ऐश्वर्या ठाकुर
आर्किटेक्ट एवं ब्लॉगर
आजकल गैस-चैंबर बन चुके हमारे शहरों में भागता-दौड़ता और घंटों काम करता नौजवान जब थकावट और परेशानियों से हांफता है, तो अक्सर ऑक्सीजन-सप्लाई के लिए पहाड़ों का रुख करता है. पहाड़ों की पुरकशिश ऊंचाइयों की खासियत यह है कि ये पास बुलाती भी हैं, डराती भी हैं, थकाती भी हैं और सहलाती भी हैं.
यहां प्रहरियों की तरह गंभीर खड़े हुए चीड़ और देवदार के ऊंचे पेड़ हर गुजरनेवाले मौसम को आते-जाते देखा करते हैं. इन पहाड़ों की हथेलियों की ओट में बस्तियां, दीये की लौ की तरह महफूज रहती हैं. चलते-चलते जब पांव थकने लगते हैं, तो इन पहाड़ों से फूटते गर्म चश्मों के गुनगुने पानी सारी जिस्मानी और रूहानी थकान उतार देते हैं.
पहाड़ अपनी बर्फीली तहों में बौद्ध, ईसाई, सिख, मुस्लिम, हिंदू और कबीलाई रीति-रिवाजों को पनाह दिये हुए ऊंघते रहते हैं और सर्वधर्म समभाव से यहां जिंदगी धीमे-धीमे चलती रहती है. राहुल सांकृत्यायन से लेकर नोराह रिचर्ड्स तक, शोभा सिंह से लेकर निकोलस रोरिक तक, रस्किन बांड से लेकर खुशवंत सिंह तक कितने ही कलाकार ऊंचे पहाड़ों की अथाह गहराइयों में उतरते चले गये और इतिहास रच गये.
बारिश से भीगी और कोहरे से लिपटी शांत राहों पर चहलकदमी करते हुए दूर निकल जाना और हर मोड़ पर चाय की एक छोटी सी दुकान का मिल जाना, ऐसे खूबसूरत एहसास हैं, जो किसी भी हिमालयी यात्रा-वृत्तांत को मुकम्मल बनाते हैं. अनगिनत देवी-देवताओं में बसी आस्था और लोक-कथाओं में बसा विश्वास ही हाशिये पर झूलते पहाड़ी-जीवन को एक आस की डोर से बांधे रखता है.
एक आम पहाड़ी की पहचान उसकी ऊनी टोपी, काली छतरी, छड़ी और कपड़े के थैले के साथ जुड़ी होती है. झुर्रियों वाले हाथों से स्वेटर बुनते हुए औरतें पहाड़ी गीत गुनगुनाती हैं और बच्चों का स्कूल से लौटने का इंतजार करती हैं. वहीं नुक्कड़ पर आदमी ताश खेलते, हुक्के गुड़गुड़ाते हुए ठहाके लगाते मिलते हैं. शाम को कोई उदास पहाड़ी धुन गुनगुनाते हुए यही औरतें मवेशियों के लिए चारा और चूल्हे के लिए लकड़ी लेने खेतों-जंगलों की ओर चल देती हैं.
मगर अब धीरे-धीरे बाजारवाद की कुदाल इन पहाड़ों की पीठों को कुरेदने लगी हैं. पहले जो पहाड़ बादल के पीछे छुपकर बारिश के पानी से चेहरा धोया करते थे, आज उन्हीं पहाड़ी ढलानों के सीने खुरच कर डिबियानुमा इमारतें खड़ी की जा रही हैं. धीरे-धीरे कच्ची पगडंडियों पर चढ़ी पक्की सड़कों की परतों पर अजगर-सी लंबी गाड़ियों की कतारें काबिज हो गयी हैं और वादियां कारों-ट्रकों के बेसुरे हॉर्न से गूंज रही हैं.
नयी सड़क खुलते ही बेसुध जवान सपनों को भी राह मिल गयी है और देखते ही देखते गांव के नौजवान पढ़ाई और नौकरी करने शहर की तरफ निकलने लगे हैं. फिर धीरे-धीरे जमीनें बिक रही हैं और अब तो पलायन का ऐसा दौर चला है कि कितने ही गांव खाली होकर सरकारी दस्तावेजों में भी ‘मौजा-बेचिराग’ घोषित कर दिये गये हैं.
रूमानियत से थोड़ा आगे बढ़ें, तो दिखेगा कि गांव के कच्चे मकानों में टूरिस्ट-सीजन के दौरान पानी की एक बूंद तक मयस्सर नहीं होती और पानी की मटकियां सिरों पर लादे खड़ी-चढ़ाई पार करके अपने घर के बर्तन-कनस्तर भरना पहाड़ी लोगों के लिए कितना अनरोमांटिक होता है.
जंगलों से रोज पेड़ों की टनों लाशें निकलने लगी हैं और पीछे छूटी हुई उदास ठूंठें, दरख्तों की शहादत की गवाही देती मिलती हैं. पहाड़ों को कैश करानेवालों का बस चले, तो टिन की छतों पर बरसती बौछारें भी टैक्स समेत बिल में लगा दें.
पहाड़ों की बेदर्द घिसाई के साथ होती पहाड़ी संस्कृति की धीमी मौत के जिम्मेदार हम सब इतिहास में सामूहिक हत्यारे कहलायेंगे. तय है कि बहुत जल्द पहाड़ अपना अस्तित्व खो देंगे और किसी सजीले शोरूम में एक पोस्टर बनकर रह जायेंगे. पहाड़ों के नुकीले शीर्ष हमारी स्मृतियों में चुभेंगे. पहाड़ों के बिना हमारी दुनिया ऐसी होगी जैसे बुजुर्गों के बिना सूना घर. आनेवाली नस्लें जब पूछेंगी कि कौन थे पहाड़, तो शायद हमारे मर्तबानों में बचा कर रखी पहाड़ी हवा के सिवा उन्हें बताने को कुछ बाकी नहीं रह जायेगा.
