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सद्भाव की जीत

-हरिवंश- आखिर संदेह तथा अविश्वास की दीवारें टूटीं और सद्भाव जीता. 24 जुलाई को हुए पंजाब समझौते के बाद देश भर ने राहत की सांसद ली है, क्योंकि सतत मुठभेड़ की राजनीति ने अभी तक कटुता और हताशा ही पैदा की थी. लेकिन सवाल तो यह है कि प्रेम और सद्भाव के जिस माहौल में […]

-हरिवंश-

आखिर संदेह तथा अविश्वास की दीवारें टूटीं और सद्भाव जीता. 24 जुलाई को हुए पंजाब समझौते के बाद देश भर ने राहत की सांसद ली है, क्योंकि सतत मुठभेड़ की राजनीति ने अभी तक कटुता और हताशा ही पैदा की थी. लेकिन सवाल तो यह है कि प्रेम और सद्भाव के जिस माहौल में यह समझौता संभव हुआ, क्या वह आगे भी बरकरार रहेगा? राजकिशोर का विवेचन. साथ ही, हरिवंश की टिप्पणी कि यह संघर्ष की राजनीति के अंत का परिचायक है.
24 जुलाई 1985 को एक बार फिर साबित तो गया कि इतिहास सिर्फ संघर्ष और युद्ध से ही नहीं, प्रेम और सद्भाव से भी आगे बढ़ता है. श्रीमती गांधी ने अविश्वास, दमन और क्रूरता के द्वारा जो इतिहास लिखने की कोशिश की थी, वह खुद उन्हें ही खा गया. एक तरह से यह उस अंधे रास्ते का अंत था, जिस पर हमारी राजनीति अरसे से चली आ रही थी. भिंडरांवाले ने भी अपनी असहिष्णुता और खूनी उन्माद की कीमत अपनी जान देकर चुकायी. मृत्यु के बाद दोनों बेइंतहा लोकप्रिय हुए और अपने-अपने प्रशंसकों के बीच शहीद के रूप में प्रतिष्ठित हुए.

राजीव गांधी और अकाली नेता चाहते, तो शहादत के इस खूनी सिलिसले को बनाये रख सकते थे और उससे भी एक तरह के इतिहास की सृष्टि होती. जाहिर है, यह रास्ता मौत, तबाही और सर्वनाश का ही हो सकता था, जिससे धर्मनिरपेक्ष गणतांत्रिक भारतीय राष्ट्र के परखचे उड़ जाते, लेकिन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और अकाली दल के अध्यक्ष संत हरचंद सिंह लोंगोवाल ने देश के इतिहास को एक दूसरी तरह से लिखने का संकल्प लिया. राजीव गांधी ने जहां इंदिरा गांधी का राजनीतिक उत्तराधिकार छोड़ा, वहीं संत लोंगोवाल ने सतत मुठभेड़ की राजनीति को एक ऐतिहासिक पूर्ण विराम दिया है. दोनों राष्ट्रीय बधाई के पात्र हैं. इतने कटु अतीत की चिता पर अगर सद्भाव के फूल खिल सकते हैं, तो हिंदुस्तान की किस समस्या का समाधान नहीं हो सकता है.

24 जुलाई का समझौता इस मामले में भी ऐतिहासिक है कि आजादी के बाद पहली बार किसी आंदोलन को राज्यसत्ता ने मान्यता दी है और आंदोलकारियों ने भी अपनी जिद छोड़ कर राष्ट्रीय भावना का सम्मान किया है. इसमें कोई शक नहीं है कि चार वर्षों से पंजाब की स्थिति जिस तरह लगातार बिगड़ती जा रही थी, उसने देश के जनमानस को झकझोर दिया था और लोग यह मान कर चल रहे थे कि उत्तर-पूर्व की तरह उत्तर-पश्चिम भी अब अशांति की आग में जलते रहने को अभिशप्त है. हताशा इतनी गहरी थी कि पंजाब समझौते की घोषणा के बाद जहां देश भर में आम तौर पर इसका स्वागत हुआ, वहीं लोगों की जबान से यह स्वत:स्फूर्त सवाल भी निकला कि क्या सचमुच पंजाब समस्या का समाधान हो गया?

