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वादे करना तो कोई उनसे सीखे!

पवन के वर्मा सांसद एवं पूर्व प्रशासक लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण में हमेशा की तरह वाक्पटुता की कोई कमी नहीं थी. लेकिन उन्हें यह जानना चाहिए था कि इस समय वह ज्यादा छिद्रान्वेषी श्रोताओं का सामना कर रहे हैं. ऐसा क्यों है, इसके कारण जाने-पहचाने हैं. पिछले साल लाल […]

पवन के वर्मा
सांसद एवं पूर्व प्रशासक
लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण में हमेशा की तरह वाक्पटुता की कोई कमी नहीं थी. लेकिन उन्हें यह जानना चाहिए था कि इस समय वह ज्यादा छिद्रान्वेषी श्रोताओं का सामना कर रहे हैं.
ऐसा क्यों है, इसके कारण जाने-पहचाने हैं. पिछले साल लाल किले से प्रधानमंत्री के रूप में जब उन्होंने पहला भाषण दिया था, तब वह एक ऐसे व्यक्ति के रूप में राष्ट्र को संबोधित कर रहे थे, जो कुछ ही समय पहले लोकसभा चुनाव जीत कर आया था और जिसने संसद में भाजपा को पूर्ण बहुमत दिलाया था. वह सरकारी फैसले को लटकाने, सवाल करने के बजाय भरोसा करने और आलोचना की बजाय चापलूसी के इच्छुक थे.
लेकिन जो एक साल बीता है, उसमें यह एहसास बढ़ता गया है कि मोदी के भाषणों में वादों और उसे पूरा करने के बीच बड़ा फासला दिखता है. खूब वादे करने और नारे गढ़ने में वह कभी पीछे नहीं रहते हैं, लेकिन जब वादों को पूरा करने की बात आती है तब वह सच का सामना करने से कतराते हैं.
इस आलोचना को चंद उदाहरणों के साथ आसानी से समझा जा सकता है. पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी प्रधानमंत्री वित्तीय समावेशन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर खूब बोले. इस क्षेत्र में जन-धन योजना उनकी महत्वाकांक्षी योजना है. संभवत: यह सच है कि अब तक इस योजना के अंतर्गत 16 करोड़ खाते खोले गये हैं. इस महान सफलता के पीछे जनता का करोड़ों रुपया खर्च किया गया है.
विज्ञापन पर एक भी रुपया नहीं खर्च करने से यह बात नहीं छुप सकती है कि दरअसल क्या हासिल किया गया है. राज्यसभा में मेरे द्वारा उठाये गये एक सवाल के लिखित जवाब में 28 अप्रैल, 2015 को केंद्र सरकार की ओर से बताया गया कि जन-धन योजना के तहत 14.9 करोड़ नये खाते खोले गये हैं. इनमें से 8.47 करोड़ खाते जीरो बैलेंस और जीरो ट्रांजेक्शन वाले हैं. मुङो संदेह है कि बीते तीन महीने में इस तरह के आंकड़े में कोई बहुत बड़ा बदलाव हुआ है.
असली समस्या यह है कि प्रधानमंत्री में बड़ी-बड़ी योजनाओं की घोषणा करने की ठसकदार प्रवृत्ति है, मगर ऐसी घोषणाओं के साथ उनके कार्यान्वयन की जो सुनियोजित रणनीति होनी चाहिए, उसका अभाव हमेशा दिखता है. ‘स्वच्छ भारत’ का नारा एक सकारात्मक कदम है.
प्रधानमंत्री ने अब तक बने शौचालयों की संख्या पर शाबासी दी, मगर उन्हें यह नहीं मालूम है कि ज्यादातर शौचालय इस्तेमाल के लायक नहीं हैं.
उनका उपयोग इसलिए नहीं होता है क्योंकि वे ठीक ढंग से नहीं बने हैं, उनमें पानी की उपलब्धता नहीं है और न ही मल-प्रबंधन की कोई योजना है. यही हाल आदर्श ग्राम योजना का है. अंतत: कई सांसदों ने गांव गोद तो ले लिये, मगर उनमें से अधिकतर आपको बतायेंगे कि इस उद्देश्य के लिए धनराशि के विशेष आवंटन का अभाव है, इसलिए योजना बुरी हालत में है.
पिछले साल प्रधानमंत्री ने ‘मेक इन इंडिया’ का नारा दिया था. इस वर्ष फिर यह नारा लगाया गया. मगर कोई भी उद्यमी आपको बतायेगा कि ‘मेक इन इंडिया’ का नारा तभी साकार होगा जब इसके साथ जमीन पर भी कुछ ठोस काम किये जाएं, खास तौर पर जरूरी सेक्टरों में बिजनेस को आसान बनाने काम. अधिकतर ऐसे जरूरी काम हुए ही नहीं हैं.
