साधन-संपन्न तबके से यह अपेक्षा जायज है कि सरकार किन्हीं सेवाओं या सामानों को अगर रियायती या अनुदानित मूल्य पर उपलब्ध करा रही है, तो वे इनके लाभार्थियों में अपने को शामिल न करें. आखिर राजकोष असीमित नहीं होता, साधन-संपन्न अगर सेवाओं और सामानों पर मिलनेवाली सब्सिडी की राशि छोड़ेंगे, तो उस राशि को राष्ट्रीय विकास के अन्य कार्यों में लगाया जा सकता है.
साधन-संपन्नता अपने साथ एक खास किस्म की मानसिकता भी लेकर आती है. भारत में शायद ही कोई सार्वजनिक तौर पर अपने को साधन-संपन्न स्वीकार करता है.
इसी की एक मिसाल है कि प्रधानमंत्री ने जब गहरी जेब वाले लोगों से अपील की कि रसोई गैस पर मिलनेवाली सब्सिडी की राशि छोड़िए, ताकि गरीबों की रसोई तक ‘स्वच्छ ईंधन’ पहुंचाया जा सके, तो केवल 57.5 लाख लोग इस नैतिक अपील पर अमल करने के लिए आगे आये. ऐसे में सरकार का यह फैसला कि जिन लोगों की करयोग्य सालाना आमदनी 10 लाख से ज्यादा है, उन्हें रियायती दर पर सब्सिडी नहीं दी जायेगी, एक सराहनीय पहल है.
पिछली सरकार के दौरान इस संबंध में कुछ कदम उठाने की योजना बनी थी, पर वह फलीभूत न हो सकी थी. फिलहाल लगभग 16.25 करोड़ गैस कनेक्शन देश में हैं, यानी प्रति 1,000 घर पर 715 से भी कम कनेक्शन. सब्सिडी न लेने की घोषणा करनेवाले लोगों की संख्या घटा दें, तो करीब 14.75 करोड़ लोगों को रसोई गैस की सब्सिडी दी जा रही है. देश में फिलहाल करयोग्य 10 लाख सालाना आमदनी वाले लोगों की संख्या घोषित तौर पर केवल 21 लाख है.
कहना मुश्किल है कि इनमें से कितने लोगों ने सब्सिडी पहले ही छोड़ दी है, तब भी जन-जागृति के लिहाज से सरकार का फैसला उत्साहवर्धक कहा जायेगा. साल 2014-15 में गैस सब्सिडी 40,555 करोड़ रुपये थी, जो ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के सालाना बजट के बराबर है, जो देश के सबसे कमजोर नागरिक को साल में सौ दिन का गारंटीशुदा रोजगार देने का कार्यक्रम है.
जाहिर है, रसोई गैस की सब्सिडी की राशि में अगर कोई बचत होती है, तो उस राशि का इस्तेमाल देश के सबसे कमजोर नागरिक के हित को बढ़ावा देनेवाले किसी अन्य कार्यक्रम में किया जा सकता है. सरकार द्वारा ऐसे ही अन्य अनुदानों को भी चिह्नित करना चाहिए, जिनके दायरे से समृद्ध लोगों को निकाला जा सके और बचत किये गये धन को गरीबों की बेहतरी के लिए चलाये जानेवाले कार्यक्रमों पर खर्च किया जा सके.