-हरिवंश-
बीमार बिहार को उबारने आये भागवत झा आजाद ने बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में आशाजनक शुरुआत की थी. एक लंबे अरसे के बाद लोगों के अंदर उम्मीदें बंधी कि बिहार पटरी पर लौट सकता है. सामंती रुझानवाले अनुशासनहीन राज्य में, कार्यक्षमता, आधुनिक सोच और अनुशासन की बातें आरंभ से सरकारी मुलाजिमों, अध्यापकों और अफसरों को अटपटी लगीं, लेकिन बिहार समेत पूरे देश में आम लोगों को एहसास हुआ कि भागवत झा आजाद अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ और स्पष्ट हैं.
राज्य में उन्होंने उल्लेखनीय कार्य भी किये. स्थानांतरण उद्योग पर पाबंदी की घोषणा की. सचिवालय में समय से संचिका निष्पादन का समयबद्ध कार्यक्रम तय किया. बिगड़े अफसरों में अनुशासन का डर पैदा किया. औचक निरीक्षण के कारण अफसर अपनी कुरसी पर बैठने लगे. इन कार्यों से बिहार के सचिवालय (जो उद्योग-सौदेबाजी का अड्डा बन गया था) से राजनीतिक दलालों की अनावश्यक भीड़ छंटने लगी.
भागवत झा आजाद का आरंभिक दौर आशा और उत्साह से भरा था. उस दौर में भागवत झा के तीखे स्वर और बेलगाम बातें भी लोगों नहीं चुभती थीं. उन्होंने इंजीनियरों-ठेकेदारों को सही काम न करने पर पैर तोड़ने की धमकी दी. बिहार के इन लुटेरे तत्वों के खिलाफ मर्यादा के बाहर आकर उन्होंने गाली-गलौज की. शिक्षा को उद्योग बनानेवाले अपराधी अध्यापकों को रास्ते पर लाने के लिए भी उन्होंने फूहड़ तरीके से बातें कीं. चूंकि बिहार की जनता इन तत्वों से आजिज आ गयी है. इस कारण इंजीनियरों-ठेकेदारों-अफसरों और अनुशासनहीन अध्यापकों पर भागवत झा को अमर्यादित रूप से बरसते देख कर वह प्रसन्न थी.
पटना में अवैध रूप से जमीन हथियाये अनेक ताकतवर लोगों को आजाद की सरकार ने बेदखल किया. पहली बार अंगरेजपरस्त सर सीपीएन सिंह द्वारा हथियायी भूमि को सरकार ने पुन: हस्तगत किया. अवैध निर्माण गिराये गये. धनबाद माफिया तत्वों के खिलाफ प्रशासन को चुस्त किया. सहकारिता माफिया पर गाज गिरी. भागवत झा आजाद के ऐसे कार्यों से यह आभास मिलता रहा कि वह रुग्ण राज-समाज को ठीक करना चाहते हैं. इस क्रम में उनकी फूहड़ बातचीत और सामंती कार्यशैली के अनेक किस्से सार्वजनिक हुए. लेकिन लोगों ने उन्हें आरंभ में नजरअंदाज किया. मध्य बिहार की समस्याओं को सलटाने के प्रति भी उन्होंने तत्परता दिखायी.
डॉ. विनयन से गोपनीय मुलाकात की. मध्य बिहार के सामंतों को सामंती अंदाज में ही अपने भाषण में डराया-धमकाया. राजनीतिक दलालों को अपने आवास से निकाल-बाहर किया. लेकिन महज गाली-गलौज या उग्र तेवर से प्रशासन नहीं चलता, इस तथ्य को भागवत झा भूल गये. बड़ी-बड़ी बातें करने में ही वह मशगूल रहे, उनके आदेशों का कार्यान्वयन हो रहा है या नहीं, यह जानने की उन्हें फुरसत नहीं मिली. कुछ ही महीनों में उनकी अनेक घोषणाएं ढपोरशंखी साबित हुई. कार्य के स्तर पर वह सिफर साबित होने लगे. प्रशासन और अनुशासन ठीक करने की बातें हवाई घोषणा सिद्ध होने लगी. खुद को ‘ईमानदार’ और अपनी पार्टी के दूसरे लोगों को ‘बेईमान’ मानने की उनकी प्रवृत्ति ने उन्हें दल में भी अलग-थलग कर दिया. जनता के बीच अपनी शाही घोषणाओं-फरमानों से जो उम्मीदें वह जगा चुके थे, वे तुरंत खत्म हो गयीं.