खुशी से विभोर हो जाने की घड़ी में भी अगर किसी को लगता है कि राजीव गांधी ने सिखों के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया है या संत लोंगोवाल शांति के लिए केंद्र के सामने झुक गये हैं, तो इसका मतलब है कि सिख आंदोलन के सांप्रदायिक पहलू उसके राजनीतिक अभिप्रायों पर हावी हो चुके हैं और कहना न होगा कि सांप्रदायिक सद्भाव कायम होने में राजनीतिक सद्भाव से कहीं ज्यादा वक्त लगेगा. लेकिन इससे राष्ट्रीय राहत की वह भावना कम महत्वपूर्ण नहीं हो जाती, जिसने पंजाब की स्थिति से चिंतित सभी भारतीयों का तनाव अचानक शांत कर दिया है.

‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के दौरान भी राष्ट्र ने एक तरह की राहत की सांस ली थी और उम्मीद की थी कि सिख उग्रवाद का अब अंत हो जायेगा. आशा करनी चाहिए कि रात की मौजूदा लहर उस राहत से ज्यादा स्थायी साबित होगी और देश को विघटन से बचाने और मिल-जुल कर भविष्य का रास्ता बनाने की मौजूदा मन:स्थिति आगे भी कायम रहेगी. आपसी विवादों के निपटारे और इतिहास के रथ को आगे बढ़ाने का कोई और लोकतांत्रिक रास्ता भी नहीं है.

राजीव गांधी को इस बात के लिए बधाई मिल रही है कि उन्होंने अपने को एक सक्षम राजनीतिज्ञ साबित किया है, तो यह बिल्कुल जायज है. चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने यह वादा किया था कि सरकार में आने के बाद पंजाब उनकी पहली प्राथमिकता होगी और अपना यह वादा उन्होंने पूरा भी कर दिया है. अकाली आंदोलन से संबंधित लगभग हर मांग पर उन्होंने अपने विचार कई-कई बार बदले हैं- न केवल आनंदपुर साहिब प्रस्ताव के चरित्र के बारे में, बल्कि दंगों की जांच की जरूरत और भगोड़े सैनिकों के साथ किये जानेवाले सलूक के बारे में भी और अंतत: उस बिंदु पर आये हैं, जहां वे अकाली नेताओं को स्वीकार्य हो सके हैं.

इसी तरह अकाली नेता संत लोंगोवाल ने भी जोधपुर की जेल से बाहर आने के बाद एक लंबा सफर तय किया है और उन रास्तों की तलाश करने के लिए तैयार हुए हैं, जिनसे सिख भारत में सम्मान के साथ रह सकते हैं. यह क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों पर सद्भाव की विजय है, जिससे राजनीति में लचीलापन आता है और वह गैंडे की तरह नाक की सीध में बढ़ने को ही एकमात्र रास्ता नहीं मानती.


लेकिन यह बात भी याद रखनी चाहिए कि आज हम जो सद्भाव देख रहे हैं, वह सौहार्द की उपज नहीं, बल्कि राजनीतिक विवशता है. पंजाब को चंडीगढ़ लोंगोवाल ने नहीं, परिस्थिति ने दिलवाया है. यह समझना कि राजीव गांधी ने सिख आतंकवाद के आगे घुटने टेक दिये हैं. एक राजनीतिक समझौते को सांप्रदायिक चश्मे से देखना है, लेकिन यह भी सच है कि केंद्र समझौते की मेज पर इसीलिए आया कि पंजाब आंदोलन के पीछे आतंकवाद की छाया लगातार गहरी और बड़ी होती जा रही थी. जीवित भिंडरावाले जो काम नहीं कर सके, उनके भूत ने उसे यह अंजाम दिलाया है. अगर यही समझौता आज से दो या तीन वर्ष पूर्व हो जाता, तो सिख आतंकवाद को पनपने का मौका ही नहीं मिलता.

