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बेंगलुरु में जलजमाव से सबक लेने की जरूरत

पानी निकलने का हमेशा एक रास्ता होता है. अगर उस रास्ते को अवरुद्ध कर दिया जाए या बंद कर दिया जाए, तो पानी कहीं न कहीं जमा होगा ही.

देश के सबसे विकसित शहर बेंगलुरु में आज हम जो बाढ़ की विभीषिका देख रहे हैं, वह कोई नयी बात नहीं है. महानगरों समेत देश के सभी बड़े शहरों में गाहे-ब-गाहे ऐसे दृश्य सामने आते रहे हैं. शायद ही भारत में कोई ऐसा शहर है, जहां थोड़ी-बहुत बारिश में भी जलजमाव नहीं होता हो. इसकी सबसे बड़ी वजह हमारे शहरों में हो रहे अंधाधुंध निर्माण हैं.

जैसे आपने शहर में मेट्रो रेल बना दिये, फ्लाईओवर बना दिये, अंडरब्रिज बना दिये, बड़ी-बड़ी इमारतें, मॉल आदि बना दिये, तो उससे यह होता है कि पानी निकलने के जो प्राकृतिक रास्ते होते हैं, वे खत्म हो जाते हैं. ऐसे निर्माणों से उस इलाके का भूगोल बदल जाता है. पानी निकलने का हमेशा एक रास्ता होता है. अगर उस रास्ते को अवरुद्ध कर दिया जाए या बंद कर दिया जाए, तो पानी कहीं न कहीं जमा होगा ही. कुछ साल पहले के एक अध्ययन में हमने यही पाया था कि जहां अधिक निर्माण हुए हैं, पानी का जमाव वहीं होता है.

यह बात हमें सीधे तौर पर समझना होगा कि शहरों का जितना आधुनिकीकरण होगा, जलजमाव की समस्या उतनी ही बढ़ती जायेगी. शहरों से संबंधित चर्चाओं में प्रदूषण से बात उठती है, फिर मामला आता है कि सड़कों पर भीड़ बढ़ रही है, फिर कहा जाता है कि लोगों को घर से काम की जगह जाने में परेशानी हो रही है, जाम में केवल गाड़ी वाले ही नहीं, दोपहिया वाहन वाले भी फंसते हैं,

इन्हीं बातों से यह निकलता है कि अगर गाड़ी केंद्रित हमारी सोच होगी और उसके अनुसार शहर बनेंगे, तो प्रदूषण भी बढ़ेगा, भीड़ भी बढ़ती रहेगी, खर्च में वृद्धि होगी. यह बात कही जरूर जाती है कि सड़क पर साइकिल, पैदल यात्रियों के लिए जगह दी जानी चाहिए या बसों की अधिक व्यवस्था होनी चाहिए. अगर इनका नियोजित ढंग से व्यावहारिक पालन हो,

तो फिर ये जो हम सारी संरचना बना रहे हैं गाड़ियों के लिए, उनमें कमी आयेगी. बस की जगह हम मेट्रो ले लाये हैं यह कह कर कि इससे आने-जाने में समय बचेगा, लेकिन मेट्रो का खर्च बस से कई गुना अधिक है. इन बातों पर विचार कर शहरों को फिर से डिजाइन करने की जरूरत है, तभी हमें जलजमाव, बाढ़ आदि से मुक्ति मिल सकती है.

यदि हम सोचते हैं कि शहरीकरण की मौजूदा सोच और मौजूदा संरचना में कुछ सुधार कर तात्कालिक रूप से राहत पा सकते हैं, तो हमारा सोचना गलत है. हर बार शहरी बाढ़ के समय सरकारों और नगर निगमों द्वारा नये-नये जुमले उछाले जाते हैं. एक जुमला हर बार सुनने को मिलता है कि नालियों की सफाई की जाए. ऐसा करने से कुछ नहीं होगा, क्योंकि आखिर नालियां कहीं जाकर किसी नाले में तो गिरेंगी.

अगर आपने नाली और नाले के निकासी पैटर्न को ही बिगाड़ दिया है, कहीं आपने मॉल बना दिया है, कहीं कुछ बना दिया है, तो जाहिर है कि पानी नहीं निकलेगा. जब भी जलजमाव होता है, तो दूसरा जुमला यह कहा जाता है कि जहां-जहां ऐसी समस्या है, वहां पंप लगा दिया जाए. उदाहरण के लिए दिल्ली में आइटीओ पुल के नीचे के जलजमाव को लें. वहां हर साल पानी जमा होता है.

कहा गया कि वहां एक और बड़ा पंप लगा देते हैं. सवाल यह है कि उस पंप से निकाले गये पानी को कहां फेंकेंगे. यह जुमला भी अक्सर सुनने को मिलता है कि इस बार बारिश बहुत अधिक हो गयी. यह बात तार्किक और तथ्यात्मक नहीं है. दिल्ली समेत अनेक शहरों में पहले की अपेक्षा कम बारिश होने लगी है. जब किसी दिन या दो-तीन बारिश हो जाती है, तो हल्ला हो जाता है कि जलजमाव हो गया.

इस तरह की बातों से असल में बुनियादी समस्या को दरकिनार कर ऐसे समाधान निकाले जाते हैं, जिनसे केवल ठेकेदारों और रियल इस्टेट सेक्टर को फायदा होता है. कोई भी शहर देख लें, वहां कभी पानी जमा होने या उसकी निकासी के लिए प्राकृतिक व्यवस्था थी. उन तालाबों और रास्तों को घेर कर हमने इमारतें और सड़कें बना दीं. बेंगलुरु में भी यह बहुत हुआ है.

यह सोचने की आवश्यकता है कि आखिर ऐसा होता क्यों है तथा इसका असली फायदा किसको मिलता है. जहां भी मेट्रो या बड़ी सड़क पहुंचेगी, तो निश्चित ही उसके आसपास की जमीन की कीमत बढ़ जायेगी. ऐसी जगहों पर बड़ी कंपनियां सक्रिय हो जाती हैं और आनन-फानन में निर्माण होने लगते हैं.

लैंड पुलिंग की नीतियों से बिल्डरों को और सहूलियत हो गयी है. इस तरह के निर्माणों में न तो पर्यावरण संबंधी पहलुओं पर समुचित ध्यान दिया जाता है और न ही पानी निकासी की ठोस व्यवस्था के बारे में सोचा जाता है. विकास के नाम पर जमीन की कीमत बढ़ा कर इमारतें बनाने के व्यापक चलन ने प्राकृतिक निकासी तंत्र को पूरी तरह तबाह कर दिया है. ऐसे में प्रकृति का पलटवार होता है और हम परेशान हो उठते हैं. विकास की इस गलत अवधारणा को त्याग देना चाहिए, तभी हम अच्छे शहरी जीवन को जी सकेंगे.(बातचीत पर आधारित).

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