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आचार्य जी समाजवाद को जीने की कला मानते थे चंद्रशेखर

-हरिवंश- सार्वजनिक जीवन में जो भी आदर्श, उदात्त गुण और मूल्य हैं, इनकी चर्चा ही आचार्य नरेंद्रदेव के स्मरण का पर्याय है. उनके गुणों, विश्लेषक क्षमता, दार्शनिक पक्ष और महानता के बारे में समकालीन दिग्गज नेताओं ने उल्लेख किया है. पंडित जवाहर लाल नेहरू आचार्य जी को अद्भुत प्रतिभा के धनी मानते थे. पंडित जी […]

-हरिवंश-

सार्वजनिक जीवन में जो भी आदर्श, उदात्त गुण और मूल्य हैं, इनकी चर्चा ही आचार्य नरेंद्रदेव के स्मरण का पर्याय है. उनके गुणों, विश्लेषक क्षमता, दार्शनिक पक्ष और महानता के बारे में समकालीन दिग्गज नेताओं ने उल्लेख किया है. पंडित जवाहर लाल नेहरू आचार्य जी को अद्भुत प्रतिभा के धनी मानते थे. पंडित जी के अनुसार उनमें अद्भुत साहस, विद्वता और तेजस्विता थी. उनका स्वास्थ्य कभी अच्छा नहीं रहा, लेकिन इससे उनके साहस और संकल्प अप्रभावित रहे. पहली बार गांधी जी काशी विद्यापीठ समारोह में उनसे मिले, तो उन्होंने श्रीप्रकाश जी से कहा कि आपने ऐसे हीरा व्यक्ति को छिपा कर रखा है. कभी आपने इनके संबंध में कुछ नहीं बताया. आचार्य जी का जीवन संघर्षशील और संत व्यक्तित्व का अनूठा संगम है.

मुझे ठीक-ठाक स्मरण नहीं कि आचार्य जी को पहली बार मैंने कब देखा था, लेकिन व्यक्तिगत रूप से मेरी मुलाकात उनसे 1952 में हुई. उन दिनों रणदिवे जी के प्रयास से कम्युनिस्ट आंदोलन काफी उफान पर था. वे लोग हिंसक आंदोलन चला रहे थे. उस समय पूर्वी उत्तर प्रदेश में खासतौर से बलिया में कम्युनिस्ट पार्टी का बड़ा जोर था. वहां कई ऐसी घटनाएं हुई थीं, जिनमें व्यापक पैमाने पर हिंसा हुई. उस दौर में सोशलिस्ट पार्टी की ओर से एक बैठक काशी विद्यापीठ में आयोजित की गयी. उसमें यह तय किया गया कि सोशलिस्ट पार्टी पूर्वी जिलों में विशेष अभियान चलायेगी.

उस समिति के संयोजक अजीजुल हक अंसारी बनाये गये. यह तय किया गया कि उनके साथ किसी नौजवान को सह संयोजक बनाया जाये. इस संदर्भ में जब चर्चा चल रही थी, तो राजनारायण जी ने मेरे नाम का प्रस्ताव किया. उन दिनों प्रो मुकुट बिहारी लाल काशी हिंदू विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र विभाग के अध्यक्ष थे. राजनीति शास्त्र में शोध-अन्वेषण के सिलसिले में मैं उन दिनों बनारस गया था. प्रो साहब ने मुझे एक विषय भी दिया था. उस पर मैंने काम शुरू भी कर दिया था. प्रो मुकुट बिहारी जी ने कहा कि चंद्रशेखर को इसमें मत फंसाइए. वह शोध कार्य करने जा रहे हैं. उस समय पहली बार आचार्य जी मुझसे कहा, ‘चंद्रशेखर, कहां प्रोफेसर साहब के चक्कर में पड़े हो. देश नहीं रहेगा, तो तुम्हारी थीसिस कौन पढ़ेगा? देश बनाने के लिए कुछ करो.’


