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”आप” के कलह पर पढें वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी की प्रतिक्रिया

पुण्य प्रसून बाजपेयी, वरिष्ठ पत्रकार पहली लड़ाई संघर्षशील कार्यकर्ता और वैचारिक राजनीति के बीच हुई, जिसमें कार्यकर्ताओं की जीत हुई, क्योंकि सड़क पर संघर्ष कर ‘आप’ को खड़ा उन्होंने ही किया था. दूसरी लड़ाई समाजसेवी संगठनों के कार्यकर्ताओं और राजनीतिक तौर पर दिल्ली में संघर्ष करते कार्यकर्ताओं के बीच हुई, जिसमें ‘आप’ को राष्ट्रीय तौर […]

पुण्य प्रसून बाजपेयी, वरिष्ठ पत्रकार

पहली लड़ाई संघर्षशील कार्यकर्ता और वैचारिक राजनीति के बीच हुई, जिसमें कार्यकर्ताओं की जीत हुई, क्योंकि सड़क पर संघर्ष कर ‘आप’ को खड़ा उन्होंने ही किया था. दूसरी लड़ाई समाजसेवी संगठनों के कार्यकर्ताओं और राजनीतिक तौर पर दिल्ली में संघर्ष करते कार्यकर्ताओं के बीच हुई, जिसमें ‘आप’ को राष्ट्रीय तौर पर चुनाव में हार मिली, क्योंकि सिर्फ दिल्ली के संघर्ष के आसरे समूचे देश को जीतने का ख्वाब जन आंदोलनों से जुड़े समाजसेवियों ने पाला, जिनके पास मुद्दे तो थे, लेकिन राजनीतिक जीत के लिए आम जन तक पहुंचने के राजनीतिक संघर्ष का माद्दा नहीं था. और अब तीसरी लड़ाई जन-आंदोलनों के जरिये राजनीति पर दबाव बनानेवाले कार्यकर्ताओं के राजनीति विस्तार की लड़ाई है.

इसमें एक तरफ फिर वही दिल्ली के संघर्ष में खोया कार्यकर्ता है, तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्तर पर फैले तमाम समाजसेवियों को बटोर कर वैकल्पिक राजनीति की दिशा बनाने की सोच है. यानी दिल्ली में जीत ही नहीं, बल्कि इतिहास रचनेवाले जनादेश की पीठ पर सवार होकर राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक सक्रियता को पैदा करने की कुलबुलाहट है, तो दूसरी तरफ दिल्ली को राजनीति का मॉडल राज्य बना कर राष्ट्रीय विस्तार की सोच है. टकराव जल्दीबाजी का है. टकराव जनआंदोलनों से जुड़े समाजसेवियों को दिल्ली के जनादेश पर सवार कर राष्ट्रीय राजनीति में कूदने और दिल्ली में मिली चुनावी जीत के लिये किये गये वायदों को पूरा कर दिल्ली से ही राष्ट्रीय विस्तार देने की सोच का है.