बहरहाल, अब होगा यह कि जिस बंदूक के धुएं से अभी तक केंद्र अकेला लड़ रहा था, सिख समाज भी उसके मुकाबले खड़ा हो जायेगा और सांप्रदायिक हिंसा की यह उपधारा अपनी राजनीतिक जमीन खो देगी. संत लोंगोवाल का नेतृत्व जिन लोगों ने स्वीकार किया है, उन्हें पंजाब समझौते ने यह महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका भी सौंपी है. कहना न होगा कि लोंगोवाल भी थक कर, ऊब कर और निराशा के बढ़ते हुए सायों से घबरा कर ही मुठभेड़ की राजनीति के परित्याग के रास्ते पर आये हैं. उनके चेहरे पर आज तो मुसकान है, वह खून और आंसुओं से भीगी हुई है. उनकी यह मुसकान तभी बरकरार रह सकती है, जब वे पंजाब समझौते को एक सही शुरुआत मान कर आगे की रणनीति तय करेंगे और देश की राजनीतिक दिशा तथा महत्वाकांक्षाओं के साथ तालमेल बैठाते हुए राष्ट्रीय धारा से अपने को जोड़ने की कोशिश करेंगे.


पंजाब में शांति हो, यह सभी चाहते हैं. लेकिन शांति शून्य से नहीं उपजती. उसका एक राजनीतिक-आर्थिक संदर्भ होता है. अगर हम यह उम्मीद करते हैं कि सिर्फ 24 जुलाई के समझौते से ही सामान्य स्थिति लौट आयेगी, तो इसका मतलब है कि हमें खुशफहमियां ही पसंद हैं. सच तो यह है कि चंडीगढ़ तो पंजाब को मिलना ही था- श्रीमती गांधी भी दे रही थीं- और जिन अन्य मांगों पर अंतिम समझौता हुआ है, वे ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ तथा सिख विरोधी दंगों के कारण उपजी स्थिति का नतीजा थीं यानी वे मूल मांगें नहीं थीं. असली मांगें अर्थात रावी-व्यास नदियों के पानी का नये सिरे से बंटवारा तथा राज्य को स्वायत्तता विभिन्न आयोगों और पंच निर्णयों के सुपुर्द पर दी गयी हैं.

जाहिर है, इस तरह एक समझौते से दूसरे समझौते तक की यात्रा तय करने के लिए काफी जमीन छोड़ दी गयी है और यह भविष्य पर निर्भर करता है कि वह यात्रा शांति और सद्भाव से पूरी की जायेगी या संघर्ष और टकराव से. अकाली अगर सचमुच यह साबित करना चाहते हैं कि वे न्याय की तलाश में हैं, तो उन्हें लोकतांत्रिक तरीके से अपनी आगे की लड़ाई लड़नी होगी और केंद्र भी चाहता है कि जो सद्भाव 24 जुलाई को दिखाया गया. वह बना रहे, तो उसे न केवल विवादग्रस्त मामलों पर उदार नजरिया अपनाना होगा, बल्कि सिख-विरोधी हिंदू सांप्रदायिकता पर भी बराबर पानी के छींटे मारने होंगे.


क्या अकाली भी अपनी पिछली गलतियों का परिमार्जन कर संसदीय लोकतंत्र में हिस्सेदारी कबूल करेंगे? पंजाब समझौते के तुरंत बाद संत लोंगोवाल ने इस सवाल का कोई जवाब नहीं दिया और केंद्र की ओर से भी ऐसा कोई इशारा नहीं मिला, जिससे लगे कि पंजाब में चुनाव नियत समय पर संपन्न हो जायेंगे. लेकिन पंजाब समझौते की अगर कोई तार्किक परिणति है, तो यही कि अब अकाली आंदोलन के विभिन्न मुद्दों पर पंजाब की जनता को भी अपनी राय व्यक्त करने का असर मिलना चाहिए.