इसके बाद अध्ययन छोड़ कर मैं राजनीति में चला आया. व्यक्तिगत रूप से आचार्य जी से मेरा यह पहला संपर्क था. उसके बाद उत्तरप्रदेश के पूर्वी जिलों के युवकों का एक सम्मेलन मैंने बलिया में आयोजित किया. यह सम्मेलन ददरी मेला (बलिया में प्रतिवर्ष लगनेवाला पूर्वांचल का मशहूर मेला) के अवसर पर बुलाया गया. आचार्ज जी ने उस सम्मेलन में आना स्वीकार कर लिया था. यह बात उस समय की है, जब प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) की पहली कांफ्रेंस इलाहाबाद में हो रही थी. उस समय कृपलानी जी सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो रहे थे. अचानक आचार्य जी को दमे का दौरा पड़ा. वह पीडी टंडन के यहां ठहरे हुए थे. मैं मिलने गया, तो आचार्य जी ने कहा कि मैं तो बीमार हो गया, मैं नहीं जा सकूंगा. राममनोहर लोहिया यहां हैं, इन्हें ले जाइए. फिर लोहिया जी बलिया आये. आचार्य जी से मेरी यह दूसरी मुलाकात थी. इसके बाद आचार्य जी के नजदीक आने का मौका मुझे तब मिला, जब लोहिया जी पार्टी छोड़ चुके थे. उत्तरप्रदेश के लगभग सभी जाने-माने लोग उनके साथ चले गये थे. राजाराम शास्त्री पार्टी अध्यक्ष थे, गेंदा सिंह जी मंत्री थे.

राज्य कार्यालय को चलाने का सवाल उठा, तो बेनी प्रसाद माधव जी ने आचार्य जी को मेरा नाम सुझाया. मुझे इसकी सूचना नहीं थी. बलिया से मुझे तार मिला कि मैं तुरंत लखनऊ आकर आचार्य जी से मिलूं. आचार्य जी से मिलने के पूर्व मैंने माधव जी से कहा कि यह पद मैं नहीं संभाल सकूंगा, क्योंकि मेरा यहां कोई परिचय नहीं है, और जो नेता हैं, उनके बारे में बहुत जानकारी नहीं है. राजाराम शास्त्री जी से भी मैंने यही कहा. अंत में आचार्य जी ने पूछा कि क्यों नहीं रहना चाहते हो? माधव जी और शास्त्री जी इस बात पर तुले बैठे थे कि मुझे बलिया छोड़ कर लखनऊ आना ही चाहिए. मैंने स्पष्ट शब्दों में आचार्य जी से कहा कि इन नेताओं से मेरी पटरी नहीं बैठ सकती और बिना इन नेताओं की कृपा के राज्य पार्टी को चला पाना मुश्किल है. आचार्य जी चुप हो गये. फिर मुझसे कहा, ‘कोई नहीं है, तो मैं तो हूं, आपको मेरे ऊपर भी विश्वास नहीं है.’


मैंने कहा कि आचार्य जी, जब आप इस हद तक कहेंगे. तो मेरे पास कोई तर्क नहीं है. इसके बाद मैं संयुक्त मंत्री बन कर प्रादेशिक कार्यालय में आ गया. लेकिन दुर्भाग्यवश कुछ ही महीने बाद आचार्य जी की मृत्यु हो गयी. मैं यह नहीं कह सकता कि उनसे मेरा बहुत घनिष्ठ व्यक्तिगत संपर्क रहा. लेकिन, कुछ महीने जो संपर्क रहा (हालांकि वह आचार्य जी की बीमारी का दौर था) उस दौरान ही गया में पार्टी का एक सम्मेलन हुआ, जिसमें पार्टी थीसिस आचार्य जी ने तैयार करायी थी. इन कुछ महीनों में काफी नजदीक से उनके साथ काम करने और उनकी बात सुनने का मुझे मौका मिला.

एक पिछड़े गांव से आ कर, नीचे स्तर पर साधारण कार्यकर्ता की तरह काम कर के मुझे उच्च स्तर के लोगों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. अगर इसे मेरा अहंकार न माना जाये, तो मैं कहना चाहूंगा कि कोई ऐसा व्यक्ति मुझे नहीं मिला, जिसे देख कर मैं अभिभूत हो गया या यह सोचा कि यह ऐसा व्यक्ति है, जिसके प्रति अनायास श्रद्धा से माथा झुक गया. ऐसे एक ही व्यक्ति आचार्य नरेंद्रदेव थे. इसका कारण यह था कि आचार्य जी केवल सिद्धांतों का निरूपण नहीं करते थे. आचार्य जी कहते थे कि समाजवाद एक राजनीतिक दर्शन नहीं है. यह नयी जीवन विधा है.

