।।लुइस मिरांडा।।
(भारत में विदेशी निवेशक)
रुपये की गिरती कीमत को कैसे थामा जाये, रिजर्व बैंक को क्या कदम उठाना चाहिए आदि जैसे सवालों पर आर्थिक विशेषज्ञों के बीच बहस छिड़ी हुई है. इस बहस में मैं भी शामिल होना चाहूंगा, इस तथ्य के साथ कि मेरी पुत्री अध्ययन के लिए अगले साल अमेरिका जानेवाली है, पर रुपये में आयी गिरावट के साथ वहां पढ़ाई का खर्च तेजी से बढ़ता जा रहा है. मैंने जीवन के 11 साल सिटी बैंक, एचएसबीसी, एचडीएफसी जैसे बैंकों में बिताये हैं, जहां मैं ग्राहकों को रुपये की गिरावट से बचने की सलाह देता रहा हूं. कुछ मौकों पर मेरी सलाह गलत साबित हुई हो सकती है, लेकिन मुङो लगता है कि रुपये के बारे में मैं भी कुछ लिख सकता हूं.
पहली बात, मैं किसी ऐसे व्यक्ति से नहीं मिला हूं जो पक्के तौर पर यह जानता हो कि किसी मुद्रा के मुकाबले रुपये की गिरावट को कैसे थामा जा सकता है. यदि कोई ऐसा दावा करता है, तो वह ‘भगवान’ ही हो सकता है. मुङो भगवान में विश्वास है, लेकिन किसी कारोबारी फैसले के दौरान, या अर्थशास्त्रियों के किसी समूह में या फिर टीवी स्टूडियो में मैं कभी भगवान से नहीं मिला. इसलिए यदि कोई यह दावा करता है कि डॉलर की सही कीमत 70 रुपये है, तो वह बकबास ही करता है. फिर भी यदि सभी मिल कर कहें कि एक यह कीमत 70 रुपये होना चाहिए, तो कीमत 70 के करीब पहुंचने लगेगी. पर इसका यह अर्थ नहीं है कि डॉलर की सही कीमत यही है.
साधारण तथ्य यह है कि लोग डॉलर खरीदने और रुपया बेचने का काम तब करते हैं, जब उन्हें डॉलर में भुगतान करना होता है, या उम्मीद करते हैं कि रुपये की गिरावट और बढ़ेगी और अपनी पूंजी को इस गिरावट से बचाना चाहते हैं, या भविष्य के किसी भुगतान के लिए विनिमय मूल्य की अनिश्चितता से बचना चाहते हैं, या फिर ट्रेडिंग के जरिये इस गिरावट का लाभ उठाना चाहते हैं. सट्टेबाज रुपये की कीमत पर दावं लगाते हैं. हालांकि आम लोग सट्टेबाजी पसंद नहीं करते हैं. लोग सट्टेबाजों के साथ भी वैसा ही व्यवहार चाहते हैं, जैसा वे चूहों के साथ करते हैं. चूहे मुङो भी पसंद नहीं हैं, बल्कि वे मुङो डरावने लगते हैं. कई साल पहले मैं टैरेस से नीचे कूद गया था, जब वहां मुङो एक चूहा दिखा था. बहुत से लोग चूहों से छुटकारा पाना चाहते हैं.
लेकिन खाद्य श्रृंखला में चूहे भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. यदि हम सभी चूहों को खत्म कर दें, तो एक नयी समस्या का सामना करना पड़ सकता है. मसलन कुछ नये कीड़े-मकोड़े बढ़ जाएंगे, कचरे की समस्या और गंभीर होगी आदि. इसलिए हमें सभी चूहों को खत्म नहीं करते हुए उनकी बाढ़ रोकने के उपाय करने होते हैं. और यह उपाय करनेवाले जानते हैं कि चूहों की आबादी नियंत्रित करना कितना मुश्किल काम है. ठीक यही स्थिति सट्टेबाजों के साथ है. विदेशी मुद्रा बाजार में अनुमानों का शोर मचाने और सिस्टम को लचीला बनाने में वे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. यदि सट्टेबाजों को बीच से हटा दिया जाये तो रुपये की कीमत का रुख और तेज हो सकता है, क्योंकि कुछ बुद्धिमान ही तय करने लगेंगे कि इसकी सही कीमत क्या हो. और जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूं कि वह व्यक्ति भगवान नहीं हो सकता है.
अब मैं जरूरी सवाल पर आता हूं कि रुपये को कैसे बचाया जा सकता है? जब तक निवेशकों का हमारी अर्थव्यवस्था के स्थायित्व में थोड़ा भी भरोसा रहेगा, रुपये पर भी उनका भरोसा कुछ हद तक बना रहेगा. आरबीआइ निवेशकों के भरोसे को बहाल करने के लिए कुछेक कदम तो उठा सकता है, पर उससे किसी चमत्कार की उम्मीद करना गलत होगा. कुछ उपाय बहुत साधारण हैं- भरोसे को पुन: बहाल करने के लिए सुधारों की प्रक्रिया में बदलाव करना होगा (जैसा कि अर्थशास्त्री अजय शाह लिखते हैं), तिरुपति ट्रस्ट जैसे स्वर्ण भंडारों पर नयी नीति बनानी होगी (जैसा कि जमाल मेक्लाइ सुझाते हैं), अल्पज्ञानियों के नकारात्मक लेखों और टीवी शो में व्यक्त विचारों की बाढ़ पर रोक लगाना होगा (मेरे पिताजी की राय है), सकारात्मक चीजों पर फोकस करना होगा (जैसे ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास), ढांचागत विकास की ठप पड़ी परियोजनाओं को पूरा करना होगा ताकि लगे कि सरकार काम कर रही है, राजकोषीय घाटा कम करने के लिए लोक-लुभावन सामाजिक योजनाओं पर खर्च में कटौती करनी होगी आदि. हो सकता है कि ये सभी कदम एक साथ संभव न हों, पर सरकार को इच्छाशक्ति दिखानी होगी, ताकि लगे कि वह संकट से पार पाने के लिए संकल्पबद्ध है. मेरे जैसे बहुत से लोग अब भी मान रहे हैं कि भारत मजबूती के साथ आगे बढ़ सकता है और यहां निवेश का यह सही वक्त है.
(फोर्ब्स इंडिया डॉट कॉम के ब्लॉग से साभार)