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बिहार शोषण का शिकार है

-हरिवंश- बिहार की भूमि पंजाब से उर्वर है. खनिज संपदा की सीमा नहीं, फिर भी देश का सबसे गरीब व पिछड़ा प्रदेश बिहार ही है. 1950-51 में जब पूरे देश में औसत प्रतिव्यक्ति आय 252 रुपये थी, तब बिहार में प्रतिव्यक्ति आय मात्र 186 रुपये थी. 1980-81 में जब पूरे देश में औसत प्रतिव्यक्ति आय […]

-हरिवंश-

बिहार की भूमि पंजाब से उर्वर है. खनिज संपदा की सीमा नहीं, फिर भी देश का सबसे गरीब व पिछड़ा प्रदेश बिहार ही है. 1950-51 में जब पूरे देश में औसत प्रतिव्यक्ति आय 252 रुपये थी, तब बिहार में प्रतिव्यक्ति आय मात्र 186 रुपये थी. 1980-81 में जब पूरे देश में औसत प्रतिव्यक्ति आय 1537 रुपये थी, तो बिहार में मात्र 927 रुपये.

पहली पंचवर्षीय योजना के दौरान बिहार में केंद्र द्वारा प्रति व्यक्ति विनियोग राष्ट्रीय औसत का 46.5 फीसदी था, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर विनियोग औसत 74.4 फीसदी था. छठी योजना में बिहार के लिए यह घट कर 37.5 फीसदी हो गया.

अन्य राज्यों की भांति केंद्र से बिहार को सहायता नहीं मिलती. यहां ऋण-जमा अनुपात राष्ट्रीय पैमाने से काफी नीचे है. देश के लिए यह अनुपात 66.9 है, तो बिहार के लिए 41.2. यानी पूरे देश में बैंक 100 रुपया जमा प्राप्त करने पर करीब 70 फीसदी उसी प्रदेश में विकास कार्यों के लिए लोगों को ऋण देते हैं, तो बिहार में महज 41.2 फीसदी. बिहार के वाणिज्यिक बैकों में कुल जमा करीब 2800 करोड़ रुपये हैं, लेकिन राज्य में लोगों को विकास के लिए मात्र 1,100 करोड़ रुपये ही ऋण दिये गये हैं. बाकी पैसे दूसरे प्रदेशों के विकास में लग रहा है.

1983 तक पूरे देश में 15,000 जनसंख्या पर एक वाणिज्यिक बैंक की शाखा थी, तो बिहार में प्रति 23,000 जनसंख्या पर एक शाखा. बैंकों द्वारा यहां उत्थान का कार्य तेजी से नहीं किया गया है. मसलन, बिहार में प्रति शाखा ऋणी व्यक्तियों की संख्या मात्र 487 है, जबकि पड़ोसी राज्य उड़ीसा में यह संख्या 943 है. यानी बिहार में बहुत कम लोगों को आत्मनिर्भर बनने या रोजगार के लिए ऋण मिला है.

कुछ लोगों का मानना है कि यहां वसूली या ऋण वापसी की स्थिति असंतोषजनक है, बाकी प्रदेशों में सरकारी संस्थाओं द्वारा ऋण के बतौर दी गयी राशि जल्द वापस होती है. बिहार में यह बात नहीं है. ऐसा आरोप अकसर बिहार पर ही लगाया जाता है. सच्चाई यह है कि बिहार में कृषकों को कृषि कार्यों के लिए दिये गये प्रत्यक्ष ऋण में, जून 1982 तक ऋण वापसी की दर 40.6 फीसदी थी, जबकि उड़ीसा में 41 फीसदी व बंगाल में 27 फीसदी.

जिस राज्य में कोशी, गंगा, गंडक, बागमती, सोन, स्वर्णरेखा जैसी नदियां हों, वहां के कृषकों को पानी के लिए अगर आकाश पर निर्भर रहना पड़े, तो इससे बढ़ कर दुर्भाग्य और क्या हो सकता है? केंद्र सरकार ने पंजाब या अन्य प्रदेशों के विकास में जैसा सहयोग दिया है, बिहार को केंद्र से वैसा बरताव नहीं मिला.

देश में सभी आणविक केंद्र बिहार से निकलनेवाली यूरेनियम पर चलते हैं, लेकिन बिहार में आज तक एक भी आणविक केंद्र नहीं लगा है, न भविष्य में लगाने का प्रस्ताव है. बिहार को खनिज पर जो रॉयल्टी प्राप्त होती है, वह भी मामूली है. बिहार में पूरे देश के कुल खनिज का 40 फीसदी उत्पादन होता है, लेकिन पूरे देश में खनिज को दी जानेवाली रॉयल्टी का 14 फीसदी ही बिहार को प्राप्त होता है. कोयले पर जब रॉयल्टी 5 रुपये थी, तब उसका बाजार भाव 25 रुपये प्रति टन था. 11 वर्षों तक इस दर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. बाद में जब कोयले की कीमत 800 फीसदी वृद्धि हुई, तो रॉयल्टी में मामूली 40 फीसदी वृद्धि हुई.

