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घाटी में निशाने पर आम आदमी

लंबी अवधि के ट्रेंड देखें, तो हाल के वर्षों में इन हादसों में नागरिक मौतें कम हुई हैं. इस साल कश्मीर में हुई हिंसक घटनाओं में मरनेवालों की संख्या अभी तक 200 से नीचे ही है, जबकि पिछले साल यह आंकड़ा तीन सौ से थोड़ा अधिक था.

कश्मीर में हर दूसरे-तीसरे महीने हिंसा की घटनाएं होती रहती हैं. हर एक घटना के बाद कुछ लोगों की बातों से लगता है कि जैसे पहले कभी ऐसी घटना हुई ही नहीं. कश्मीर में जिस तरह के हालात हैं, वहां हादसा होना नयी बात नहीं है. लंबी अवधि के ट्रेंड देखें, तो हाल के वर्षों में इन हादसों में नागरिक मौतें कम हुई हैं. इस साल कश्मीर में हुई हिंसक घटनाओं में मरनेवालों की संख्या अभी तक 200 से नीचे ही है.

जबकि, पिछले साल यह आंकड़ा तीन सौ से थोड़ा अधिक था. पहले के कश्मीर में एक साल में तीन से चार हजार तक मौतें हुई हैं. अभी एक तरह का जो ढिंढोरा पीटा जा रहा है, उससे अफरातफरी का माहौल पैदा हो रहा है. जबकि, जमीनी हालात से उसका कोई ताल्लुक नहीं है. इसमें सिर्फ दो गुटों का फायदा है, वे चाहे मुस्लिम चरमपंथी हों या फिर हिंदुत्ववादी चरमपंथी संगठन. बाकी किसी का कोई फायदा नहीं है.

घटनाओं की पृष्ठभूमि देखना जरूरी है. इस वक्त कश्मीरी पंडितों की संपत्ति के अधिकार की बात हो रही है. अगर उनकी संपत्ति पर किसी ने कब्जा कर लिया है, तो सरकार उस पर कार्रवाई की बात कह रही है. कश्मीर में इस वक्त जो हालात हैं, उसमें ऐसा कुछ कर पाना कठिन है. अभी के हालात में घाटी में वापस जाने में पंडितों में डर होना स्वाभाविक है.

घाटी में जो भी बचे-खुचे पंडित हैं, उनकी सुरक्षा भी जरूरी है. ऐसे में हर कदम सोच कर उठाना होगा. हिंदू-मुसलमान मुद्दा अलग है, इससे ज्यादा अहम है हालात को सामान्य बनाना. हालात अगर सामान्य न हुए, तो जाहिर है कि इस्लामिक चरमपंथियों को इससे फायदा होगा. इससे वे दिखा पायेंगे कि वे मुसलमानों के रक्षक बने हुए हैं. बीच में आम आदमी पिसता है, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान.

घाटी के कट्टरपंथ में कुछ नया नहीं है. आइएसआइ भी नया नहीं बना है. हाल-फिलहाल में घाटी में कोई बड़ी हिंसक घटना नहीं हुई है. हालांकि, हर हादसे के बाद कहा जाता है कि चरमपंथी गतिविधियां बढ़ रही हैं. आंकड़े इसके ठीक विपरीत हैं. ऐसा नहीं है कि अचानक हिंसक घटनाओं में तेजी आ गयी है. घाटी में ज्यादा अल्पसंख्यक बचे नहीं हैं. अगर दो-तीन परिवार उठ कर चले आये, तो लोग कहने लगते हैं कि नब्बे का दशक फिर से आ गया.

ऐसा कहने वालों को नब्बे के दशक की जानकारी नहीं है. उस दौर की हिंसा में लाखों लोगों ने पलायन किया था. हर साल हजारों मारे जा रहे थे. किसी तथ्य या आंकड़े की वैध तुलना होनी चाहिए. किसी के कथन पर जाने की बजाय जमीनी हालात को जानना जरूरी है. हर हादसे के बाद हालात बिगड़ रहे हैं, बार-बार ऐसा बोलना सही नहीं है.

हर मुठभेड़ में आतंकवादी मारे जा रहे हैं. भिड़ंत में कभी-कभार सुरक्षाबल भी निशाना बनते हैं. पिछले साल अलग-अलग घटनाओं में 321 मौतें हुई थीं, इस बार अभी तक 193 मौतें हुई हैं. इस समय बिखराव और ध्रुवीकरण की राजनीति हर तरफ फैली हुई है. हिंदुत्ववादी पार्टियों के लिए हिंदू खतरे में हैं, दूसरी तरफ वे चीख रहे हैं कि मुसलमान खतरे में हैं.

हमारी जमीनें ले ली जायेंगी, हमें कश्मीर में बेघर कर दिया जायेगा. ध्रुवीकरण से आम आदमी पिस रहा है. जितने लोग भी वक्तव्य दे रहे हैं उनके पास आंकड़ों की जानकारी नहीं है. अगर किसी हादसे में 25 लोग मारे जाते हैं, तो वह बहुत बड़ा हादसा है, वह दुखद है, लेकिन उसके आगे-पीछे महीनों तक कुछ नहीं होता, तो हम ऐसा नहीं कह सकते कि हालात बिल्कुल हाथ से बाहर निकल गये हैं.

हर चीज के दो पहलू होते हैं. हमारे सुरक्षाबल के जवानों की मौत हुई, यह दुखद है, लेकिन वह किस हालात में हुई, कार्रवाई की शुरुआत किसने की, वह अधिक महत्वपूर्ण है. सुरक्षाबल के जवान अभियान पर निकले थे, उसमें कहीं चूक हुई, वे घिर गये और पांच जवान मारे गये. हादसे के कारणों की पड़ताल की जानी चाहिए. लेकिन, ऐसा नहीं है कि रोजाना फौज के लोग मारे जा रहे हैं. पूरे साल में जवानों की केवल 26 मौतें हुई हैं, जबकि 137 आतंकी मारे गये हैं.

आतंक-रोधी कार्रवाई के लिहाज से यह अनुपात अच्छा कहा जायेगा. अफगानिस्तान में तालिबान काबिज हो गया है, इससे मुसलमानों को बढ़ावा मिलेगा, यह कहना गलत है. हमारे आसपास उससे कोई बदलाव नहीं हुआ है. ऐसा नहीं है कि इससे देश भर के अलग-अलग शहरों में विस्फोट होने लगे हैं. लोग कहते हैं कि खतरा बढ़ सकता है, होने को तो कुछ भी हो सकता है.

अन्य कट्टरपंथी भी देश में आग लगा सकते हैं. अगर दो-तीन हादसे होते हैं, जो उसका मतलब यह नहीं है कि पूरे देश में अराजकता बढ़ गयी है. हमारे विश्लेषण का आधार एक जैसा ही होता है, चाहे हिंदुस्तान हो या पाकिस्तान. अगर निहत्थों को मारना पाकिस्तान में खराब काम है, तो भारत में भी निहत्थों को मारना गलत है. घटना का विश्लेषण अलग होता है और ट्रेंड का विश्लेषण करना दूसरी बात है.

सुरक्षा विश्लेषण ट्रेंड के विश्लेषण पर आधारित होता है. किसी एक घटना के आधार पर निष्कर्ष नहीं निकाला जाता है. उसमें यह देखा जाता है कि कहां चूक हुई, किस तरह से घटना हुई, हमारी कहां कमी रह गयी या उनकी क्षमता बढ़ गयी है. दीर्घकालिक विश्लेषण में हमेशा घटनाओं की प्रवृत्ति को देखा जाता है.

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