जिंदगी को नये ढंग से जीने की कला है. इसको उन्होंने अपने जीवन में उतारा था. आचार्य जी चाहे चांसलर रहे हों या किसी अन्य पद पर, साधारण से साधारण किसान कार्यकर्ता और बड़े से बड़े आदमी का यह समान रूप से स्वागत करते थे. ऐसा व्यवहार, ऐसा आचरण कम से कम अपनी जिंदगी में मैंने किसी और व्यक्ति का नहीं देखा. गूढ़ से गूढ़ प्रश्नों पर वह साधारण कार्यकर्ताओं को उसी तल्लीनता, उसी लगन के साथ समझाने का प्रयास करते. कम समझवाले कार्यकर्ताओं को भी वह ऐसे ही समझाते, मानो विद्वतजन की किसी गोष्ठी में बैठ कर किसी विषय का विवेचन कर रहे हों.

ऐसा नहीं था कि कोई अनजान कार्यकर्ता उनसे कुछ पूछ रहा हो, तो उसे वह तिरस्कार की दृष्टि से देखे. चाहे व्यक्तिगत आचरण हो या किसी विषय की मीमांसा हो, सही अर्थ में समता का जीवन जीने की उनमें अद्भुत कला थी, दूसरी एक बात मैंने उनमें देखी, जिसे मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा. मैंने कभी उनके मुंह से किसी की बुराई नहीं सुनी. बुरे से बुरे क्षण में भी नहीं. मैंने यह देखा था कि जब कोई उन्हें तिरस्कृत करता, तो उसको वह इस ढंग से लेते थे, जैसे कुछ हुआ ही नहीं. एक-दो बार तो मैं देखता ही रह गया कि यह व्यक्ति सचमुच कोई देवता या संत है, जिसके बारे में लोग कहते हैं कि दूसरे के कटाक्ष से या दूसरे की निंदा से उस पर कोई असर नहीं होता. यह शक्ति-क्षमता मैंने आचार्य जी में देखी थी. कितनी ही कटु बात कोई कहे, हंस कर टाल जाना, वह अद्भुत और विलक्षण व्यक्ति थे. दिखाने के लिए वह ऐसा नहीं करते थे.


देश के समाजवादी शिखर पुरुषों में से अधिकतर लोगों में एक तरह की बराबरी या समता थी. इस कारण एक दूसरे को नेता मानना उनके लिए कठिन हो गया था. इनमें एक ही व्यक्तित्व था, जो सबसे ऊपर उठ सकता था. वह आचार्य नरेंद्रदेव का व्यक्तित्व था. लेकिन आचार्य जी प्रारंभ से ही रोगग्रस्त रहे. इस कारण उनके मन में आगे बढ़ कर कोई जिम्मेदारी लेने में हिचक थी. कभी विवाद बढ़ा, तो वह अपना विचार रख कर अलग रहते थे, उसकी अगुआई नहीं करते थे. अंतिम दिनों में जब डॉक्टर लोहिया से झगड़ा हुआ, तो उन दिनों संयोगवश वह भी पीएसपी के अध्यक्ष थे. उस समय जरूर उन्होंने इसे चुनौती के रूप में लिया, अन्यथा जटिल मुद्दों पर केवल अपने विचार प्रस्तुत करने और साधारण लोगों को ऊपर लाने की वह कोशिश करते थे.

समाजवादी आंदोलन को पुख्ता करने के मोरचे पर अपने स्वास्थ्य के कारण वह आगे बढ़ कर कुछ नहीं कर सके. दूसरे समाजवादी नेताओं में डॉ लोहिया और जयप्रकाश जी थे. जयप्रकाश जी में जितनी शालीनता थी, डॉ लोहिया में ठीक उल्टा उतना ही अपनी बातों के लिए जिद्द पर अड़ने की शक्ति. अच्युत पटवर्द्धन जी में विरक्ति का भाव ज्यादा था. यही तीन-चार नेता थे. ऐसे लोगों के बीच एकरसता संभव नहीं थी. मैं किसी व्यक्ति को अच्छाई-बुराई का उल्लेख नहीं कर रहा, बल्कि इनमें से हर व्यक्ति अपने आप में निराला था. अपने तरीके से सोचता था. उनमें आचार्य जी को ही मैं ऐसा व्यक्ति मानता हूं, जो सबको साथ रख सकते थे. दूसरी शक्ति जेपी में थी, लेकिन उनमें भावुकता अधिक थी.

