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सुरक्षा परिषद में भारत की भूमिका

आज जब भारत सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता कर रहा है, तो वैश्विक परिदृश्य में और संयुक्त राष्ट्र में भारत की भूमिका का संज्ञान लिया जाना चाहिए.

अगस्त माह के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता कर रहे भारत ने अपनी प्राथमिकताएं स्पष्ट कर दी हैं. संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरूमूर्ति ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र समेत सामुद्रिक सुरक्षा, आतंकरोधी पहल, जलवायु परिवर्तन, सतत विकास जैसे मसलों को प्रमुखता से रेखांकित किया है. आतंकवाद की रोकथाम के उपायों की आवश्यकता अचानक इसलिए भी बढ़ गयी है कि अचानक अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को हटाने का निर्णय ले लिया है.

वापसी की यह प्रक्रिया इस महीने ही पूरी हो जायेगी. ऐसी स्थिति में यह जरूरी है कि क्षेत्रीय देश भारत के अध्यक्ष रहते हुए किसी वैकल्पिक कार्ययोजना पर सहमति बनाएं, ताकि इस क्षेत्र के भविष्य के लिए प्रभावी संरचना बन सके और अफगानिस्तान में अस्थिरता न बढ़े तथा जो भी व्यवस्था हो, वह शांतिपूर्ण संवाद एवं समझौते पर आधारित हो. वहां की स्थिति पड़ोसी देशों के लिए खतरा नहीं बननी चाहिए. ऐसे में यह बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि हमारे प्रधानमंत्री सुरक्षा परिषद में शिखर बैठक या उच्चस्तरीय वार्ता की अध्यक्षता करेंगे.

इस महीने सुरक्षा परिषद के एजेंडे में संयुक्त राष्ट्र शांति सेना से संबंधित मामले भी हैं. अमेरिका और अन्य नाटो देश अपने स्तर पर समय-समय पर बहुराष्ट्रीय सेना का गठन करते रहे हैं. इस अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा बल ने अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, सीरिया आदि देशों में काम किया है. यह प्रश्न उठता रहा है कि ऐसी सेना में भारत को शामिल होना चाहिए या नहीं होना चाहिए, क्योंकि कई मसलों पर भारत और नाटो देशों के विचार मिलते रहे हैं.

इसके अलावा एशिया में चीन की आक्रामकता भी बढ़ती जा रही है, लेकिन भारत ने हमेशा से शांति बनाये रखने के अभियानों में हिस्सा लिया है और वह भी संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में. भारत ऐतिहासिक रूप से संयुक्त राष्ट्र शांति सेना में बड़ा योगदान करनेवाले देशों में शामिल है. अभी चीन और बांग्लादेश जैसे देश भी बड़े पैमाने पर भागीदारी कर रहे हैं. जब बुतरस घाली संयुक्त राष्ट्र के महासचिव थे, तब यह बात शुरू हुई थी कि शांति सेना को शांति बहाली के अभियान में भी लगाना चाहिए, क्योंकि अक्सर शांति बनाये रखने और शांति बहाल करने में बहुत अंतर नहीं रहता है. वैसे भी दोनों ही स्थितियां परस्पर संबंधित हैं. अफगानिस्तान में शांति बहाल करने के संबंध में यह प्रश्न फिर उठ सकता है.

इस संबंध में एक अहम बिंदु यह है कि भारत ने अभी तक अफगानिस्तान और ईरान के साथ एक रणनीतिक संबंध स्थापित कर रखा है. अमेरिका ने भी यह माना था कि भारत ईरान के चाबहार बंदरगाह से सड़क मार्ग के जरिये अफगानिस्तान से संपर्क रख सकता है और इसके लिए अमेरिका ने ईरान पर लगीं पाबंदियों से भी भारत को छूट दी थी. सुरक्षा परिषद में जो अन्य सदस्य हैं, विशेषकर यूरोपीय संघ के देश और उनमें भी जर्मनी ने ईरान के साथ परमाणु समझौता किया था.

