-हरिवंश-
वस्तुत: कोयलांचल के मौजूदा अर्थतंत्र के प्रतिफल हैं, ये माफिया गिरोह. धनबाद और आसपास के इलाके में कोई भी ऐसा व्यवसाय नहीं है, जिस पर माफिया गिरोहों का आधिपत्य न हो. ताकत और आतंक के बल ही जहां पैसे कमाना संभव है, वहां ऐसे गिरोहों का जनमना अपरिहार्य है. इन पेशों में कोई भी नया आदमी घुसने का साहस ही नहीं कर सकता. धनबाद के आसपास रोजगार आरंभ करने के लिए बुनियादी शर्त है, ‘अंडरवर्ल्ड की महत्वपूर्ण हस्ती होना’ अगर धनबाद के चर्चित माफिया नेता खत्म भी हो जायें, तो उनके पीछे उनकी जगह लेने के लिए एक लंबी कतार खड़ी है. कोयलांचल के विभन्नि धंधे कैसे माफिया गिरोहों के लिए दुधारू गाय हैं और किस तरह ये लोग इन पर काबिज हैं, बता रहे हैं हरिवंश.
कोयलांचल में ऐसे अंतर्जातीय विवाह अकसर होते रहे हैं. लेकिन इस बार प्रशासन थोड़ा सतर्क था. बीसीसीएल ने इन आवेदनों के संबंध में जिला प्रशासन को आगाह किया. इसकी जांच हुई. पता चला आवेदन देनेवाली दोनों आदिवासी महिलाओं में से एक को कोई लड़की ही नहीं है. दूसरी महिला को आठ वर्ष की लड़की है. दोनों आदिवासी हैं, लेकिन इनके कथित दामाद धनबाद के एक दबंग नेता के नजदीकी रिश्तेदार और बलिया के बाशिंदे हैं. कोयलांचल में ऐसे जाली दामादों और पुत्रों की संख्या एक आकलन के अनुसार 10 हजार से कम नहीं है. हरिजन-आदिवासी युवतियों और सवर्ण राजपूतों-ब्राह्मणों के बीच सर्वाधिक शादियां (सरकारी कागजों पर) इसी इलाके में हुई हैं.
बिहार को रूढ़िवादी, जातिवादी, अनुदार और पिछड़ा करार करनेवाले ऐसी शादियों के आंकड़े देख शायद दांतों तले अंगुली दबा लें. लेकिन सरकारी फाइलों में दबी यह सच्चाई इस औद्योगिक इलाके में मौजूद सामंती प्रवृत्ति का किस्सा बयान करती है. हाल ही में निरसा की गुंजरा बौरीन ने प्रशासन से अनुरोध किया कि सुभाषचंद्र हलधर नामक आदमी उसका दामाद बन कर कोलयरी में काम कर रहा है. जांच हुई. वह पकड़ा गया. ऐसे अनगिनत मामले हैं. वस्तुत: फर्जी तरीके से नौकरी पाये ये जाली दामाद और पुत्र धंधा कुछ और करते हैं. नौकरी इनके लिए नकाब है. कोलयरी में किसी तरह घुसना, ऐसे लोगों का मकसद है. फिर ये लाभकारी जगहों पर अपनी तैनाती (पोस्टिंग) कराते हैं.
बढ़िया कोयला चोरी कराने में मदद करते हैं. श्रमिकों को धमकाते हैं और मजदूरों के नेता बन जाते हैं. बीसीसीएल के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार ऐसे ‘फर्जी तरीके से नौकरी हथियानेवाले केवल तनख्वाह लेने कोलयरी में घुसते हैं. दिन भर रंगदारी वसूलते हैं. पहलवानी करते हैं और डंडा के बल पैसा कमाते हैं.’ उक्त अधिकारी ने तर्क दिया कि धनबाद ही शायद एकमात्र अनोखा शहर है, जहां सब्जी बेचनेवाले भी कंटेसा कार रखते हैं.
