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क्या, अपने आलोचकों की परवाह नहीं करते हैं पीएम मोदी ?

2002 के गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी की छवि कट्टर नेता की बन चुकी थी. उस संप्रदायिक हिंसा से गुजरात की छवि को भारी धक्का लगा था. तब नरेंद्र मोदी वहां के मुख्यमंत्री थे. लिहाजा इसके छींटे उनके भी दामन पर पड़े. उसके अगले ही साल, 2003 में पहला ‘बाइव्रेंट गुजरात’ का आयोजन हुआ. […]

2002 के गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी की छवि कट्टर नेता की बन चुकी थी. उस संप्रदायिक हिंसा से गुजरात की छवि को भारी धक्का लगा था. तब नरेंद्र मोदी वहां के मुख्यमंत्री थे. लिहाजा इसके छींटे उनके भी दामन पर पड़े. उसके अगले ही साल, 2003 में पहला ‘बाइव्रेंट गुजरात’ का आयोजन हुआ. इस आयोजन ने बिजनेस लीडर्स, निवेशकों, निगम प्रमुखों, अर्थशास्त्रियों, पॉलिसी मेकर को एक मंच प्रदान किया. शुरुआत में इसे राज्य में बिजनेस को बढ़ावा देने वाली समिट के रुप में देखा गया था, लेकिन इसने नरेंद्र मोदी की छवि बदलने में अहम भूमिका निभायी. इस समिट ने नरेंद्र मोदी को विकास के एजेंडे पर काम करने वाले मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित कर दिया.

आगे चलकर इस फेस्टिवल में वैश्विक नेता भी जुटने लगे. कई मल्टीनेशनल कंपनियों के सीइओ भी जुटने लगे. बतौर मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने 2003,2005,2007, 2009, 2011 और 2013 में बाइव्रेंट समिट का आयोजन किया. 2009 के वाइब्रेंट समिट में सुनिल भारती मित्तल और अनिल अंबानी सार्वजनिक रूप से कहा कि नरेंद्र मोदी को देश का अगला प्रधानमंत्री होना चाहिए. गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी को अमेरिका ने वीजा देने से इंकार कर दिया था. इस दौरान मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने चीन, जापान व दक्षिण कोरिया के साथ संबंधों पर जोर दिया. बतौर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने एशियाई देशों के राष्ट्रप्रमुखों से अच्छे संबंध बनाये. इसका लाभ उन्हें मिला.
पहली बार देश के नामी – गरामी उद्यमियों ने यह कहकर हैरत में डाल दिया कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री होना चाहिए. तब से एक खास वर्ग उन्हें प्रधानमंत्री के संभावित उम्मीदवार के रूप में देखने लगा. देश के राजनीतिक इतिहास में वह एक ऐसा दौर भी आया, जब कांग्रेस की दस साल की सरकार अपने ढलान पर पहुंच चुकी थी. भ्रष्टाचार और अन्ना आंदोलन से कमजोर होती यूपीए सरकार को देख भाजपा कोई मौका छोड़ना नहीं चाहती थी.
बीजेपी ने चुनावी तैयारियां शुरू कर दी. 13 सितंबर 2013 को नरेंद्र मोदी को बीजेपी संसदीय बोर्ड ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया. 26 मार्च 2014 से अगले लोकसभा चुनाव का प्रचार होना शुरू हो गया. देश के छोटे – छोटे कस्बों में बड़ी रैलियां होने लगी. पहली बार देश में चुनावी प्रचार का अंदाज बदल चुका था.
विरोधियों से कम नहीं हुए तकरार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर आम लोगों में कई तरह की धारणाएं थी. गुजरात दंगों के बाद से उनकी एक खास तरह की छवि बन गयी थी. प्रधानमंत्री बनने के बाद लोगों में मोदी के व्यक्तित्व को जानने की दिलचस्पी बढ़ी. अपने शानदार भाषण देने की कला से वह जनता को सम्मोहित कर लेते हैं लेकिन मीडिया के सामने खुलकर नहीं आते. सवा तीन साल के शासन में उन्होंने एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं किया.
हां, जनता के साथ संवाद के लिए मन की बात से लेकर सोशल मीडिया में हमेशा सक्रिय रहते हैं लेकिन इन सब के बावजूद उनके मीडिया से परहेज के रवैये को लेकर सवाल उठते रहते हैं. जानकार बताते हैं कि मोदी अपने विरोधियों की परवाह नहीं करते हैं. यही वजह है कि देश में छिट – पुट संप्रदायिक हिंसा के बाद शुरू हुए अवार्ड वापसी का दबाव उनपर नहीं पड़ा. संभव है कि गुजरात में मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने अपनी एक खास शैली विकसित कर ली है और अब सोशल मीडिया के दौर में इसकी जरूरत उन्हें महसूस नहीं होती है.
मेहनती और ईमानदार छवि
कठोर आलोचना और नौकरियों की कमी के बावजूद नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बरकरार है. मोदी ने नोटबंदी जैसे कठोर फैसले लिये, जनता को कष्ट पहुंचा और देशभर में इस फैसले से कई लोगों को जीवन से हाथ धोना पड़ा. जानकार बताते हैं कि अगर यह फैसला यूपीए सरकार ली होती तो उसे कठोर आलोचना झेलनी पड़ती.संभव है कि सत्ता से हाथ धोना पड़ता. तमाम अर्थशास्त्रियों ने सरकार के इस गैर – जिम्मॆदाराना फैसले की आलोचना की. इन सब के बावजूद मोदी की लोकप्रियता बरकरार है. जनता के बीच उनकी छवि ईमानदार और कठोर मेहनती नेता के रूप में हैं. परिवारवाद के बीमारी से ग्रस्त ज्यादातर पार्टियों की वजह से जनता का झुकाव मोदी की ओर चला गया. कठोर और सख्त छवि का लाभ उन्हें मिला. जीएसटी पारित कर उन्होंने देश के संसदीय इतिहास में असंभव काम कर दिखाया. आम लोगों के मन में नरेंद्र मोदी के प्रति विश्वास कायम है. अगर अपने शासन में रहते कुछ अच्छे नतीजे दिखा पाये तो शायद विपक्ष की चुनौती बढ़ जायेगी.

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