जैसे प्रेम का स्वभाव है रक्षा करना, वैसे ही नफरत का स्वभाव है नष्ट करना. प्रेम की दृष्टि अपनों को अपनाने पर, नफरत की नजर दूसरों के दोष देखने पर होती है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अगर प्रेम कर पाता, तो उसे अपने प्रिय प्रधानमंत्री के वचन की मर्यादा की रक्षा का ध्यान होता. दिल्ली के गिरजाघरों पर होते हमलों से परेशान होकर प्रधानमंत्री ने कहा था कि लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा की जायेगी. लेकिन, उनके इस वचन की मर्यादा का पालन खुद उस संगठन के प्रधान से नहीं हो सका, जिसे प्रधानमंत्री ‘मां’ का दर्जा देते हैं.
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने राजस्थान के भरतपुर के एक सेवा-संस्थान में कह दिया कि ‘सेवा तो यहां हमलोग भी करेंगे, लेकिन वैसी नहीं जैसा कि मदर टेरेसा करती थीं. मदर टेरेसा लोगों की सेवा उन्हें ईसाई धर्म में दीक्षित करने के लिए करती थीं’. उनके इस एक कथन से प्रधानमंत्री के कहे पर पानी फिर गया, क्योंकि एक तो धार्मिक-स्वतंत्रता के भीतर ही धर्म-विश्वासों को बदलने की स्वतंत्रता शामिल है. दूसरे, इस कथन से फिर उजागर हुआ कि आरएसएस की सोच हमेशा दूसरे के खोट खोजने की नजर से बनती है. उसके हाथों संपन्न होनेवाली ‘सेवा’ प्राथमिक तौर पर एक प्रतिस्पर्धा होती है. ऐसी प्रतिस्पर्धा, जिसमें जोर किसी ‘दूसरे’ (वे ईसाई हों या मुसलमान) को ओछा ठहराने पर होता है.
वैसे भागवत का यह कथन तथ्यरूप में ही गलत है. मदर टेरेसा की संस्था मिशनरीज ऑफ चैरिटी ने बताया है कि विभिन्न देशों में कायम इसके कुल 745 होम और कोलकाता में मौजूद 19 सेवा-घर में 90 फीसदी तादाद ऐसे लोगों की है, जो गैर-ईसाई हैं. सिर्फ उन अनाथ बच्चों, जिनके बारे में निश्चित नहीं किया जा सकता कि उनके माता-पिता का धर्म क्या था, को ईसाई मानकर मदर की संस्था में लालन-पालन मिलता है. लेकिन यहां असल बात तथ्यों की नहीं, बल्कि अपने को हिंदू-धर्म का संगठन कहनेवाले आरएसएस के मुखिया द्वारा हिंदू-परंपरा के भीतर मौजूद विरासत से इनकार का है. हिंदू-धर्म किसी एक संस्था, किताब या व्यक्ति से बंधा धर्म नहीं है. इस धर्म के भीतर प्रयोग और परिवर्तन लगातार हुए हैं. हिंदू-धर्म अपने विश्वासों के भीतर बदलाव के दौर से सूर, तुलसी और कबीर के जमाने में गुजरा था. तुलसी ने ‘परहित सरिस धरम नहीं भाई’ कह कर अगर हिंदुओं को सीख दी थी कि धर्म प्रेम-प्रधान ही हो सकता है, तो कबीर ने भी ‘ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय’ कह कर धर्म-भाव के भीतर प्रेम-भाव की प्रधानता की ही बात कही थी. प्रेम का भाव अपने सर्वोत्तम रूप में सेवा-भाव में प्रकट होता है. हिंदू धर्म को रोजाना के व्यवहार की नैतिकता पर खड़ा करने की यह कोशिश तुलसी या कबीर का मौलिक योगदान नहीं, पहले से चली आ रही परंपरा का विस्तार था. वेदव्यास के शब्द ‘परोपकार: पुण्याय, पापाय परपीड़नम्’ तुलसी और कबीर को समान रूप से याद थे. धर्म-विश्वास की इसी विरासत का विस्तार 19वीं सदी में हुआ, जब पारलौकिकता से एक तरह से इनकार करते हुए रामकृष्ण परमहंस के मुंह से एक पंक्ति निकलती थी कि ‘जीव-सेवा ही शिव-सेवा’ है.
ईसाई मिशनरियों का हिंदू-धर्म पर आरोप था कि हिंदू धर्म जाति-व्यवस्था के भीतर बंधा होने के कारण सेवा-भाव से हीन है, और इसकी काट में रामकृष्ण परमहंस ने ‘जीव’ को ही ‘शिव’ का दर्जा दिया, उसकी सेवा को पूजा माना. ऐसे में अगर कोई हिंदू होने के धर्म का निर्वाह कर रहा है, तो उसे कबीर-तुलसी भी याद होने चाहिए, रामकृष्ण परमहंस भी. अगर इतना याद रहे तो फिर कोई हिंदू मदर टरेसा से वैर नहीं पाल सकता, प्रतिस्पर्धा नहीं रख सकता. विरासत याद रखनेवाले हिंदुओं के लिए मदर टेरेसा सेवा की मूर्ति होने की एकमात्र वजह से ही देवतुल्य प्रतीत होंगी. आखिर अपने लिए उनके पास था ही क्या? जो था सो सब जीव-सेवा के लिए ही तो था.
नीले बार्डर की दो सूती साड़ी और एक बाल्टी, अपने लिए तो बस इतना ही रहा उनके पास जिंदगी भर, लेकिन उनके हृदय में बेसहारा लोगों को देने के लिए प्रेम का अक्षय भंडार था. सो, वह जीवित रहते लोगों के मन-मंदिर में ‘मदर’ की मूर्ति बन कर मौजूद रहीं और नश्वर काया छोड़ने के छह साल के भीतर दुनिया के सबसे संगठित तथा खोजबीन में यकीन रखनेवाले रोमन कैथोलिक धर्म ने उन्हें ‘संत’ का दर्जा दिया. यह दर्जा न भी मिलता, तो भी मदर को लाखों अनाथ, अपंग और रोगी लोगों के बीच संत का दर्जा प्राप्त था, क्योंकि इस देश का मानस संस्कृति की आड़ में राजनीति कर रहे आरएसएस सरीखे किसी संगठन के बिना ही सदियों से जानता-मानता आया है कि परोपकार के लिए संत शरीर धारण करते हैं. मदर टेरेसा की सेवा-भावना पर अंगुली उठाने से पहले भागवत को चाहिए कि वे ‘परोपकाराय सतां विभूतय:’ की हिंदू-परंपरा का ख्याल करें.

