प्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि की भूमिका पर सख्त टिप्पणियां करते हुए मार्गदर्शक उपाय भी किये हैं. मंजूरी के लिए लंबे समय से लंबित, तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित, 10 विधेयकों को सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग करते हुए स्वीकृत घोषित कर विधेयकों पर निर्णय के लिए एक से तीन माह की समयसीमा भी तय कर दी. राज्यपाल राज्य में सर्वोच्च संवैधानिक पद है, जिसकी नियुक्त केंद्र की सिफारिश पर राष्ट्रपति करते हैं. उनसे अपेक्षा रहती है कि वह अपनी सत्तारूढ़ दल की पृष्ठभूमि या उससे निकटता के बावजूद संविधान के दायरे में भूमिका का निर्वाह करें. तमिलनाडु मामले में सुप्रीम कोर्ट ने नसीहत दी है कि राज्यपाल को राज्य के मित्र, मार्गदर्शक और दार्शनिक के रूप में कार्य करना चाहिए, न कि राजनीतिक लाभ से निर्देशित होना चाहिए. यह भी कि राज्यपाल समस्याओं के समाधान का अग्रदूत होता है, उसे उत्प्रेरक होना चाहिए, न कि अवरोधक. न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की खंडपीठ ने यहां तक कहा कि राज्यपाल द्वारा 10 विधेयकों को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए आरक्षित रखना ‘अवैध’ है और इसे ‘रद्द’ किया जाना चाहिए. यह भी कि राज्यपाल के पास ‘वीटो पावर’ नहीं है.
ताजा मामला तमिलनाडु के राज्यपाल रवि का है. तमिलनाडु विधानमंडल ने जनवरी, 2020 से अप्रैल, 2023 के बीच संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की सहमति के लिए 12 विधेयक भेजे, जिनमें से ज्यादातर राज्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्तियों से संबंधित थे, लेकिन रवि उन्हें लटका कर बैठ गये. नवंबर, 2023 में जब तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, तो उन्होंने दो विधेयक राष्ट्रपति को भेज कर 10 विधेयक रोक लिये. तमिलनाडु विधानसभा ने वे 10 विधेयक दोबारा पारित कर मंजूरी के लिए राज्यपाल के पास भेजे, तो उन्होंने वे सभी राष्ट्रपति के पास भेज दिये. राष्ट्रपति ने एक विधेयक को मंजूरी दे दी, तो सात को खारिज कर दिया, जबकि शेष दो प्रस्तावित कानूनों पर विचार ही नहीं किया. राज्यपाल और तमिलनाडु सरकार के बीच टकराव का यह एकमात्र मामला नहीं. सरकार द्वारा स्वीकृत अभिभाषण राज्यपाल द्वारा पूरा न पढ़े जाने से शुरू हुआ टकराव पोंगल पर राजभवन में होनेवाले कार्यक्रम के लिए निमंत्रण पत्र में राज्य और राज्यपाल का पदनाम बदलने से बढ़ता हुआ मुख्यमंत्री की सिफारिश के बिना ही भ्रष्टाचार के आरोपी मंत्री सैंथिल की बर्खास्तगी तक भी पहुंचा.
राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच टकराव का यह देश में इकलौता मामला नहीं है. जिन भी राज्यों में केंद्र से अलग राजनीतिक दल या गठबंधन की सरकार है, वहीं ऐसे विवाद नजर आते हैं. तमिलनाडु के मामले में सख्त टिप्पणियों से उत्साहित केरल सरकार ने भी अब अपनी ऐसी ही याचिका पर जल्द सुनवाई और उसे न्यायमूर्ति पारदीवाला की पीठ के समक्ष ही सूचीबद्ध करने का अनुरोध किया है. केरल की वाम मोर्चा सरकार की भी शिकायत है कि राज्यपाल कई विधेयकों को लंबे समय से मंजूरी के लिए रोके बैठे हैं. राज्य सरकार और राज्यपाल के तल्ख रिश्तों के लिए हाल के वर्षों में तमिलनाडु, केरल, झारखंड, तेलंगाना और पंजाब चर्चित रहे हैं. राज्यपालों के आचरण पर सर्वोच्च न्यायालय ने पिछली बार सख्त टिप्पणी पंजाब के मामले में की थी. तत्कालीन राज्यपाल बनबारी लाल पुरोहित ने भी पंजाब की आप सरकार द्वारा विधानसभा में पारित करा कर मंजूरी के लिए भेजे गये विधेयक रोक लिये थे. तब पंजाब सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने टिप्पणी की थी कि राज्यपालों को नहीं भूलना चाहिए कि वे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं हैं.
राज्यपाल और निर्वाचित राज्य सरकार में अशोभनीय टकराव लोकतंत्र और संघवाद के लिए सुखद नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच टकराव अचानक बढ़ गया है. हां, उसका स्वरूप अवश्य बदला है. अब राज्यपाल अपनी संवैधानिक शक्तियों की सुविधाजनक व्याख्या कर निर्वाचित राज्य सरकारों के कामकाज में अड़ंगे लगाते हैं, जबकि अतीत में वे सरकारों को बर्खास्त कर मनपसंद सरकार बनाने की हद तक जाते रहे हैं. बीती सदी के 70 और 80 के दशक के बाद राज्यपालों की भूमिकाएं ज्यादा विवादास्पद हो गयी हैं. राज्यपाल नियुक्त करते समय संबंधित राज्य सरकार को विश्वास में लेने की कोशिश अपवादस्वरूप ही दिखी. राज्यपाल को मोहरा बना कर विपक्ष की राज्य सरकारों को अस्थिर करने का खेल आजादी के बाद ही शुरू हो गया था. वर्ष 1977 और 1980 में तो यह जैसे ‘म्यूजिकल चेयर गेम’ बन गया. आपातकाल के बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ हुई, तो कई कांग्रेस शासित राज्य सरकारें बर्खास्त कर राज्यपाल भी हटा दिये गये. राज्यपाल के संवैधानिक पद की गिरती गरिमा को दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर ही बचाया जा सकता है, लेकिन मतभेद के बजाय मनभेद की राजनीति में उसकी संभावना नहीं दिखती.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)