इसके तहत ईरान को परमाणु हथियार बनाने से रोकने की कोशिश की गयी थी तथा इसके बदले में ईरान से पाबंदियों में ढील देने का प्रावधान किया गया था. बाद में अमेरिका इस समझौते से अलग हो गया था. यह मुद्दा भी आगामी दिनों में सुरक्षा परिषद के सामने आयेगा, क्योंकि ईरान का भू-राजनीतिक महत्व बढ़ रहा है और वहां नये राष्ट्रपति पदभार संभालनेवाले हैं.

अमेरिका समेत पश्चिमी देशों और इस्राइल को ईरान से आपत्तियां हैं, लेकिन अफगानिस्तान मसले को देखते हुए और भारत की अपनी सुरक्षा के लिहाज से ईरान एक महत्वपूर्ण सहयोगी है. मध्य एशियाई देशों से जुड़ने की दृष्टि से भी ईरान की बड़ी अहमियत है. यह मसला अफगानिस्तान, क्षेत्रीय सुरक्षा और आतंक रोकने के विषय से काफी मायने रखता है.

अगर प्रधानमंत्री सुरक्षा परिषद की बैठक में भागीदारी करते हैं, तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा का मसला भी उठाया जायेगा. इस संबंध में क्वाड देशों- अमेरिका, भारत, जापान व ऑस्ट्रेलिया- की उच्चस्तरीय बैठक भी संभावित हो सकती है. इस समूह के तहत भारत की सुरक्षा व उसके हितों का कैसे ध्यान रखा जा सकता है, यह भी एक बिंदु है. क्वाड के एजेंडे में स्वास्थ्य, जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे भी महत्वपूर्ण हैं.

कोरोना महामारी की रोकथाम के लिए हिंद-प्रशांत के देशों को टीके की बड़ी खेप मुहैया कराने की योजना है, जिसमें विभिन्न कारणों से संतोषजनक प्रगति नहीं हो सकी है. भारत के लिए केवल ताइवान और साउथ चाइना सी के हवाले से क्वाड में भागीदारी अहम नहीं है, बल्कि हमारी चिंताओं में स्वास्थ्य, सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां प्राथमिक हैं. यह तो कोई फायदे की बात नहीं होगी कि हम हिंद-प्रशांत में जाकर बैठ जाएं और इधर हमारी सुरक्षा अफगानिस्तान व पाकिस्तान के आतंकियों या चीन की आक्रामकता की वजह से खतरे में पड़ जाए.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सुरक्षा परिषद की बैठक की अध्यक्षता करना बहुत महत्वपूर्ण है. भारत लंबे अरसे से कहता रहा है कि सुरक्षा परिषद की संरचना द्वितीय विश्व युद्ध की परिस्थितियों का परिणाम थी और समय के साथ उसमें व्यापक सुधारों की आवश्यकता है. सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का दावा भी भारत का रहा है. आज जब एक बार फिर भारत इस संस्था की अध्यक्षता कर रहा है, तो वैश्विक परिदृश्य में और संयुक्त राष्ट्र में भारत की भूमिका का संज्ञान लिया जाना चाहिए.

भारत संयुक्त राष्ट्र के सुधार में आज की चुनौतियों को देखते हुए उल्लेखनीय योगदान दे सकता है. आज आवश्यकता है कि इन मुद्दों को, विशेष रूप से स्थायी सदस्यता की मांग को, उच्च स्तर पर फिर से उठाया जाए. एक विकल्प यह भी है कि शेष सुधार समय के साथ होते रहें, पर कुछ तात्कालिक पहल अभी हों. भारत एक ऐसा देश है, जिसे तुरंत स्थायी सदस्यता दी जानी चाहिए.

एक बार पहले यह बात आयी थी कि जापान और जर्मनी जैसे संयुक्त राष्ट्र के बड़े दाताओं को स्थायी सदस्यता दे दी जाए, लेकिन जापान के नाम पर चीन और अन्य कुछ पड़ोसी देशों को आपत्ति रहती है, तो जर्मनी के बरक्स इटली जैसे देश आ खड़े होते हैं. यूरोपीय संघ के भीतर भी खींचतान है, जो ब्रिटेन के बाहर आने से और जटिल हुई है. ऐसे विवादों का हल आसान नहीं है.

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