धनबाद के युवा और ईमानदार उपायुक्त मदन मोहन झा की तत्परता और प्रशासन में सुधार लाने की उनकी प्रतिबद्धता के कारण इस वर्ष सितंबर तक करीब 45 सूदखोर पकड़े जा चुके हैं और 41 फरार हैं. सूदखोरी से त्रस्त लोगों में 90 फीसदी पिछड़ी जातियों के स्थानीय हरिजन और आदिवासी हैं.
वहां के कैशियर ने दोनों से 1300 रुपये के भुगतानपत्र पर अंगूठे के निशान लिये. लेकिन एक धेले का भी भुगतान नहीं किया. दोनों ने धनबाद के उपायुक्त से लिखित शिकायत की. कैशियर पकड़ा गया. सूदखोरों का संबंध बीसीसीएल में पैसे भुगतान करनेवाले कर्मचारियों से है. सूदखोरों से निश्चत रकम ले कर ये कैशियर सूदखोरों द्वारा बताये गये लोगों के वेतन या मजदूरी में से कटौती करते हैं. अधिकांश सूदखोर तो बीसीसीएल में ही नौकरी करते हैं. इसलिए वहां के कामगारों को उधार दे कर ये लंबे अरसे तक उन्हें बेरोकटोक चूसते रहते हैं. चूंकि अधिकतर सूदखोर खूद लठैत और मजदूर नेता हैं, इस कारण मजदूर उनके खिलाफ आवाज भी नहीं उठा पाते हैं.
श्री सक्सेना ने अपनी गोपनीय सर्वेक्षण रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि बीसीसीएल के सदस्यों के सहयोग से यहां सूदखोरी का धंधा चल रहा है. सूदखोर श्रमिकों का परिचय पत्र और वेतन विवरण पत्र हथिया लेते हैं. मजदूरी के दिन वे सीधे कार्यालय से ही पैसा ले लेते हैं. स्थानीय जिला प्रशासन अगर मुस्तैद रहा, तो यह वसूली मजदूरों के घर से ही होती है. प्राप्त विवरणों के अनुसार झरिया इलाके में 3000 सूदखोर हैं और इनके पास 10,000 लठैत हैं. राष्ट्रीयकरण के पहले खदानों में ‘माइन सरदार’ का पद होता था. वस्तुत: ये ‘सरदार’ खदान मालिकों के लठैत होते थे. मजदूरों को एक नहीं होने देने, उन्हें डराने-धमकाने और दूर-दूर से दिहाड़ी मजदूर लाने का काम ये लोग करते थे. बदले में खदान मालिक इन्हें ठेके देते थे. ये लोग ही बाद में मजदूर नेता-रंगदार और माफिया सरदार हो गये.
श्री सक्सेना ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि राष्ट्रीयकरण के बाद मजदूरों की मजदूरी में जो बढ़ोत्तरी हुई. उसका लाभ ‘सरदारों’ और ‘मजदूर नेताओं’ को ही मिला है. सूदखोरों के चंगुल में फंसे बहुसंख्य पिछड़े, हरिजन और गरीब-गुरबा हैं. श्री सक्सेना ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि आरा, छपरा, बलिया और गोरखपुर से आये लठैत ही गरीबों से बलात पैसे वसूलते हैं. इन जिलों से आये कुछ लोगों ने तो सरकारी संस्थानों में अपनी बढ़िया नौकरी छोड़ कर सूदखोरी का धंधा ही अपना लिया है. ये लोग मजदूरों के रिटायर होने के बाद उनका ‘प्रोविडेंट फंड’ हजम कर लेते हैं. इनके तौर-तरीकों को नजदीक से देखने के बाद श्री सक्सेना ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि पैसे वसूलने में ये लोग इतने जालिम और दुराचारी हैं कि कभी-कभी मुझे लगता है बर्बर और हिंसक जानवर इनकी तुलना में अधिक मानवीय और समझदार हैं.
कोयला खदानों में फर्जी तरीके से अपने लोगों को घुसाने और सूदखोरी के अलावा भी धनबाद माफिया की आय के अनगिनत स्रोत है. झरिया के खदानों से निकलनेवाला कोयला ‘स्टील प्लांटों’ के लिए सबसे उपयोगी और बेहतरीन कोयला है. बोकारो स्टील प्लांट, रांची (एचइसीएल) और सिंदरी फर्टिलाइजर इन्हीं खदानों से मिलनेवाले कोयले पर निर्भर हैं.
