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संविधान सभा की एकमात्र दलित महिला सदस्य थीं दक्षायिणी वेलायुदन

!!रचना प्रियदर्शिनी!! संविधान सभा की ड्रॉफ्टिंग कमेटी के कुल 389 सदस्यों में एकमात्र दलित महिला सदस्य थीं दक्षायिणी वेलायुदन. इस सभा में जगह बनाना बड़ी उपलब्धि थी, वह भी उस वक्त जबकि हमारे समाज में जातिवाद हावी था और महिलाओं की सामाजिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी. संविधान सभा की सबसे युवा सदस्य थीं दक्षायिणीदक्षायिणी […]

!!रचना प्रियदर्शिनी!!

संविधान सभा की ड्रॉफ्टिंग कमेटी के कुल 389 सदस्यों में एकमात्र दलित महिला सदस्य थीं दक्षायिणी वेलायुदन. इस सभा में जगह बनाना बड़ी उपलब्धि थी, वह भी उस वक्त जबकि हमारे समाज में जातिवाद हावी था और महिलाओं की सामाजिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी.

संविधान सभा की सबसे युवा सदस्य थीं दक्षायिणी
दक्षायिणी वेलायुदन का जन्म वर्ष 1912 में कोच्चि के एक छोटे-से द्वीप मुलावुकड में हुआ था. उनके व्यक्तिगत एवं राजनीतिक जीवन पर तत्कालीन केरल में मौजूद जाति व्यवस्था का गहरा प्रभाव था. दक्षायिणी पुलाया समुदाय से संबंध रखती थीं-जिन्हें केरल राज्य के आरंभिक समुदायों में से एक माना जाता था.

घोर छूआछूत का शिकार था पुलाया समुदाय
ऐश्ले मैथ्यू ने अपने शोधपत्र ‘लेबर पार्टीशिपेशन एंड सोशल मोबिलिटी अमंग द पुलाया वुमेन ऑफ रूरल केरला’ में बताया है कि पुलाया समुदाय स्वतंत्रता पूर्व भारत में घोर छूआछूत का शिकार था. इस समुदाय के लोग अपनी आजीविका के लिए मुख्य रूप से खेतों में दिहाड़ी मजदूरी करते थे. उनके ऊपर कई तरह की सामाजिक पाबंदिया थीं.

परिवार के लिए दुर्गा का अवतार थीं दक्षिणायिनी
जब दक्षायिणी का जन्म हुआ, तब तक केरल समाज में व्याप्त इस अतार्किक जाति व्यवस्था का विरोध होना शुरू हो चुका था. अय्यनकाली जैसे समाज सुधारकों ने पुलाया समुदाय के उत्थान की दिशा में आवाज उठाना शुरू कर दिया था, हालांकि मंजिल अभी भी काफी दूर थी. दक्षायिणी ने अपनी आत्मकथा में बताया है कि- ‘मैं किसी गरीब पुलाया परिवार में पैदा नहीं हुई थीं. मेरे पांच भाई-बहनों में से पिता मुझसे ही सबसे ज्यादा प्यार करते थे और मेरा समर्थन करते थे.’ उनके इसी प्यार और समर्थन का नतीजा था कि दक्षायिणी अपने दौर की पहली दलित महिला बनीं, जिन्होंने ऊपरी अंगवस्त्र पहनना शुरू किया, जबकि उनसे पहले पुलाया समुदाय की महिलाएं अंगवस्त्र नहीं पहनती थीं. साथ ही वह भारत की पहली दलित महिला ग्रेजुएट भी हुईं. उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जहां अन्य दलित लड़कियों के अजाकी, पुमाला, चक्की, काली, कुरुंबा जैसे अजीबो-गरीब नाम हुआ करते थे, वही उनके माता-पिता ने उनका नाम दक्षिणायिणी रखा था, जिसका अर्थ होता है ‘दक्ष कन्या’ अर्थात ‘दुर्गा’. इससे पता चलता है कि उनका परिवार समाज के दकियानूसी विचारधारा को नहीं मानता था.

दलित अधिकारों के लिए उठायी आवाज

वर्ष 1942 में दक्षिणायिनी कोचीन विधानसभा सीट के लिए नॉमिनेट की गयीं और वर्ष 1946 में उन्हें संविधान सभा की पहली और एकमात्र दलित महिला सदस्या के रूप में चुना गया. उनका मानना था कि ‘कोई भी संविधान सभा केवल संविधान का निर्माण ही नहीं करती,बल्कि यह समाज के नये दृष्टिकोण का निर्माण करती है.’ महात्मा गांधी की दृढ़ समर्थक रहीं दक्षिणायिनी छूआछूत और सामाजिक भेदभाव की कट्टर विरोधी थीं. उनका मानना था कि जब इस तरह की मान्यताएं समाज में व्याप्त रहेंगी, तब तक गांधी जी के ‘हरिजन’ की अवधारणा के बारे में बात करना भी बेमानी है. दक्षिणायिनी ने केवल अपने समुदाय में ही नहीं, बल्कि हर जाति और समुदाय में व्याप्त इस तरह की चीजों का खुल कर विरोध किया. उनके इस विरोध का परिणाम ही था कि संविधान में धारा-17 को जोड़ा गया, जिसके तहत अस्पृश्यता को दंडनीय अपराध माना गया.

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