21.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

भारत को अरबपति नहीं, लखपति चाहिए

प्रभु चावला एडिटोरियल डायरेक्टर द न्यू इंडियन एक्सप्रेस prabhuchawla@newindianexpress.com जब बाजार एवं अर्थ-केंद्रित अर्थशास्त्रियों द्वारा धकेली आपूर्ति मांग से आगे निकल जाती है, तो 116 वर्षों पुराना एक आर्थिक सिद्धांत उनके प्रवचन का सर्वप्रमुख उद्देश्य बन जाता है- ‘बीमार भारतीय अर्थव्यवस्था हेतु सुधारों के लिए दबाव दो, मगर पुराने नुस्खों के इस्तेमाल पर जोर डालो.’ […]

प्रभु चावला

एडिटोरियल डायरेक्टर
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस
prabhuchawla@newindianexpress.com
जब बाजार एवं अर्थ-केंद्रित अर्थशास्त्रियों द्वारा धकेली आपूर्ति मांग से आगे निकल जाती है, तो 116 वर्षों पुराना एक आर्थिक सिद्धांत उनके प्रवचन का सर्वप्रमुख उद्देश्य बन जाता है- ‘बीमार भारतीय अर्थव्यवस्था हेतु सुधारों के लिए दबाव दो, मगर पुराने नुस्खों के इस्तेमाल पर जोर डालो.’ वर्ष 1803 में फ्रांसीसी अर्थशास्त्री ज्यां बैटिस्ट की यह उक्ति है कि ‘आपूर्ति हमेशा ही अपनी मांग सृजित कर लेगी.’ आपूर्ति एवं मांग (एसएडी) के सिद्धांत की यह मान्यता है यदि किसी खास वस्तु की मांग घट जाती है, तो किसी दूसरे क्षेत्र में वृद्धि द्वारा उसके घाटे की भरपाई हो जायेगी.
तथ्य यह है कि अभी भारत में अनबिकी वस्तुओं के गर्द खाते जखीरे इन दोनों सिद्धांतों को गलत सिद्ध कर रहे हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रबंधक एवं विनियामक ‘एसएडी’ सिद्धांत की सनक से ग्रस्त हैं.
पिछले 28 वर्षों से वे सुधारों के नाम पर सभी केंद्रीय सरकारों के द्वारा आपूर्तिकर्ताओं अथवा तथाकथित संपदा-सृजनकर्ताओं का आत्यंतिक तुष्टीकरण कराते आ रहे हैं. सभी वित्तीय संस्थानों, नीति निर्माताओं और यहां तक कि विनियामकों के दरवाजे उनके लिए खुले रखे गये हैं. बैंक भले ही दिवालियेपन की कगार पर हों, हमारे औद्योगिक महाराजाओं का व्यक्तिगत शुद्ध मूल्य असीम रूप से बढ़ता ही रहा है.
उपभोक्ता वस्तुओं से लेकर औद्योगिक मशीनरी की घटती बिक्री पर अंतरराष्ट्रीय एवं घरेलू शोर-शराबे के बीच सरकार ने अंततः अपना ‘बटन’ दबा डाला. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को ‘एसएडी’ मॉडल के अनुसरण हेतु बाध्य कर दिया गया. उन्होंने धनाढ्यों एवं विदेशी निवेशकों के लिए कर राहत की घोषणा की.
फिर उन्होंने बीमार बैंकों की मजबूती तथा उनके द्वारा बेहतर ऋण उपलब्धता हेतु उनका विलय भी घोषित किया. आगे भी वह अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए कई और राजकोषीय कदमों की घोषणा करेंगी. यह एक विचित्र बात है कि निर्णायक नेतृत्व के अंदर एक अधिक शक्तिशाली भारत पर अर्थव्यवस्था के पतन का आरोप मढ़ा जा रहा है.
‘एसएडी’ के इन्हीं समर्थकों ने नोटबंदी को प्रणाली के शुद्धीकरण हेतु मोदी सरकार का सर्वाधिक साहसी कदम बताते हुए उसकी तारीफ की थी. अब तीन साल बाद, वे इसे मांग में कमी लाने का दोषी बता रहे हैं. सामूहिक तथा व्यक्तिगत रूप से उन्होंने जीएसटी की वकालत करते हुए तब उसे अब तक के सबसे असाधारण कर सुधार बताया था. अब यही लोग मीडिया से कानाफूसी कर रहे हैं कि जीएसटी ने अनौपचारिक क्षेत्र को मार डाला.
दोष देने के उनके खेल के कई तर्क हैं. यदि मोटरगाड़ियों के निर्माता अपनी बनायी सभी गाड़ियां नहीं बेच पा रहे हैं, तो सरकार दोषी है. यदि रियल्टी क्षेत्र के उद्यमी अपनी चीजें नहीं बेच पा रहे हैं, तो इसके लिए वे बैंक दोषी हैं, जो उनसे अपने उन ऋणों के भुगतान की मांग कर रहे हैं, जिनका उपयोग अन्यत्र कर लिया गया है. ऐसे आरोपों पर रोक लगनी चाहिए.
