे हैं. ऐसा नहीं कि उनके अंदर संवेदना नहीं. उन्होंने संघर्ष नहीं किया. बस, उनकी कहीं गाथा नहीं है. इसके पीछे कारण था कि दलित स्त्री विमर्श लिखनेवाला कोई नहीं था. उक्त बातें जामिया मिलिया इसलामिया की प्रोफेसर (कथाकार) हेमलता माहीश्वर ने कहीं.
वह शुक्रवार को ऑक्सफैम इंडिया व साउथ एशियन वीमेन इन मीडिया की ओर से ‘साहित्य, कला, संस्कृति व मीडिया में महिलाओं की भागीदारी व अभिव्यक्ति’ विषय पर रेनेसांस में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला के समापन मौके पर कार्यशाला के पहले सत्र की अध्यक्षता कर रही थीं. उन्होंने कहा कि स्त्रियों की कोई जाति नहीं होती, पुरुष की जाति को स्वमेव धारण करती हैं. आज वे पहचान व सामाजिक स्तर पर अपना हक मांग रही हैं.
हेमलता ने कहा कि यह कैसी व्यवस्था है कि हर पुरुष का उसके शरीर पर अधिकार होता है, पर उसका अपना कोई अधिकार नहीं. स्त्रियों के पास शरीर व श्रम के अलावा कुछ नहीं होता. बिहार सेंट्रल यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर शांति भूषण ने कहा कि वेश्याओं में अधिकतर दलित वर्ग की होती हैं.
1921 में महाराष्ट्र के आंकड़े के मुताबिक, प्रति 1000 सेक्स वर्करों में 799 दलित वर्ग की थीं. हालांकि, आनंद बाजार पत्रिका की वरिष्ठ पत्रकार स्वाति भट्टाचार्य ने कहा कि यह गलत है. कोलकाता में कुलीन परिवार की लड़कियां भी सेक्स वर्कर हैं.
शांति भूषण ने कहा कि महिलाओं को अस्तित्व व अस्मिता की लड़ाई लड़ने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि आदिवासी बहुल क्षेत्रों की महादलितों को भाषा की समस्या रहती है. वह क्षेत्रीय भाषा ही बोल पाते हैं. इस कारण वे अपनी बात दूसरों से शेयर नहीं कर पाते. इस सत्र में सीयूबी के असिस्टेंट प्रोफेसर अनुज लुगुन, सुनंदा व वरीय पत्रकार राना अयूब ने भी अपने विचार रखे.
..संघर्ष का इतिहास नहीं मिलता : कार्यशाला के दूसरे सत्र की अध्यक्षता संस्कृत यूनिवर्सिटी, दरभंगा की प्रति कुलपति नीलिमा सिन्हा ने की. इस सत्र के मुख्य वक्ता सुजाता पारमिता, दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर कौशल पवार, जन जागरण की सामाजिक कार्यकर्ता कामायनी स्वामी, दिल्ली विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर कवितेंद्र इंदू व एडवा की रामपरी ने भी अपने विचार रखे.
चर्चा की कड़ी में सुजाता पारमिता ने कहा कि दलितों व स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार नहीं था. इस कारण उनके संघर्ष का इतिहास नहीं मिलता. उन्होंने बुद्ध, वशवेश्वर, ज्योति बा व सावित्रीबाई फुले और इसके बाद बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर को दलित व स्त्रियों के लिए संघर्ष करनेवालों का अग्रदूत बताया.
उन्होंने कहा कि बुद्ध ने जहां सामाजिक मान्यताओं पर चोट करते हुए विरोध किया, वहीं वशवेश्वर ने वचन साहित्य में जाति पर चोट की. जाति व ब्राrाणवाद के खिलाफ संघर्ष किया. ज्योति बा व सावित्रीबाई फुले ने तो सामाजिक न्याय के लिए बड़ा संघर्ष किया. स्त्री व दलितों के लिए एक जनवरी, 1848 में पहला स्कूल खुला और फिर पूरे देश में 1800 स्कूल खोले गये. आंबेडकर ने संविधान में ही दलितों व स्त्रियों के अधिकार व अस्तित्व का हक दे दिया.
कम्यूनिकेशन गैप बड़ा मुद्दा : कामायनी ने कहा कि संघर्ष जीवन में निहित है.
उन्होंने कहा कम्यूनिकेशन गैप बड़ा मुद्दा है. उन्होंने कहा कि एक दिन का भोजन नहीं, बल्कि भोजन जुटाने के तरीके व काम दे दो, ताकि रोटी देने की जरूरत न पड़े. कौशल पवार ने कहा कि वर्चस्व में स्त्री-पुरुष का विभेद आता है. चौंकानेवाले तथ्य उजागर करते हुए कहा कि हरियाणा में ईंट भट्ठों पर काम करनेवाली महिलाओं के नाम ठेकेदार अपने रजिस्टर में नहीं लिखते हैं.
चाहे वह विधवा ही क्यों न हो. मर्दो के नाम से महिलाएं जानी जाती हैं. उन्होंने कहा कि मीडिया में वैसे ही महिलाएं कम हैं और इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह कि दलित महिलाओं की संख्या नगण्य है. महिलाएं पुरुषवादी सोच का शिकार हो रही हैं. धन्यवाद ज्ञापन स्त्रीकाल के संपादक संजीव चंदन किया व अतिथियों का स्वागत साउथ एशियन वीमेन इन मीडिया के बिहार चैप्टर की अध्यक्ष निवेदिता झा ने किया.

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