कोयले की ढुलाई और बालू की आपूर्ति के काम ठेकेदारों को सौंपे जाते हैं. बीसीसीएल इस ढुलाई मद में तकरीबन 10-12 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष ठेकेदारों की जेब में दे रहा है. चर्चित ऑडिटर दास हत्याकांड की जांच अब भी हो रही है. कुछ वर्षों पूर्व अंकेक्षण (ऑडिटिंग) के दौरान ऑडिटर श्री दास ने पाया था कि धनबाद के कुछ कोयला खदानों में मोटरसाइकिल से ठेकेदारों ने बालू ढोया है. जिन स्थानों से धनबाद में ट्रक द्वारा दिन में एक ही खेप बालू पहुंच सकता है, वहां से एक ही ट्रक द्वारा रोजाना ग्यारह खेप बालू ढोने का बिल बनाया गया था. ऐसे फर्जी कागजों पर बीसीसीएल द्वारा कई लाख रुपये भुगतान किये गये थे. राज्य सरकार के कोयला नियंत्रण आदेश के तहत जहां से एक टन कोयला निकाला जाता है, वहां आवश्यकतानुसार 2 से 5 टन बालू भरना आवश्यक है.
लेकिन अमूमन ऐसा होता नहीं. हां, बालू भरने के नाम पर करोड़ों रुपये ठेकेदारों की जेब में जा रहे हैं. श्री दास ने जब यह मामला उठाया, तो उन्हें चुप कराने की कोशिश की गयी. नहीं सुनने पर उनकी हत्या कर दी गयी. माफिया सरदारों ने अनेक बेनामी फर्में बना ली हैं. इन फर्मों को बीसीसीएल से करोड़ों के ठेके मिलते हैं. 1979 में चरण सिंह की पहल पर गृह मंत्रालय ने धनबाद में कानून-व्यवस्था एवं अपराध के संबंध में सर्वेक्षण के लिए एक समिति गठित की. भारत सरकार के वरष्ठि अधिकारी पी. राजगोपालन इस समिति के सर्वेसर्वा थे. उन्होंने गहरी जांच-पड़ताल के बाद अपनी रिपोर्ट में टिप्पणी की, ‘लूट की संस्कृति, धनबाद के सामाजिक और आर्थिक जीवन का अंग बन गयी है.’
इन लोगों द्वारा चुना कोयला भी माफिया सरदारों की आढ़त पर ही पहुंचता है. गृह मंत्रालय की समिति ने पाया था कि एक दिन में एक माफिया सरदार ने अपनी उपस्थिति में 5000 टन कोयला ट्रकों पर लदवाया था. यह कोयला गलत तरीके से माफिया सरदार की आढ़त पर पहुंचा था. गृह मंत्रालय की समिति ने तो एक दिन में एक माफिया सरदार के व्यवसाय का हवाला दिया है, लेकिन ऐसे काम रोजाना हो रहे हैं और सैकड़ों छोटे-बड़े अपराधी रोजाना हजारों टन सरकारी कोयला चोरी कर खुलेआम बेच रहे हैं. यही नहीं, ट्रकों पर कोयले की लदाई रंगदारी (माफिया सरदारों के लिए नजराना) भुगतान के बाद ही संभव है. वस्तुत: कोयले की कीमत के साथ ही कोयला ‘लोडिंग’ का पैसा भी बीसीसीएल वसूल लेता है. लेकिन प्रति ट्रक 500 या 1000 रुपये अतिरिक्त भुगतान करने के बाद ही माफिया सरदारों के रंगदार ट्रकों पर कोयले की लोडिंग कराते हैं.
कोयला नियंत्रण आदेश के तहत कोयले की खरीद-फरोख्त में लगे छोटे व्यापारियों को प्रशासन से लाइसेंस प्राप्त करना आवश्यक है. करीब 7000 ऐसे लाइसेंसशुदा व्यवसायी धनबाद में हैं. ऐसे लोगों के ‘कोयला डिपो’ ऐसी जगह हैं, जहां से कोयले की चोरी रोकना शासन के बूते के बाहर है. प्रतिवर्ष ऐसे व्यवसायियों के पास करोड़ों रुपये का कोयला संदिग्ध तरीके से पहुंचता है. धनबाद स्टेशन से भी काफी मात्रा में ऐसे तत्वों द्वारा ही कोयले की चोरी होती है.