यदि बिजली का उपभोग उसके उत्पादन के अनुरूप तेजी से नहीं बढ़ रहा है, तो उसके लिए सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. अगर शहरों के चमकदार मॉल आज खाली नजर आ रहे हैं, तो उसके लिए सरकार को गुनहगार नहीं बताया जा सकता. इसी तरह, यदि आज टेलीकॉम कंपनियां विशालकाय घाटे की चपेट में हैं, तो उसका दोष कम कीमतों के कनेक्शनों की बड़ी तादाद पर है.
एक तरफ तो वे अपने उपभोक्ताओं की बड़ी संख्या को अपने सफल कारोबारी मॉडल का नतीजा बताते हैं, तो दूसरी ओर सरकार से यह उम्मीद करते हैं कि वह उन्हें स्पेक्ट्रम तथा अन्य कर राहत देते हुए उनकी ऊंची परिचालन लागतों पर सब्सिडी मुहैया करे.
खेद की बात यह है कि भारतीय विकास की कहानी को हमेशा ही बाजारों तथा पैसे बनानेवालों के चश्मों से देखा गया है. सेंसेक्स की मनमानी चाल को आर्थिक स्वास्थ्य का संकेतक बताया जाता है, जबकि उसमें किसी भी गिरावट को स्वयं राज्य का ही पतन बता दिया जाता है.
सट्टेबाज और प्रवर्तक शायद ही कभी नुकसान उठाते हैं, जबकि खुदरा निवेशकों की गाढ़ी कमाई के पैसे लुटते जाते हैं. बाजारों के सुधारों के 28 वर्ष बाद भी भारतीय आबादी का केवल दो प्रतिशत हिस्सा ही स्टॉक मार्केट में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष भागीदारी कर सका है. आज भी उसमें तीन करोड़ से भी कम निवेशक ही सक्रिय हैं.
उसका 90 प्रतिशत से भी अधिक कारोबार तो ऊंचे नेटवर्थ के व्यक्तियों, विदेशी संस्थागत निवेशकों एवं विदेशी निवेशकों द्वारा लगभग 100 सूचीबद्ध कंपनियों के साथ किया जाता है. चूंकि नकारात्मक भावना के माहौल में उन्हें बहुत नुकसान उठाना पड़ता है, इसलिए वे सरकार तथा अन्य एजेंसियों पर इस हेतु दबाव डालते हैं कि बैंक, छोटी बचत तथा यहां तक कि सरकारी स्वामित्व की बीमा कंपनियां बाजार को उठाएं.
विडंबना है कि मांग में गिरावट के नतीजतन गिरती मुद्रास्फीति का इस्तेमाल कर आरबीआइ से ब्याज दरों में कमी करने की मांग की जाती है. उधर बैंक लघु बचत खाता धारकों की बचतों तथा सावधि जमा राशियों पर ब्याज दरें घटाते हुए उन्हें चपत लगाते हैं.
ऐतिहासिक रूप से, बाजार के खिलाड़ियों ने सरकार के राजस्व से भी एक बड़ा हिस्सा हथियाने में सफलता पायी है. पिछले कुछ दशकों में उन्होंने भारत सरकार को बाध्य कर दिया है कि वह सीमांत तथा निर्धन वर्गों की सब्सिडी में बड़ी कटौतियां करे. ग्रामीण मांग गिरी हुई है, क्योंकि कृषि आय स्थिर है. ग्रामीण आबादी का 50 प्रतिशत हिस्सा जीडीपी का सिर्फ 15 प्रतिशत ही अर्जित करता है.
विनिर्माण क्षेत्र, जिसका संगठित श्रमबल में बड़ा हिस्सा है, जीडीपी में केवल 17 प्रतिशत का ही योगदान करता है, जबकि उसका 58 प्रतिशत हिस्सा प्रौद्योगिकी पर्वताकारों, वित्तीय प्रवीणों तथा मनोरंजन मुगलों की सदारत में सेवा क्षेत्र ने हथिया रखा है. इन्होंने ही पिछले दो दशक में कृत्रिम ‘एसएडी मॉडल’ को आगे बढ़ाया है. विलासिता तथा देश-विदेशों में चल-अचल संपत्तियां इकट्ठी करने की उनकी भूख चरम पर है.
जमीनी वास्तविकताओं से वाकिफ पीएम मोदी की अनेक कल्याणकारी योजनाओं ने निर्धन वर्गों के बहुलांश का आर्थिक एवं सामाजिक स्तर उठाया है, पर वक्त आ गया है कि वे मांग को भी ऊपर उठाने के कदम उठाएं. भारतीय विकास कथा का सातत्य अरबपतियों से अधिक लखपतियों के सृजन में निवास करता है.
(अनुवाद: विजय नंदन)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें