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खाद्य या यूपीए-सुरक्षा बिल!

।।प्रमोद जोशी।।(वरिष्ठ पत्रकार)जिस विधेयक को लेकर राजनीति में ज्वालामुखी फूट रहे थे, वह खुशबू के झोंके सा निकल गया. पक्षियों-विपक्षियों में उसे गले लगाने की ऐसी होड़ लगी, जैसे अपना बच्चा हो. आलोचना भी की तो जुबान दबा कर. यों भी उसे पास होना था, पर जिस अंदाज में हुआ उससे कांग्रेस का दिल खुश […]

।।प्रमोद जोशी।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
जिस विधेयक को लेकर राजनीति में ज्वालामुखी फूट रहे थे, वह खुशबू के झोंके सा निकल गया. पक्षियों-विपक्षियों में उसे गले लगाने की ऐसी होड़ लगी, जैसे अपना बच्चा हो. आलोचना भी की तो जुबान दबा कर. यों भी उसे पास होना था, पर जिस अंदाज में हुआ उससे कांग्रेस का दिल खुश हुआ होगा. जब संसद के मॉनसून सत्र के पहले सरकार अध्यादेश लायी तो वृंदा करात ने कहा था, हम उसके समर्थक हैं, पर आपत्तियां भी हैं. हम चाहते हैं कि इस पर संसद में बहस हो. खाद्य सुरक्षा सबके लिए एक समान हो. मुलायम सिंह ने कहा था, यह किसान विरोधी है. नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी कि मुख्यमंत्रियों से बात कीजिए. पर लगता है उन्होंने अपनी ही पार्टी के नेताओं से बात नहीं की. भाजपा के नेता इन दिनों अलग-अलग सुर में हैं. बिल पर संसद में जो बहस हुई, उसमें ज्यादातर दलों ने इसे ‘चुनाव सुरक्षा विधेयक’ मान कर ही अपने विचार रखे. सोमवार रात विपक्ष के संशोधनों को धड़ाधड़ रद्द करने के चक्कर में कांग्रेसी सांसद एक सरकारी संशोधन को भी खारिज कर गये. इस ‘गेम चेंजर’ का खौफ विपक्ष पर इस कदर हावी था कि सुषमा को कहना पड़ा कि हम इस आधे-अधूरे और कमजोर बिल का भी समर्थन करते हैं. जब हम सत्ता में आयेंगे, तो इसे सुधार लेंगे.

बिल पास होने के अगले दिन रुपया डॉलर के मुकाबले 66 की सीमा पार कर गया. मंगलवार को राज्यसभा में वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि रुपये की कीमत केवल बाहरी कारणों से नहीं गिरी. अंदरूनी कारण भी हैं. 2008 की मंदी के वक्त हमने गलतियां कीं और राजस्व घाटे पर ध्यान नहीं दिया. चालू खाते के असंतुलन को नहीं रोका.

बहरहाल खाद्य सुरक्षा पर कोई भी पार्टी खुद को जन-विरोधी साबित नहीं करेगी. पर इसे लेकर अर्थशास्त्रीय दृष्टियां दो प्रकार की हैं. एक कहती है कि अंतत: इसकी कीमत गरीब जनता चुकायेगी. भ्रष्टाचार की एक और लहर का भी खतरा है. किसानों के समर्थन मूल्य में कटौती होगी. तंगहाल सरकार कम कीमत पर अनाज खरीदेगी. खुले बाजार में अनाज कम जायेगा, तो उसकी कीमत बढ़ेगी. किसान के इनपुट महंगे होंगे और आउटपुट सस्ता. पैसे की कमी से आर्थिक संवृद्धि के उपाय कम होंगे, आधारभूत ढांचे का विकास नहीं होगा. ग्रोथ रुकने से रोजगार घटेंगे. शहरी विकास प्रभावित होगा. यह नजरिया कहता है कि गरीबों को भोजन नहीं, पुष्टाहार की जरूरत है. उसके लिए अलग किस्म के हस्तक्षेप की जरूरत है. वे गरीबी के फंदे से बाहर निकलें, इसके लिए उनके बच्चों को स्वस्थ व शिक्षित बनाने की जरूरत है. उनके लिए रोजगारों की रचना होनी चाहिए. दुनिया में वृद्धिरुद्ध (स्टंटेड) बच्चों की सबसे बड़ी तादाद भारत में है. कमजोर बच्चे कमजोर नागरिक बने रहेंगे. मजबूत देश के लिए स्वस्थ नागरिक चाहिए. सस्ता अनाज देने भर से उनका कुपोषण दूर नहीं होगा.

