Pratap Narayan Mishra : आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र के साहित्यिक अवदानों के फलस्वरूप हिंदी में नवजागरणकाल की संज्ञा पाने वाले उनके युग (जिसे आमतौर पर ‘भारतेंदु युग’ कहा जाता है) की एक बड़ी उपलब्धि यह थी कि उसके अलंबरदार लेखकों व कवियों का ‘भारतेंदु मंडल’ नामक महत्वपूर्ण समूह बन गया था. इस मंडल के कई सदस्य इस युग की समाप्ति के बाद भी उसकी पहचान से जुड़े राष्ट्रप्रेम व राष्ट्रीय चेतना जगाने और हिंदी की गद्य, नाटक व निबंध जैसी विधाओं के विकास के काम में लगे रहे. वे सामाजिक कुप्रथाओं, आडंबरों व भ्रष्टाचारों पर निर्मम प्रहार कर पाठकों की चेतनाओं को झकझोरते भी रहे.
भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, राधाचरण गोस्वामी, ठाकुर जगमोहन सिंह और अंबिका दत्त व्यास जैसे इस मंडल के यशस्वी सदस्यों के बीच प्रतापनारायण मिश्र को इस मायने में अलग से रेखांकित किया जाता है कि सादगी भरे फक्कड़पन और सजीव बांकपन ने उनके व्यक्तित्व को सर्वथा अलग पहचान से मंडित किये रखा. अपने अनवरत सृजन के कारण वह ‘दूसरे भारतेंदु’, ‘दूसरे चंद्र’ व ‘प्रति हरिश्चंद्र’ वगैरह भी कहे जाते थे. आधुनिक हिंदी भाषा व साहित्य के निर्माण के प्रयत्नों के निरंतर अनुगमन ने उनको उस युग और खड़ी बोली के उन्नायक के रूप में ऐसी मान्यता दिला दी थी, जो कई बार मंडल के दूसरे सदस्यों के लिए ईर्ष्या का कारण भी बन जाती थी. इस मान्यता ने उनको भारतेंदु मंडल का सबसे उज्ज्वल नक्षत्र बना दिया था.
लेकिन दुर्भाग्यवश, हिंदी के शेक्सपियर कहलाने वाले रांगेय राघव की तरह उनको भी चालीस वर्षों से कम का ही जीवन नसीब हुआ. बावजूद इसके संसार को अलविदा कहने से पहले वह हिंदी जगत को 40 से ज्यादा कृतियां दे गये. कविकर्म भी किया और समसामयिक विषयों पर 300 से ज्यादा निबंध भी लिखे. हिंदी नाटकों व रंगमंच वगैरह के उन्नयन में बहुविध सक्रियताओं के बीच पीर, बावर्ची, भिश्ती व खर की भूमिकाएं निभाते हुए उन्होंने ‘ब्राह्मण’ नामक मासिक का संपादन और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय व ईश्वरचंद्र विद्यासागर की बांग्ला रचनाओं का अनुवाद भी किया.
उनकी रचनाएं जहां ‘कवि वचन सुधा’, ‘भारत प्रताप’, ‘हिंदी प्रदीप’ एवं ‘हिंदोस्थान’ जैसी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थीं, वहीं महामना मदनमोहन मालवीय के संपादन काल में वह ‘हिंदोस्थान’ में सहायक संपादक रहे थे. उन दिनों यह पत्र उत्तर प्रदेश की ऐतिहासिक राष्ट्रवादी रियासत कालाकांकर से निकलता था और 1889 में 25 रुपये महीने के वेतन पर वह उसमें काम करने वहां गये थे. उन्होंने वहां बालमुकुंद गुप्त को हिंदी भी सिखायी थी. वहां से लौटकर 1891 में उन्होंने कानपुर में ‘रसिक समाज’ की स्थापना की और स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस द्वारा संचालित कार्यक्रमों से जुड़ गये. वह भारतधर्ममंडल, धर्मसभा, गोरक्षिणी सभा समेत कई संगठनों में भी सक्रिय रहे.
उत्तर प्रदेश के बैसवारा अंचल के उन्नाव जिले के बैजेगांव में वह 24 सितंबर, 1856 को पैदा हुए थे. उनके पिता चाहते थे कि वह कानपुर में रहकर ज्योतिष का अध्ययन करें. पर कई स्कूलों में घूमकर भी वह स्कूली शिक्षा के प्रति बहुत समर्पित नहीं हो पाये. अलबत्ता अपनी प्रतिभा और स्वाध्याय के बूते उन्होंने हिंदी, उर्दू, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी और बांग्ला का ज्ञान प्राप्त किया. अनंतर उन्होंने कानपुर को अपनी साहित्यिक सक्रियता का केंद्र बनाया. रामलीलाओं में अभिनय व काव्य रचना के अभ्यास के क्रम में वह भारतेंदु हरिश्चंद्र के संपर्क में आये, तो उन्हीं के होकर हो गये.
छात्रावस्था में ही वह भारतेंदु द्वारा संपादित प्रतिष्ठित मासिक ‘कविवचनसुधा’ के नियमित पाठक बनकर स्वयं कवि कर्म का अभ्यास करने लगे थे. बाद में भारतेंदु के प्रति उनकी श्रद्धा अनन्य हो गयी और वह उनकी रचनाशैली, विषयवस्तु व भाषा से व्यापक रूप से प्रभावित हुए. उनकी पहली काव्य-कृति ‘प्रेम पुष्पांजलि’ 1883 में प्रकाशित हुई थी. फिर ‘मन की लहर’, ‘लोकोक्तिशतक’, ‘कानपुर महात्म्य’, ‘तृप्यंताम्’, ‘दंगल खंड’, ‘ब्रेडला स्वागत’, ‘तारापात पचीसी’, ‘दीवाने बरहमन’, ‘शोकाश्रु’, ‘बेगारी विलाप’ और ‘प्रताप लहरी’ जैसी काव्य-कृतियां प्रकाशित हुई थीं. उन्होंने ‘कलि-कौतुक रूपक’, ‘हठी-हमीर’, ‘भारत दुर्दशा रूपक’, ‘दूध का दूध पानी का पानी’, ‘जुआरी-खुआरी’, ‘संगीत शाकुंतलम्’ आदि नाट्य-कृतियों की भी रचना की थी.
वह इस मायने में सौभाग्यशाली हैं कि उनकी जन्मस्थली (बैजेगांव) के लोगों ने अब भी उनको भुलाया नहीं है और उनकी जयंती व पुण्यतिथि पर वे उनको शिद्दत से याद करते हैं. गांव में एक पार्क को उनका नाम दिया गया है, जो उनकी हर जयंती पर उनकी याद में किये जाने वाले समारोह का साक्षी बनता है. इस पार्क में उनकी एक आदमकद प्रतिमा भी स्थापित की गयी है.
प्रताप नारायण मिश्र अपने स्वास्थ्य को लेकर इतने लापरवाह थे कि युवावस्था में ही उनका शरीर रोगों का घर हो गया था. लेकिन बचाव के नियमों व उपायों का वह उल्लंघन करते रहते थे. नतीजतन, 1892 के अंत में गंभीर रूप से बीमार पड़े और डेढ़ वर्षों तक अशक्तताएं झेलने के बाद छह जुलाई, 1894 को इस संसार को अलविदा कह गये.