विचारों की दृष्टि से आचार्य जी हमेशा दो-तीन बातें कहा करते थे. वह राजनीति को यथार्थ-वास्तविकता के धरातल पर रखना चाहते थे. कल्पना की ऊंची उड़ान, आदर्श की उदात्त भावनाएं ही राजनीति नहीं है. राजनीति वह भी है जो संभव हो सके. जैसे जेपी सर्वोदय के सिद्धांत से बहुत प्रभावित हो गये, लेकिन आचार्य जी कभी उसे सैद्धांतिक रूप से स्वीकार नहीं कर सकते थे. उनकी मान्यता थी कि बुद्ध जैसे आदमी ने भी कभी नहीं कहा कि सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय, बल्कि बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय का ही नारा दिया. आचार्य जी कहते थे कि जब तक वर्ग है, जब तक आर्थिक स्वार्थों का अंतर है, तब तक कोई ऐसा समाज संभव नहीं, जिसमें सभी लोग सुखी रह सकें, प्रसन्न रह सकें.

एक बड़े समूह को सुखी या प्रसन्न रखने के लिए छोटे समूह के विरोध और गुस्से का भागी बनना पड़ेगा. इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता. आज भी हमारे समाज में यह तथ्य उतना ही प्रासंगिक है. इस संदर्भ में आचार्य जी खुद को मार्क्सवादी कहा करते थे. वर्ग संघर्ष या आर्थिक स्वार्थों का जो टकराव है, वह समाज में हमेशा फूट-विकृति पैदा करता है. इस विकृति का अगर आप समाधान चाहते हैं, तो इसी के साथ आपको आगे जाना पड़ेगा. मुझे याद है, आचार्य जी ने एक बार कहा था (उन दिनों हम लोग संघर्ष अखबार निकाला करते थे) कि शुभ-अशुभ जीवन के ताना-बाना हैं. ऐसा ही जीवन प्रकृति ने हमें दिया है. सुख की शक्तियां विजयी हों, अशुभ की पराभूत हों, यह हमारा प्रयास होना चाहिए. यही संघर्ष पर कार्यकर्ता के लिए एक सही पाठशाला है, जिससे उसको नया ज्ञान, नयी शक्ति और नयी चेतना मिलती है. ऐसा आचार्य जी मानते थे. कोई समाज या राजनीति ऐसी नहीं, जिसमें हम मान लें कि सब अच्छे लोग ही मौजूद हैं. जहां आर्थिक स्वार्थों-वर्गों का सवाल या टकराव होगा, वहीं हमको अपना पक्ष चुनना पड़ेगा. दोनों या सबको प्रसन्न करने की बात नहीं हो सकती. अगर करोड़ों के मन में नयी आशा जगानी है, तो कुछ लोगों को निराश करना पड़ेगा.


राजनीति में आज यह बात हो रही है कि प्रभावशाली वर्ग को प्रसन्न रखो. इसका अर्थ यही है कि जो प्रसन्न हैं, वे प्रसन्न रहें, जो दुखी हैं, पीड़ा में हैं, वे दुख-पीड़ा में ही जीवन गुजारें. इस कटु सत्य को जो अस्वीकार करता है, वह राजनीति में आत्मप्रवंचना का शिकार है. इस आत्मप्रवंचना के मोह में आचार्य जी कभी नहीं पड़े. दूसरी बात, आचार्य जी यह मानते थे कि किसी भी समाज-राष्ट्र में अतीत अपनी मर्यादा, पुराने गौरव के लिए एक सम्मान का स्थान चाहता है. जो रूढ़िगत हो गया है, परंपरावादी हो गया है, जो हमें संकीर्ण बनाता है, उसे हमें अस्वीकार करना चाहिए.

लेकिन कहीं ऐसा न हो कि प्रगतिशीलता की होड़ में हम अपने मूल को ही छोड़ बैठें. अपने अस्तित्व को ही नकार दें. जो यह आत्मविश्वास नहीं रखते, वे जड़ से ही उखड़ जाते हैं. साथ ही आचार्य जी यह भी कहते थे कि जो कौम तरक्की करना चाहती है, वह बराबर नये चश्मों की तलाश में रहती है. वह मानते थे कि कभी अपने सोचने का दरवाजा बंद मत करो, इस कारण आज भी उनके विचार उतने ही प्रासंगिक हैं. हमें अपने अतीत को अस्वीकार नहीं करना चाहिए, जो आवश्यक है, उसमें परिवर्तन करना चाहिए. भविष्य की कल्पना में हमें दुनिया से होड़ लेने की बात करनी चाहिए. उनकी प्रासंगिकता एक दूसरी बात से भी जुड़ी है, जिसे हम आज के राजनीतिक आचरण के संदर्श में देखना चाहेंगे.