राज्य सरकार ‘हार्ड कोक’ और ‘सॉफ्ट कोक’ बनाने का लाइसेंस भी जारी करती है. माफिया सरदारों की आय का यह एक अच्छा स्रोत है. बढ़िया कोयले के नाम पर घटिया कोयले की आपूर्ति से लाखों की आय हो रही है. कुछ वर्षों पूर्व बिहार राज्य बिजली बोर्ड ने बीसीसीएल से लिखित शिकायत की थी कि उसे कोयले के नाम पर पत्थर, लोहा और मिट्टी की आपूर्ति की जा रही है. वस्तुत: बढ़िया कोयला चोरी से माफिया सरदारों की आढ़त पर पहुंचता है. इन कारणों से अब तक बीसीसीएल महज 396 करोड़ घाटे में चल रहा है. कुछ लोग ‘स्लरी’ का धंधा कर रहे हैं और इस बहाने बढ़िया कोयले की चोरी करा कर करोड़पति बन गये हैं. हाल ही में आयकर विभागवालों ने इस पेशे में लगे एक व्यापारी के यहां छापा मार कर काफी मात्रा में काला धन प्राप्त किया था. इस व्यापारी के इशारे पर बिहार की राजनीति के बड़े-बड़े नाम और रोबदार नौकरशाह उठते-बैठते हैं.
1980 में इंडस्ट्री कोलयरी में अचानक एक आदेश (गोंड/पीओ/डी. लस्टिेड/17/50/1656/दिनांक 9.12.80) निकला. इस आदेश के तहत 26 महिला श्रमिकों को सूचित किया गया कि उनकी जगह उनके दामादों को नौकरी दे दी गयी है. वस्तुत: माफिया सरदार अपने आतंक के बल मजदूरों को नौकरी छोड़ने पर विवश करते हैं. बोराडीह कोलयरी में 10 वर्ष से काम करनेवाला मोती सिंह तेली का कहना है कि अपराधियों ने उसे डरा-धमका कर नौकरी छोड़ने पर विवश किया. उसकी जगह अब एक माफिया सरदार का खास आदमी फर्जी तरीके से नौकरी कर रहा है. राष्ट्रीयकरण के तत्काल बाद 1973 में 117 श्रमिकों को अचानक हटा दिया गया और उनकी जगह दूसरे लोग रख लिये गये.
वस्तुत: फर्जी तरीके से जिन हजारों लोगों को नौकरी मिली है, वे भी अपनी नौकरी का सुख नहीं पाते. वेतन के दिन ही उनके सिर पर फर्जी तरीके से नौकरी दिलानेवाले माफिया सरदार हाजिर हो जाते हैं और अपना हिस्सा वसूल लेते हैं.हाल ही में मोहदा में जाली तरीके से नौकरी हथियाने का एक अदभुत मामला जिला प्रशासन की निगाह में आया है. बिहार कोलयरी मजदूर कांग्रेस (अध्यक्ष, यशपाल कपूर) पिछले 3-4 वर्षों से अपने 26 लोगों को नौकरी दिलाने के लिए काफी जी-तोड़ प्रयास कर रही थी. इन लोगों की दलील थी कि ये 26 लोग वर्षों से कोयला काटने का काम दिहाड़ी मजदूर के रूप में इस कोलयरी में करते रहे हैं.