‘डिजिटल इंडिया’ का नारा भी इतना ही बढ़िया है. अच्छी कल्पना है, मगर अब तक कॉल ड्रॉप से सर्वाधिक परेशान आम जनता को यह नहीं बताया गया कि इस प्रोजेक्ट के लिए 70,000 करोड़ रुपये कहां से आयेंगे? बुलेट ट्रेन जैसे वादे आम जनता का मजाक उड़ाते हैं.
इस वर्ष प्रधानमंत्री ने एक नया नारा ‘स्टार्ट-अप इंडिया, स्टैंड-अप इंडिया’ गढ़ा है. लोग यह सवाल करने लगे हैं कि अगर इस पर भी ठीक से काम नहीं किया गया तो यह भी महज एक और नारा बन कर रह जायेगा. निश्चय ही अब तक ‘मेक इन इंडिया’ ने उड़ान नहीं भरी है और न ही हमारे नौजवानों को रोजगार मिल सका है, जिसका उन्होंने जोर-शोर से वादा किया था.
वादे और हकीकत के बीच फासले का सबसे सटीक उदाहरण कृषि क्षेत्र है. प्रधानमंत्री ने ‘कृषि मंत्रलय’ का नाम बदल कर ‘कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रलय’ करने की घोषणा की है. मगर, लोग यह पूछने के हकदार हैं कि आखिर इस नये मंत्रलय का उपयोग क्या होगा? जबसे यह सरकार बनी है, तबसे कृषि उत्पादन में एक फीसदी की कमी आयी है.
यूरिया आयात में कटौती क्यों की गयी? यूरिया सब्सिडी में भी जबरदस्त कटौती की गयी, वह भी तब, जब किसान ज्यादा संकट में हैं. न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागत से 50 फीसदी ज्यादा करने का वादा क्यों नहीं पूरा किया गया? पिछले वर्ष कृषि-उत्पादों के निर्यात में 29 फीसदी की गिरावट क्यों आयी? और आखिरी बात. किसानों के हितों के विरुद्ध भूमि अधिग्रहण विधेयक को मनमाने ढंग से क्यों संशोधित किया गया?
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर प्रधानमंत्री का स्वतंत्रता दिवस का भाषण बिल्कुल निराश करनेवाला रहा. बहुचर्चित व्यापमं घोटाले और ललित गेट प्रकरण में पर्याप्त साक्ष्य की अनदेखी करते हुए उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि उनकी सरकार ने कुछ भी गलत नहीं किया है. उन्होंने अपने चुनावी वादे में कहा था कि चाहे उनकी पार्टी हो या कोई अन्य, वह भ्रष्टाचार की अनुमति नहीं देंगे.
पिछले साल उन्होंने कहा था कि राष्ट्र को सांप्रदायिकता पर 10 साल की पाबंदी लगा देनी चाहिए. तो फिर भाजपा, उनके मंत्रियों, सांसदों और उनके अनुषंगी संगठन बारंबार खुलेआम सांप्रदायिक नारे क्यों लगा रहे हैं. ‘घर-वापसी’ और ‘लव-जिहाद’ जैसे अभियान क्यों चला रहे हैं. इन सब पर प्रधानमंत्री ने चुप्पी क्यों ओढ़ रखी है?
यह सच है कि प्रधानमंत्री ने कहा था कि ‘वन रैंक वन पेंशन’ की मांग एक दिन जरूर पूरी होगी. मगर सवाल यह है कि आखिर कब? अगर इसके कार्यान्वयन में बहुत-सारी समस्याएं हैं, तो जब वह रेवाड़ी की चुनावी रैली में पक्का वादा कर रहे थे, तब उन्हें आश्वासन देते समय थोड़ा ध्यान रखना चाहिए था.
बहुत ही आश्चर्यजनक है कि उन्होंने अपने भाषण में विदेश नीति पर एक शब्द भी नहीं बोला, खास तौर पर जब पाक की ओर से फायरिंग की वजह से सीमा पर हमारी सेना के अफसर और जवान लगातार अपनी जान गंवा रहे हैं.
‘टीम इंडिया’ का उद्धरण भी प्रधानमंत्री खूब देते हैं, लेकिन उसकी भी हवा निकल गयी. प्रधानमंत्री ने अपनी कैबिनेट चलाने में टीम स्पिरिट का ध्यान कम रखा है. संसद में विपक्ष के साथ भी कोई तालमेल नहीं है. सरकार ने अपने नजदीकी चंद व्यापारियों के प्रति सुदृढ़ सहानुभूति जरूर दिखायी है. पूरब के अल्प विकसित राज्यों के प्रति उनकी राष्ट्रीय दृष्टि शायद ही दिखी है. यह एक विडंबना है.

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