इस बात की निश्चित आशंका है कि जैसे ही चुनाव का माहौल नजदीक आया, दिल्ली में प्रदर्शित सद्भाव हवा में घुल जायेगा और इंका तथा अकाली दल एक-दूसरे के खिलाफ विष-वमन शुरू कर देंगे, लेकिन इसका एक रचनात्मक पहलू यह भी है कि मतदाताओं के दरबार में दोनों को ही बड़ी जिम्मदारी के साथ पेश होना होगा और इस प्रक्रिया में उनका रवैया भी बदलेगा. लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह है कि क्या अकाली पंजाब में तभी शांति रहने देंगे, जब वह उनकी एकछत्र सत्ता स्थापित हो जायेगी? जाहिर है, अकाली अगर पंजाब विधानसभा में बहुमत हासिल कर लेते हैं, तो संभव है कि केंद्र के प्रति उनका रवैया भी वैसे ही लचीला हो जाये, जैसे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का पश्चिम बंगाल में हो चुका है, लेकिन अगर उन्हें स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो? क्या वे लोकतांत्रिक तरीके से इंका को पंजाब में राज करने दे सकते हैं? और, क्या इंका पंजाब में अकालियों को बरदाश्त करना सीखेगी? यह मुद्दा इसलिए इतना महत्वपूर्ण है कि पंजाब समस्या केवल कुछ राजनीतिक और आर्थिक मांगों का नतीजा नहीं है, बल्कि उसके पीछे राजनीतिक वर्चस्व का संघर्ष भी है.


अकालियों ने सभी संसदीय पीठों का बहिष्कार कर संसदीय राजनीति के प्रति अपना अविश्वास घोषित किया हुआ है. जरूरत है कि वे देश की संसदीय राजनीति में वापस लौटें. तब उनके आंदोलन का चेहरा भी बदल जायेगा और वे उन संकीर्णतावादी भटकावों के शिकार भी नहीं होंगे, जिनके कारण उन्हें काफी क्षति उठानी पड़ी है. 24 जुलाई का समझौता सिर्फ केंद्र और आंदोलकारियों का समझौता नहीं, बल्कि दो राजनीतिक दलों का समझौता भी है और अगर उससे पंजाब में राजनीतिक सह अस्तित्व का कोई रास्ता निकलता है, तो वह उसकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी.

इसमें कोई संदेह नहीं कि पंजाब की स्थिति तेजी से सामान्यता की ओर लौटे, तब भी कुछ लोग अपनी डफली अलग बजाते ही रहेंगे. यह वे लोग हैं, जिन्हें न तो सिख समाज से कुछ लेना-देना है और न भारतीय राष्ट्र से. बाबा जोगिंदर सिंह और आतंकवादी इसी प्रकार के लोग हैं. अभी तक इन्हें राजनीतिक जमीन मिली हुई थी, तो इसीलिए कि केंद्र का रुख दमन और दबाव का था. अब जबकि वह हिमशिला पिघली है, उम्मीद करनी चाहिए कि खालिस्तान की ओर जानेवाली पगडंडी धीरे-धीरे गुम हो जायेगी. लेकिन इसके लिए सिर्फ वह राजनीतिक चातुर्य काफी नहीं होगा, जिसके कारण पंजाब समझौता संभव हो सका है.

पंजाब के राज्यपाल के रूप में अर्जुन सिंह ने जिस लगन और तत्परता से दो विरोधी शिविरों को एक मंच पर ले आने में सफलता पा सकी है. इसकी सीमाएं हैं. अंतत: तो एक अहिंसक न्यायपूर्ण और संघात्मक ढांचा ही देश की एकता और अखंडता को बचा सकता है. यह समझौता उस दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है, अगर सद्भाव के साथ सार्थक राजनीति भी जुड़े. शांति की अवधि दो युद्धों के बीच की तैयारी की अवधि में न बदल जाये. इसके लिए सभी को कोशिश करनी होगी.

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