बिहार में प्रतिवर्ष कोयले का उत्पादन करीब 1000 करोड़ रुपये के बराबर होता है, लेकिन 50 करोड़ से अधिक रॉयल्टी नहीं मिलती.

बिहार के राजनीतिज्ञ संकीर्ण मनोवृत्ति के हैं. उन्हें प्रदेश के विकास से कोई वास्ता नहीं, खुद की बेहतरी के लिए चिंता है. पहली बार केंद्र द्वारा राज्य के शोषण का सवाल डॉ जगन्नाथ मिश्र ने उठाने का साहस किया. विधानसभा में उन्होंने विस्तार से आकंड़ा दे कर केंद्र द्वारा राज्य के साथ किये जा रहे भेदभाव के प्रश्न को उठाया, लेकिन कुछ ही दिनों बाद उन्हें यह सच बताने के कारण मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा.

विधानसभा में 2 जुलाई को डॉक्टर मिश्र ने बिहार के साथ हो रहे इस भेदभाव को फिर उठाया है. उन्होंने कहा है सातवीं योजना में राष्ट्रीय स्तर पर प्रति व्यक्ति औसत 1500 रुपये खर्च का प्रावधान है. बिहार के लिए यह राशि मात्र 731 रुपये है. खनिज उद्योगों पर केंद्र द्वारा देर से भुगतान किये जाने पर राज्य सरकार को प्रति वर्ष 20 करोड़ रुपये का घाटा हो रहा है. सरकार द्वारा चलाये जा रहे सार्वजनिक उपक्रमों में बिहारी लोगों का प्रतिनिधित्व 15 फीसदी से घट कर 5 फीसदी हो गया है. बिहार में सर्वाधिक प्राकृतिक संपदा है लेकिन ये चीजें कच्चे माल के रूप में बाहर जाती हैं, इसलिए इन सबका लाभ बिहार को नहीं मिल पाता है.

बिहार में जो थोड़े-बहुत उद्योग लगे हैं, उनकी पूंजी बाहर की है. उनके बिक्री केंद्र, मुख्यालय बाहर हैं. इसलिए इनका लाभ भी बिहार को नहीं मिल पाता है. इतिहास साक्षी है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने बिहार के सामाजिक व आर्थिक विकास को ठप कर दिया. बिहार में मारवाड़ी 1860 के पहले से ही आने लगे. पहले वे पटना व भागलपुर पहुंचे, बाद में पूरे राज्य में फैल गये. दक्षिण बिहार में कोयला व अयस्क उत्खनन के कार्यों में बाहरी लोगों का ही प्रभुत्व रहा.

अबरक के कारोबार में सबसे प्रमुख राजगढ़िया परिवार था. 1978 में गणपति राजगड़िया के पास कलकत्ता में कपड़ा व मिट्टी के तेल की छोटी दुकान थी. तभी उन्होंने हजारीबाग व गया जिले में अबरक का कारोबार आरंभ किया. 1940 तक राजगड़िया परिवार के उद्योगों में 8,000 कर्मचारी काम करते थे, कोयला उत्खनन में फूलचंद्र गोयनका का कार्य सबसे अधिक था. 1880 में फूलचंद झरिया आये व कपड़े के छोटी-सी दुकान खोली. बाद में उनका काम काफी फैला.

बाहर के प्रदेशों से जो पूंजी बिहार में आयी, उससे स्थानीय पूंजी को बढ़ावा नहीं मिला व व्यवसायी वर्ग का विकास बिहार में न हो सका. 1965 में औद्योगिक योजना व लाइसेंस नीति निर्धारित करने के उद्देश्य से गठित आर.के. हजारी समिति ने रिपोर्ट दी कि बिहार में सबसे अधिक पैसा मारवाड़ियों-पारसियों व पंजाबी लोगों ने लगाया है. इन कारणों से बिहार में स्थानीय उद्यमी नहीं पनप सके और राज्य पिछड़ता गया. बिहार में अभी भी एक स्वस्थ परंपरा है. बिहार के लोग क्षेत्रीय भावनाओं के शिकार नहीं हैं. आचार्य कृपलानी, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडिस जैसे लोगों को संसद में भेज कर लोगों ने गर्व का अनुभव किया है. लेकिन लोगों की आर्थिक स्थिति में अगर परिवर्तन नहीं होता, तो विवश हो कर कभी-न-कभी लोग क्षेत्रीय व संकीर्ण मनोवृत्ति के शिकार हो जायेंगे.

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