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1975 : आतंक का एक दौर
एमजे अकबर प्रवक्ता, भाजपा क्या भारत फासीवाद को थोपे जाने को बरदाश्त करता? हम सभी यह भरोसा करना चाहते हैं कि इसका उत्तर ‘नहीं’ था, पर ईमानदारी से देखें, तो हम यकीन से ऐसा नहीं कह सकते थे. आज एक स्पष्टता है. ऐसी मूर्खता का कोई उल्लेख भी हंसी में उड़ा दिया जायेगा. वर्ष 1975 […]
एमजे अकबर
प्रवक्ता, भाजपा
क्या भारत फासीवाद को थोपे जाने को बरदाश्त करता? हम सभी यह भरोसा करना चाहते हैं कि इसका उत्तर ‘नहीं’ था, पर ईमानदारी से देखें, तो हम यकीन से ऐसा नहीं कह सकते थे. आज एक स्पष्टता है. ऐसी मूर्खता का कोई उल्लेख भी हंसी में उड़ा दिया जायेगा.
वर्ष 1975 में भारत यह विश्वास नहीं कर सका कि एक झटके में आजादी छीनी जा सकती है. विडंबना यह है कि 2015 में उस पीढ़ी, जो तब पैदा नहीं हुई थी, को यह भरोसा नहीं हो पा रहा है कि स्वतंत्रता के विरु द्ध ऐसा भी तख्तापलट कभी हुआ था. सच का रंग गुलाबी कम और धूसर अधिक होता है, शायद इसीलिए विस्मृति और पुनर्निर्माण आत्मसम्मान के लिए आवश्यक होते हैं. जब वीरता और समर्पण में समर्पण का आंकड़ा बड़ा हो, तो स्मृति-दोष संभवत: देश के स्वास्थ्य के लिए अच्छा है.
जून, 1975 में आपातकाल के लागू होने और मार्च, 1977 में उत्तर भारत और मध्य भारत में लोकतंत्र को बहाल करने तथा भविष्य में खतरों से इसे बचाने के लिए पड़े स्वतंत्र मतों के बीच के उन असाधारण 20 महीनों के बारे में कुछ हालिया टिप्पणियों ने साधारण तथ्यों को किंवदंतियों में बदलने की कोशिश की है.
सरकार की करीबी, परंतु तकनीकी रूप से इसके नियंत्रण से बाहर रहनेवाली दो महान संस्थाओं-न्यायपालिका और मीडिया- की भूमिका उतनी अनुकरणीय नहीं थी, जितना उनके समर्थक जताने की कोशिश करते हैं. अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से सर्वोच्च न्यायालय कायरता का पर्याय बन गया था जब उसने चार-एक के बहुमत से पूरी तरह से अनैतिक इस आधिकारिक निर्देश का समर्थन किया और अपने फैसले में यहां तक कह दिया कि राज्य को बिना किसी जवाबदेही के हत्या का अधिकार है. बहुत थोड़े पत्रकारों और उनसे भी कम पत्रिकाओं ने दमनकारी राज्य की बुनियादी भावना, सेंसरशिप, को चुनौती दी, हालांकि सेंसरशिप ने पत्रकारिता को अर्थहीन बना दिया था.
इंडियन एक्सप्रेस के संपादक कुलदीप नैयर जेल जानेवालों में सबसे प्रसिद्ध थे, लेकिन अन्य लोगों ने उनसे अधिक अत्याचार सहा क्योंकि उनका नाम कम था. ऐसे लोगों में वीरेंद्र कपूर थे, जिनकी पत्नी कूमी उस समय रिपोर्टर हुआ करती थीं और अब एक्सप्रेस की एक सितारा हैं. कूमी कपूर ने उस दौर का एक इतिहास हाल में प्रकाशित किया है जिसमें व्यक्तिगत अनुभव भरे पड़े हैं.
कूमी की किताब के हमारे इतिहास के पाठ्यक्रम में होने का एक अच्छा कारण है. पिछले 40 सालों में से 30 सालों में कांग्रेस ने सीधे या गंठबंधनों के जरिये देश पर शासन किया है, और उसने सार्वजनिक स्मृति से इस अध्याय को मिटाने के लिए सत्ता का उपयोग किया है. इस उद्देश्य में वह कुछ हद तक स्फल भी हुई है. यह इतिहास को सेंसर करना है.
अचानक आये उस दमनकारी भय का वर्णन मुश्किल है, जो जल्दी ही व्यापक अवसाद के रूप में पसर गया था. कुछ ही महीनों के भीतर हमें लगने लगा था, खास कर जब इंदिरा गांधी के दरबार में संजय गांधी निरंकुशता के केंद्र के रूप में स्थापित हो गये, कि अब भविष्य खत्म हो चुका है, कि अनेक उत्तर-औपनिवेशिक देशों की तरह भारत हमेशा के लिए घटिया तानाशाही के चंगुल में फंस गया है. आपातकाल के पक्ष में दिये जा रहे सार्वजनिक बयान बनावटी और स्वार्थपूर्ण थे, लेकिन इससे उनकी ताकत पर कोई असर नहीं पड़ा.
लोकतंत्र को विकास की राह में बाधक मानते हुए खारिज कर दिया गया. विडंबनात्मक रूप से लोकतंत्र को गरीबों का दुश्मन बताया गया कि यह उनकी आर्थिक प्रगति में अवरोध है. जैसा कि उस दरबार के कुछ लोग अब बताते हैं, संजय गांधी कम-से-कम 20 सालों तक आपातकाल जारी रखना चाहते थे.
क्या भारत फासीवाद को थोपे जाने को बरदाश्त करता? हम सभी यह भरोसा करना चाहते हैं कि इसका उत्तर ‘नहीं’ था, पर ईमानदारी से देखें, तो हम यकीन से ऐसा नहीं कह सकते थे. आज राजनेताओं और लोगों में एक स्पष्टता है. ऐसी मूर्खता का कोई उल्लेख भी हंसी में उड़ा दिया जायेगा, पेट्रोल बम फेंकने की कोई जरूरत ही नहीं पड़ेगी. हमारी आजादी अब एक मजबूत भावना और तकनीक के द्वारा संरक्षित है.
1975 के दौर में, कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरूआ, जिन्होंने यह घोषणा तक कर दी थी कि इंदिरा ही इंडिया हैं, और भारत के राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद, जिन्होंने तनिक भी विचार किये बिना और बगैर किसी कानूनी राय के आपातकाल के आदेश पर हस्ताक्षर कर दिया था, जैसे चाटुकार भी थे.
प्रतिभाशाली कार्टूनिस्ट और लेखक अबु अब्राहम ने अहमद की संक्षिप्त राजनीतिक मृत्युलेख का रेखांकन किया था जिसमें उन्होंने अहमद को नहानेवाले टब में बैठ कर आपातकाल की घोषणा करते हुए दिखाया था. भारत के राष्ट्रपति नैतिक रूप से नंगे थे.
मैं चाटुकारों के लिए जोरदार प्रशंसा के साथ यह लेख समाप्त करना चाहूंगा. अगर वैसे लोग नहीं होते तो हम कभी आजाद नहीं हो सकते थे. 1977 का सबसे बड़ा रहस्य यह है : आखिर इंदिरा गांधी ने आम चुनाव की घोषणा क्यों की, जबकि उन्हें ऐसा करने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं थी? क्योंकि उन्हें यह भरोसा था कि वे चुनाव जीत जायेंगी. यह भरोसा उन्हें दिलाया था इंटेलिजेंस ब्यूरो के चापलूस पुलिस अधिकारियों ने.
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