इसलिए जो संघर्ष ‘आप’ के भीतर-बाहर चंद नाम व पद के जरिये आ रहा है, असल में वैकल्पिक राजनीति और नयी राजनीति के बीच के टकराव का है. ध्यान दें तो पारंपरिक राजनीतिक व्यवस्था से रूठे युवाओं का समूह ही दिल्ली की राजनीति में कूदा. राजनीति की कोई वैचारिक समझ इनमें नहीं थी. कांग्रेस या बीजेपी के बीच भेद कैसे करना है, समझ यह भी नहीं थी. लेफ्ट-राइट में किसे चुनना है, यह भी तर्क दिल्ली की राजनीति में बेमानी रही. दिल्ली की राजनीति का एक ही मंत्र था- संघर्ष की जमीन बनाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होना. इसलिए 2013 में मनमोहन सरकार के भ्रष्ट कैबिनेट मंत्री हो या तब के बीजेपी के नीतिन गडकरी, राजनीति के मैदान में निशाने पर सभी को लिया गया. यहां तक कि लालू-मुलायम को भी नहीं बख्शा. यह नयी राजनीति दिल्ली चुनाव में जनता की जरूरत पर कब्जा जमाये भ्रष्ट व्यवस्था पर निशाना साधती है, जो वोटरों को भाता है. उन्हें नयी राजनीति अपनी राजनीति लगती है, क्योंकि पहली बार राजनीति में मुद्दा हर घर के रसोई, पानी, बिजली, सड़क का था.
लेकिन, लोकसभा चुनाव में नयी राजनीति के समानांतर एक वैकल्पिक राजनीति की आस जगायी जाती है. ध्यान दें, दिसंबर, 2013 यानी दिल्ली के पहले चुनाव के बाद ही देशभर के समाजसेवियों को लगने लगा था कि दिल्ली में केजरीवाल की जीत ने वैकल्पिक राजनीति का बीज डाल दिया है और उसे राष्ट्रीय विस्तार में ले जाया जा सकता है. तो जो सोशल एक्टिविस्ट राजनीति के मैदान में आने से कतराते रहे थे, झटके में केजरीवाल के समर्थन में खड़े होते हैं. तमाम जनांदोलन से जुड़े नेता आप के बैनर तले लोकसभा चुनाव में मैदान में कूदते भी हैं और जमानत जब्त भी कराते हैं. और हार के साथ झटके में यह सवाल हवा-हवाई हो जाता है कि आम आदमी पार्टी कोई वैकल्पिक राजनीति का संदेश देश में दे रही है. तमाम सामाजिक संगठन चुप्पी साधते हैं. जन-आंदोलन से निकले समाजसेवी अपने-अपने खोल में सिमट जाते हैं. नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी की जीत वैकल्पिक राजनीति की सोच रखने वालों को उनके दड़बों में समेट देती है. आंदोलनों की आवाज देशभर में सुनाई देनी बंद हो जाती है.
लेकिन, केजरीवाल फिर से राजनीति से दूर युवाओं को समेटते हैं. राजनीति की वैचारिक समझ रखनेवालों से दूर, नौसिखिया युवा फिर से दिल्ली चुनाव के लिए जमा होता है. केजरीवाल सत्ता छोड़ने की माफी मांग-मांग कर वोट मांगते हैं. ध्यान दें तो दिल्ली चुनाव में केजरीवाल की जीत से पहले कोई कुछ नहीं कहता. जो आवाज निकलती भी है तो वह किरण बेदी के बीजेपी में शामिल होने पर उन्हीं शांति भूषण की आवाज होती है, जो कांग्रेस के खिलाफ जनता पार्टी के प्रयोग को आज भी सबसे बड़ा मानते हैं और राजनीति की बिसात पर आज भी नेहरू के दौर के कांग्रेस को सबसे उम्दा राजनीति मानते समझते हैं. और यह चाहते भी रहे कि देश में फिर उसी दौर की राजनीति सियासी पटल पर आ जाये.

लेकिन, यहां सवाल उस बिसात को समझने का है कि जो शांति भूषण, अन्ना आंदोलन से लेकर आप के हक में दिखाई देते हैं. जनता पार्टी के दौर के राजनेताओं से आज भी शांति भूषण के बारे में पूछें तो हर कोई यही बतायेगा कि शांति भूषण वैकल्पिक राजनीति की सोच को ही जनता पार्टी में भी चाहते थे. फिर इस लकीर को कुछ बड़ा करें, तो प्रशांत भूषण हों या योगेंद्र यादव दोनों ही पारंपरिक राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ हमेशा रहे हैं. जन-आंदोलनों के साथ खड़े रहे हैं. जनवादी मुद्दों को लेकर दोनों का संघर्ष खासा पुराना है. और ध्यान दें तो वैकल्पिक राजनीति को लेकर सिर्फ योगेंद्र यादव या प्रशांत भूषण ही नहीं, बल्कि मेधा पाटकर, केरल की सारा जोसेफ, गोवा के ऑस्कर रिबोलो, ओड़िशा के लिंगराज प्रधान, महाराष्ट्र के सुभाष लोमटे, गजानन खटाउ की तरह सैकड़ों समाजसेवी आप में शामिल भी हुए. फिर खामोश भी हुए और दिल्ली जनादेश के बाद फिर सक्रिय हो रहे हैं या होना चाह रहे हैं. जो तमाम समाजसेवी उससे पहले राजनीति सत्ता के लिए दबाव का काम करते रहे, वे अब राजनीति में सक्रिय दबाव बनाने के लिये प्रयासरत हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. फिर ‘आप’ से जुड़ने से पहले के हालात को परखें, तो वाम राजनीति की समझ कमोबेश हर समाजसेवी के साथ जुड़ी रही है. प्रशांत भूषण वाम सोच के करीब रहे हैं, तो योगेंद्र यादव समाजवादी सोच से ही निकले हैं.