बात में दम होने के बावजूद खाद्य सुरक्षा की परिकल्पना गलत नहीं है. हमारे देश में बड़ी आबादी की पहली प्राथमिकता रोटी है. यह सच है कि उन्हें केवल रोटी तक सीमित नहीं रखा जा सकता, पर रोटी उन्हें गुलाम बनाती है. उन्हें रोटी के दुष्चक्र से निकालने की जरूरत है. तकरीबन सवा लाख करोड़ के सालाना खर्च वाली यह स्कीम बेहद महंगी है, पर यह राशि पूरी योजना का खर्च है, जिसका काफी बड़ा हिस्सा आज भी खाद्य सब्सिडी के रूप में जा रहा है. फिलहाल 25,000 करोड़ का अतिरिक्त खर्च है. यह अतिरिक्त राशि हम बेहतर टैक्स वसूली से हासिल कर सकते हैं. भारत में जीडीपी के अनुपात में टैक्स से आय दूसरे देशों की तुलना में कम है. आज भी बड़ी आमदनीवाले टैक्स दायरे से बाहर हैं. सिर्फ वेतन-भोगियों से ही सरकार टैक्स वसूलने में कामयाब है. खाद्य सुरक्षा विधेयक को पास करने में राजनीतिक दल जिस कदर खुल कर सामने आते हैं, डायरेक्ट टैक्स कोड या दूसरे ऐसे कानूनों को पास करने में क्यों नहीं आते, जिनसे अर्थव्यवस्था पटरी पर आये?

इन दिनों अमर्त्य सेन और जगदीश भगवती के सहारे बहस चल रही है कि हमें आर्थिक संवृद्धि चाहिए या विकास? दोनों में टकराव कहां है? विकास में मानवीय विकास भी शामिल है. संवृद्धि और वितरण का बेहतर रिश्ता होना चाहिए. पर वह तभी होगा, जब हाशिये के लोग अपना हक लेने लायक जागरूक होंगे. भारत दुनिया की सबसे तेज विकसित होती अर्थ व्यवस्थाओं के समूह में शामिल है, पर मानवीय विकास में अफ्रीका के गरीब देशों से भी पीछे है. इसे कौन दुरुस्त करेगा? मनरेगा, शिक्षा का अधिकार और खाद्य सुरक्षा के बाद भूमि अधिग्रहण कानून भी पास करने की जरूरत है, क्योंकि बुनियादी आर्थिक विकास का सवाल अभी अनुत्तरित है. यूपीए-2 की सरकार के कुछ ही महीने बचे हैं. खाद्य सुरक्षा का असली बोझ अगली सरकार पर पड़ेगा. उसे इसके लिए धनराशि हासिल करने के लिए आर्थिक उदारीकरण के पहिये को तेज करना होगा. आर्थिक गतिविधियों के बगैर मानव कल्याण के कार्यो की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. फिलहाल हमने दुनिया की सबसे बड़ी सामाजिक कल्याण योजना लागू करने की ठान ली है, तो उसे तार्किक परिणति तक पहुंचना होगा.

कांग्रेस मानती है कि यह कार्यक्रम ‘गेम चेंजर’ है. यानी चुनाव जिताने का मंत्र. विपक्ष मानता है कि दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के पहले इसकी घोषणा करके सरकार प्रचारात्मक लाभ लेना चाहती है. वृंदा करात कहती हैं कि सरकार चार साल से सोयी थी. जयललिता, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, रमन सिंह और शिवराज सिंह इसे केंद्र-राज्य संबंधों के लिए अहितकर भी मानते हैं. इसमें राज्य सरकारों को न केवल लाभार्थियों की पहचान करनी है, इसके खर्च में हिस्सा भी बंटाना है. जयललिता कहती हैं कि सामाजिक सुरक्षा का मसला राज्य सरकारों के अधीन रहना चाहिए. दरअसल यूपी, बिहार तथा कुछ अन्य पिछड़े इलाकों को छोड़ दें, तो राज्य सरकारें अपने साधनों के आधार पर खाद्य सुरक्षा की योजनाएं चला भी रहीं है. अकाली दल कहता है कि इससे बेहतर हमारी ‘आटा-दाल’ स्कीम है, जो हम 2007 से चला रहे हैं. छत्तीसगढ़ 90 फीसदी नागरिकों को सस्ता अनाज देता है. मध्य प्रदेश में भी यह स्कीम है. तमिलनाडु, केरल, आंध्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा में भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली काम कर रही हैं. राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने सभी नागरिकों को कवर करनेवाली योजना बनायी थी, पर सरकार ने लागू करने की हिम्मत नहीं दिखायी.

अब जब यह कानून पास हो गया है, तो इसके उपबंधों की व्यावहारिकता की परीक्षा होगी. देखना यह है कि इस कानून में लोगों की शिकायतों की सुनवाई की व्यवस्था किस तरह काम करेगी? केंद्र और राज्यों के मसले किस तरह निपटेंगे? लाभार्थियों को किस तरह चुना जायेगा? इसके लागू होते-होते चुनाव आ जायेंगे. यानी अगली सरकार के सामने दुधारी तलवार है. एक तरफ उदारीकरण और दूसरी तरफ खाद्य सुरक्षा. सोनिया गांधी को यकीन है कि अगली सरकार यूपीए की होगी, तो उन्होंने इन बातों पर भी सोचा होगा!

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