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साहित्य: किताबों के हवाले से गांधी

हिंदी में मौलिक रूप से गांधी को लेकर गंभीर विमर्श कम ही नजर आता है, पर ऐसा भी नहीं कि साहित्य लिखा ही नहीं गया. इतिहासकार सुधीर चंद्र की किताब ‘गांधी एक असंभव संभावना' (2011) पढ़ी जानी चाहिए.

जहां महात्मा गांधी के विचार सौ से ज्यादा खंडों में ‘संपूर्ण गांधी वांग्मय’ में संग्रहित हैं, वहीं उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के विभिन्न पहलुओं पर पिछले सौ वर्षों में हजारों किताबें, लेख, शोध पत्र आदि छप चुके हैं. आश्चर्य नहीं कि 21वीं सदी में भी उनके विचारों की पड़ताल और आलोचना जारी है. इस लेख में हम कुछ किताबों की चर्चा कर रहे हैं, जो पिछले दशकों में प्रकाशित हुए है. यह उचित है कि महात्मा गांधी पर लिखी किताबों की शुरूआत उनकी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ से होनी चाहिए. यह आत्मकथा पहले ‘नवजीवन’ में और फिर ‘यंग इंडिया’ पत्रिका में 1925 से 1929 के बीच प्रकाशित हुई थी. मूल रूप में गुजराती में लिखित यह रचना विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध है और ‘क्लासिक’ का दर्जा पा चुका है.

लेखक-अनुवादक त्रिदीप सुहृद ने भूमिका के साथ इसका ‘आलोचनात्मक संस्करण’ (2018) प्रस्तुत किया है. इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने पिछले दशक में दो खंडों में महात्मा गांधी की जीवनी लिखी है. पहले खंड में गांधी के ‘महात्मा’ बनने की यात्रा को विस्तार से व्यक्त किया गया है. दूसरा खंड दक्षिण अफ्रीका से भारत वापसी, स्वतंत्रता संग्राम में केंद्रीय भूमिका से लेकर समकालीन नेताओं, सहयोगियों के साथ वाद-विवाद-संवाद को समेटे है. यहां गांधी के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं से हमारा साक्षात्कार होता है. सहज शैली और अद्यतन शोध सामग्री के इस्तेमाल से जीवनी मुकम्मल बन पड़ी है. मूल रूप में अंग्रेजी में लिखी जीवनी हिंदी अनुवाद में भी उपलब्ध है.

गांधी एक कुशल वक्ता और संचारक थे, लेकिन उनके पत्रकार रूप की चर्चा छूट जाती है. दक्षिण अफ्रीका में अपने प्रवास (1893-1914) के दौरान उन्होंने बहुभाषी पत्र ‘इंडियन ओपिनियन’ (1903) के साथ जुड़ कर अपने विचारों की धार को तेज किया, जो बाद के सत्याग्रह और पत्रकारीय कर्म में काफी महत्वपूर्ण साबित हुआ था. वहां के सत्याग्रह, भारतीयों के अस्मिता संघर्ष में इस पत्र की केंद्रीय भूमिका थी. उन्होंने इस बात को रेखांकित किया है कि ‘इंडियन ओपिनियन’ के बिना सत्याग्रह असंभव होता.

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इतिहासकार इसाबेल हॉफ्मायर की किताब ‘गांधीज प्रिंटिंग प्रेस: एक्सपेरिमेंट इन स्लो रीडिंग’ (2013) में चर्चा है कि ‘इंडियन ओपिनियन’ के प्रकाशन के दौरान किस तरह गांधी ने खबरों के उत्पादन, प्रसारण और पढ़ने के तरीकों के लिए धीमी गति की पत्रकारिता पर जोर दिया. वे अपने लेखों में पाठकों को समाचार पत्र पढ़ने की गति धीमी रखने और पाठ को बार-बार पढ़ने को कहते थे. वे हर पाठक में सत्याग्रही की संभावना देखते थे. गांधी ने ‘इंडियन ओपिनियन’ के गुजराती के पाठकों के लिए ही ‘हिंद स्वराज’ की रचना की थी.

हिंदी में मौलिक रूप से गांधी को लेकर गंभीर विमर्श कम ही नजर आता है, पर ऐसा नहीं कि साहित्य लिखा नहीं गया. इतिहासकार सुधीर चंद्र की किताब ‘गांधी एक असंभव संभावना’ (2011) पढ़ी जानी चाहिए. इसमें सुधीर चंद्र गांधी के सचिव प्यारेलाल के हवाले से यह सवाल उठाते हैं कि ‘कहां हो सकते हैं गांधी आज के जमाने में?’ यह किताब गांधी के अंतिम दिनों के बारे में है, साथ ही हमारे दौर के बारे में भी है.

गांधी ने कहा था कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है. लेखक-कलाकार जेसन क्वीन ने ‘गांधी- मेरा जीवन ही मेरा संदेश’ (2014) नाम से रोचक चित्र कथा लिखी है. गांधी के जीवन और कर्म को अशोक चक्रधर ने खूबसूरत ढंग हिंदी में रूपांतरित किया है. अकादमिक दुनिया में गांधी के विचारों को इतिहासकार, समाजशास्त्री, पर्यावरणविद, स्त्री विमर्शकार और दलित चिंतकों ने देखा-परखा है. इस लिहाज से ए रघुरामाराजू संपादित ‘डिबेटिंग गांधी: ए रीडर’ (2006) महत्वपूर्ण संकलन है.

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