विचारों का जितना भी अंतर हो, व्यक्तिगत व्यवहार में हमें कटुता का शिकार नहीं होना चाहिए, जिस कटुता के शिकार आज के राजनीतिज्ञ हो गये हैं. राजनीति से प्रतिरोध एक बात है, प्रतिस्पर्धा दूसरी बात. जो राजनीति में प्रतिस्पर्धा के कारण विरोध करता है, वह राजनीति में विकल्प नहीं दे सकता. प्रतिरोध विचारों के प्रति होता है. प्रतिस्पर्धा, व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण होती है. जो रकीब है, वह विरोधी नहीं हो सकता. रकीब होड़ लेता है, किसी स्वार्थवश इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए. आचार्य जी प्रतिरोध की राजनीति करते थे, प्रतिद्वंद्विता की राजनीति नहीं. आज हमारे राजनेताओं को यह बात सोचनी चाहिए कि किसी व्यक्तिगत कारण से किसी का विरोधी हो जाना विरोध पक्ष की राजनीति नहीं है. ‘विरोध पक्ष’ शब्द का प्रयोग मैं संकीर्ण संदर्भ में नहीं कर रहा. उसी तरह सत्ता पक्ष में जो लोग हैं, उन्हें भी समझना चाहिए कि जो उनके विचारों से सहमत नहीं है, उनके प्रति ऐसी कुत्सित भावना रखना कि वे देश के दुश्मन हैं. ऐसी धारणा राजनीति को ऐसे गर्त में धकेल देगी, जहां लोकतांत्रिक तरीके से काम करना असंभव हो जायेगा. दुर्भाग्य है कि लोकतांत्रिक राजनीति की मौलिक मान्यता को अस्वीकार किया जा रहा है. 80 करोड़ के देश में इस बुनियादी सवाल पर, आचरण के सवाल पर, हमारा दृष्टिकोण साफ नहीं होगा, तो कभी भी हम सफलता के साथ आगे नहीं बढ़ सकते.

सिद्धांत आचरण में आचार्य जी प्रतिमान थे. 1948 में जब वह कांग्रेस से अलग हुए, तो किसी ने उनसे नहीं कहा था, न ही उस समय ऐसी कोई परंपरा थी, बल्कि बिना किसी से कहे एसेंबली की सदस्यता से उन्होंने त्यागपत्र दे दिया. इसे उन्होंने त्याग का जामा पहनाने की कोशिश नहीं की. उन्होंने कहा कि यह एक साधारण राजनीतिक शिष्टाचार है, जिसका हमें निर्वाह करना चाहिए.

आचार्य जी मार्क्सवादी थे. वह कहा करते थे कि समाज में जो दो वर्गों का संघर्ष है, वह ऐतिहासिक सत्य है. यह इतिहास के विकास की प्रक्रिया का आवश्यक अंग है. इसे अस्वीकार करना समाज की बुनियाद समझने में भूल करना होगा. आचार्य जी यह भी कहते थे कि हर राज्य-राष्ट्र की हजारों वर्ष पुरानी विरासत होती है. उस इतिहास से कट कर नया भविष्य नहीं बन सकता. इस संदर्भ में आचार्य जी ने हमारे अतीत में जो कुछ भी शुभ है या जो कुछ हमारी संस्कृति का मानवीय पक्ष है, उसे अंगीकार किया था. उसको उन्होंने समाज के सामाजिक परिवेश में ढालने की कोशिश की. इसी दृष्टि को परखा था. अतीत की उदात्त भावनाओं को आज की राजनीतिक आवश्यकता से उन्होंने जोड़ने की सतत कोशिश की. भारत में सहिष्णुता, आपसी सद्भाव-स्नेह की पुरानी परंपरा रही है. इस संदर्भ में आचार्य जी अनावश्यक हिंसा-कटुता की राजनीति के पक्षधर नहीं थे. मार्क्सवादी होते हुए वह संघर्ष हिंसात्मक ही हो, यह आवश्यक नहीं मानते थे. विचारों के धरातल पर भी यह संघर्ष हो सकता है और इस संघर्ष से ही समाज में स्थायी परिवर्तन संभव है.
(चंद्रशेखर से हरिवंश की लंबी बातचीत के आधार पर)

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