लेकिन, केजरीवाल की राजनीतिक समझ वैचारिक धरातल पर बिलकुल नयी है. केजरीवाल लेफ्ट-राइट ही नहीं, बल्कि कांग्रेस-बीजेपी या संघ परिवार में भी खुद को बांटना नहीं चाहते हैं. केजरीवाल की चुनावी जीत की बड़ी वजह भी राजनीति से घृणा करनेवालों के भीतर एक नयी राजनीतिक समझ को पैदा करना है. और यहीं पर योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण से केजरीवाल अलग हो जाते हैं. दिल्ली संघर्ष के दौर से केजरीवाल ने पार्टी संगठन के बीच में दिल्ली की सड़कों पर संघर्ष करनेवालों को राजनीतिक मामलों की कमेटी से लेकर कार्यकारिणी तक में जगह दी. वहीं लोकसभा चुनाव के वक्त राष्ट्रीय विस्तार में फंसी आप के दूसरे राज्यों के संगठन में वाम या समाजवादी राजनीति की समझ रखनेवाले वही चेहरे समाते गये, जो जन-आंदोलनों से जुड़े रहे.

केजरीवाल इसी घेरे को तोड़ना चाहते हैं, जबकि योगेंद्र यादव दिल्ली से बाहर अपने उसी घेरे को मजबूत करना चाहते हैं, जो देशभर के जनआंदोलनों से जुड़े समाजसेवियों को एक साथ खड़ा करे. केजरीवाल की राजनीति दिल्ली को मॉडल राज्य बनाकर राष्ट्रीय विस्तार देने की है. दूसरी तरफ की सोच केजरीवाल के दिल्ली सरकार चलाने के दौर में ही राष्ट्रीय संगठन बना लेने की है. केजरीवाल दिल्ली की तर्ज पर हर राज्य के उन युवाओं को राजनीति से जोड़ना चाहते हैं, जो अपने राज्य की समस्या से वाकिफ हो और उन्हें राजनीति वैचारिक सत्ता प्रेम के दायरे में दिखाई न दे, बल्कि राजनीतिक सत्ता न्यूनतम की जरूरतों को पूरा करने का हो. यानी सुशासन के लिए काम कैसे होना चाहिए यह वोटर तय करें, जिससे जनता की नुमाइंदगी करते हुए आम जन ही दिखाई दे. जिससे चुनावी लड़ाई खुद ब खुद जनता के मोरचे पर लड़ा जाये.

जाहिर है ऐसे में वह वैकल्पिक राजनीति पीछे छूटती है, जो आदिवासियों को लेकर कहीं कॉरपोरेट से लड़ती है, तो कहीं जल-जंगल-जमीन के सवाल पर वाम या समाजवाद को सामने रखती है. नयी राजनीति के दायरे में जन-आंदोलन से जुड़े समाज-सेवियों का कद महत्वपूर्ण नहीं रहता. असल टकराव यही है, जिसमें संयोग से संयोजक पद भी अहम बना दिया गया, क्योंकि आखिरी निर्णय लेने की ताकत संयोजक पद से जुड़ी है. लेकिन, सिर्फ दो बरस में दिल्ली को दोबारा जीतने या नरेंद्र मोदी के रथ को रोकने की ताकत दिल्ली में ‘आप’ ने पैदा कैसे की और देश में बिना दिल्ली को तैयार किये आगे बढ़ना घाटे की सियासत कैसे हो सकती है, अगर इसे वैकल्पिक राजनीति करनेवाले अब भी नहीं समझ रहे हैं, तो नयी राजनीति करनेवालों को भी समझना होगा कि उनकी अपनी टूट उसी पारंपरिक सत्ता को ऑक्सीजन देगी, जो दिल्ली जनादेश से भयभीत है और आम आदमी से डरी हुई है.

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