भारत सरकार के कोयला विभाग के संयुक्त सचिव ने भी इन लोगों को नौकरी देने के लिए बीसीसीएल को पत्र लिखा. वस्तुत: जो व्यक्ति नौकरी दिलाने के लिए सक्रिय था. वह इन सबसे 20-20 हजार रुपये लेकर गलत लोगों को नौकरी दिला रहा था. सच्चाई यह है कि दिहाड़ी पर इस कोलयरी पर काम करनेवाले 26 मजदूर हरिजन व आदिवासी थे. उनकी जगह भोजपुर, बलिया और रोहतास के लोगों को लाया जा रहा था. इसमें बड़े-बड़े ठेकेदारों के लड़के थे. एक डॉक्टर का भी लड़का था. नौकरी पानेवालों की सूची में शामिल करीब 23 लोग काफी पैसेवाले परिवारों से थे, लेकिन इस कोलयरी में ‘लोडर’ और ‘कोयला काटनेवालों’ की नौकरी पाने के लिए बेताब थे. कोलयरी में ये सबसे कठिन काम माने जाते हैं. वस्तुत: नौकरी तो कोयलांचल में एक बहाना है.
किसी तरह बीसीसीएल में घुस कर इसे हर संभव तरीके लूटना उनका मकसद था, जिन 26 फर्जी लोगों को यह नौकरी मिलनेवाली थी, उनमें से 23 राजपूत हैं. जिला प्रशासन को जैसे ही इस संबंध में सूचना मिली, तहकीकात आरंभ हुई. तथ्यों का पता लगने के बाद भी यह मामला अधर में ही लटका है.
हाल ही में पुलिस को प्राप्त एक रिपोर्ट के अनुसार धनबाद के एरिया नंबर 8 में काम करनेवाले बीसीसीएल के 21 कर्मचारी एक माफिया सरदार के धनबाद स्थित आवास और उनके पटना व बलिया के घरों में काम करते हैं. इनमें से 8 लोग बोरागढ़ कोलयरी में हैं, चार भालागढ़ कोलयरी में हैं, बाकी छोरलाडीह, भागाबंध, आदि कोलयरियों में विभिन्न पदों पर तैनात हैं. पर इनमें से एक भी आदमी काम पर नहीं जाता. हां, इनके नाम पर अंगूठा लगा कर या दस्तखत कर इनके वेतन सही जगह पहुंचा दिये जाते हैं. बीसीसीएल के एक अधिकारी के अनुसार विभिन्न खदानों में ऐसे लोगों की संख्या काफी है.
धनबाद माफिया, सामंती सांचे पर टिका मौजूदा अर्थतंत्र का प्रतिफल है. जब तक ऐसे तत्वों के मुख्य आय स्रोतों पर पाबंदी नहीं लगती, कोई भी सरकार इन्हें खत्म नहीं कर सकती. और यह पाबंदी असंभव है. कारण, अब ये माफिया सरदार बिहार की राजनीति को अपने कंधों पर ले कर चलते हैं. हर बड़े नेता, पार्टी की ये आर्थिक मदद करते हैं. चुनाव जितवाने के लिए लठैत भेजते हैं. केबी सक्सेना जैसे ईमानदार अधिकारी की पलक झपकते ही छुट्टी कराते हैं. अब तो बिहार की राजनीति इनकी मुट्ठी में है. बिहार में चाहे सत्ताधारी दल हो या विरोधी, शीर्ष पर धनबाद माफिया के सरदार ही बैठे हैं. यहां अदालत या पुलिस बेअसर हैं. धनबाद के 13 मुख्य मजदूर नेताओं पर तकरीबन 110 पुराने मामले लंबित हैं.
इनमें हत्या के ही अधिक मामले हैं. इन 13 लोगों में से अधिकांश लोग विधानसभा और विभिन्न दलों की शोभा बढ़ा रहे हैं, लेकिन आज तक इन मुकदमों की सुनवाई ही आरंभ नहीं हुई. उधर मजदूर नेता कहते हैं कि हम बेदाग हैं. अदालत के पास हमारे विरुद्ध कोई प्रमाण ही नहीं है. चरण सिंह द्वारा गठित केंद्रीय गृह मंत्रालय की समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 1978 में धनबाद की अदालत में 23,967 मामले विचाराधीन थे, लेकिन उसी वर्ष किन्हीं कारणों से धनबाद में अदालतों की संख्या 23 से घटा कर 16 कर दी गयी. अब कारण भला गृह मंत्रालय की समिति नहीं ढूंढ़ पायी, तो हमारी क्या बिसात है?