इस दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं जिसका सकारात्मक पहलु हो और नकारात्मक नहीं. बहरहाल, मिड-डे-मील योजना की शुरुआत से लेकर अब तक लोगों के बीच इसके गुण-दोष पर चर्चाएं आम हैं. सरकारी विद्यालयों में योजना के क्रियान्वयन से शैक्षणिक गुणवत्ता पर उठते सवाल और पाठशाला के पाकशाला में रूपांतरण से पूरा समाज मर्माहत है. सरकारी विद्यालयों के पाठ्यक्रमों एवं तमाम गतिविधियों में लोकतांत्रिक मूल्य एवं राष्ट्रीय बोध का अक्स निहित हो, राष्ट्रीय शिक्षा नीति का लक्ष्य है.
यह भी सच है कि विश्व में सर्वाधिक कुपोषित बच्चे भारत में ही हैं. बाल श्रम का एकमात्र कारण भोजन का अभाव है. और कहा भी गया है कि भूखे भजन होत न गोपाला. ऐसे हालात में पेट और मन की क्षुधा यदि विद्यालय में ही मिटायी जा सके तो क्या हर्ज है? पाकशाला और पाठशाला अखिर क्षुधा को ही तो शांत करते हैं. जाति, धर्म और वर्ग से इतर, सारे बच्चे जहां एक तरह का खाना, एक साथ बैठ कर विद्यालय में खाते हैं.
इससे सामूहिकता, समानता और एकता के बीज क्या बच्चों के मन में नहीं बोये जाते हैं, जो भारतीय लोकतंत्र के आत्मतत्व हैं? लोकोन्मुख सर्व शिक्षा अभियान के शत-प्रतिशत नामांकन, बच्चों के विद्यालय में ठहराव से लक्ष्यों की प्राप्ति में पोषाहार कार्यक्रम, खास कर भारत के विस्तृत ग्रामीण क्षेत्रों में मील का पत्थर हैं. शिक्षा अधिकार 2009 में इसकी महत्ता को देखते हुए मिड-डे-मील को भी समाहित किया गया है. हाल ही में बिहार मिड-डे-मील दुर्घटना और तमाम तरह की अफवाहें बस विकृत सोच के षड्यंत्र का नतीजा जान पड़ती हैं. अत: बच्चों के संवैधानिक हक के निवाले और पोषाहार की अपिहार्यता पर सवाल नहीं उठाया जाये.प्रदीप कुमार सिंह, बड़कीपोना, रामगढ़