इस कारण प्रशासन के प्रति अनास्था फैली. इसका ज्वलंत उदाहरण था नोन्हीं-नगवां हत्याकांड के बाद वहां दिया गया उनका उत्तेजक भाषण. उन्होंने अपराधियों को सख्त सजा देने की घोषणा की. गांव पर सामूहिक जुरमाने की बात की. आसपास के सामंतों के हथियार जब्त करने का फरमान जारी किया. लेकिन पटना लौटते ही उन्होंने कुख्यात जहानाबाद लॉबी के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. उधर जहानाबाद के पीड़ित लोगों में उम्मीद थी कि हत्यारे तुरंत पकड़े जायेंगे. लेकिन कुछ ही दिनों बाद दमुहां-खगरी में सामंतों और अपराधियों की फौज ने हरिजनों का फिर कत्ल किया. मुख्यमंत्री वहां गये, तो उनके मुंह में कालिख पोत दी गयी.
वस्तुत: यह कालिख शासन में लोगों की अनास्था और मुख्यमंत्री की ढपोरशंखी घोषणाओं के विरोध में पोती गयी. यह कार्य, जनतांत्रिक शासन में जन आक्रोश का गंभीर प्रतीक है. कालिख लगने की घटना से कांग्रेस आलाकमान भी बहुत खफा हुआ. सामंतों को खुलेआम फटकारने और नोन्हीं-नगवां हत्याकांड के हत्यारों को दंड दिलाने के उनके संकल्प के कारण जो माहौल बना था, वह उनकी प्रशासनिक विफलता ने खत्म कर दिया. इसकी जगह मुख्यमंत्री के प्रति नफरत और कांग्रेस के प्रति लोगों के मन में दूरी बढ़ी. आजाद की पुलिस हरिजनों और विनयन के समर्थकों को ही तंग करने लगी.
इससे कांग्रेस के प्रति मध्य बिहार में नफरत बढ़ी. इस चुनौती को स्वीकार करने का काम सीताराम केसरी ने किया. दमुहां-खगरी हत्याकांड के बाद उन्होंने सार्वजनिक रूप से कबूल किया कि हरिजन और पिछड़े कांग्रेस से बिदक रहे हैं. सीताराम केसरी ने वहां बगैर पुलिस संरक्षण के पदयात्रा की. बिहार के दूसरे अशांत इलाकों में भी वह बगैर पुलिस-प्रशासन सहयोग के पदयात्रा करना चाहते हैं. भागवत झा आजाद ने अपनी कार्यशैली और बेतुकी घोषणाओं से जनता को तो नाराज किया ही, साथ ही अपने दल के वरिष्ठ सदस्यों से भी वह उलझ गये. आज बिहार के जो भी वरिष्ठ नेता दिल्ली-पटना में हैं, वे भागवत झा आजाद से खफा हैं और उनके खिलाफ सक्रिय हैं.
आजाद के मुख्यमंत्री बनते ही जगन्नाथ मिश्र और तारिक अनवर ने उन्हें भरपूर समर्थन देने की घोषणा की थी. बिंदेश्वरी दुबे भी उन्हें सहयोग दे रहे थे, लेकिन कमान संभालते ही उन्होंने दुबे जी की पूर्व सरकार पर आक्रमण शुरू किया. इस कारण खामोश बैठे दुबे जी भी आहत महसूस करने लगे. तारिक अनवर जैसे निर्विवाद नेता ने भी बीस सूत्री कार्यक्रम समिति के कार्यकारी अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया. साथ ही सरकार की कार्यशैली से नाराजगी प्रगट की. नागेंद्र झा के इशारे पर आजाद ने जगन्नाथ मिश्र के इलाके में दौरा शुरू किया. इससे जगन्नाथ मिश्र खफा हुए. सीताराम केसरी को आजाद ने पहले ही नाराज कर दिया था. इस तरह कांग्रेस के चोटी के बिहारी नेताओं के खिलाफ श्री आजाद ने नया अनावश्यक फ्रंट खोल लिया. बिहार के सांसदों को पत्र लिखा कि कार्य के लिए वे मुझसे न मिलें, संबंधित मंत्री से बातचीत करें. परिणामस्वरूप कांग्रेसी सांसद भी मुख्यमंत्री से दूर छिटकते गये. एक आकलन के अनुसार महज सात कांग्रेसी सांसद ही भागवत झा आजाद के साथ हैं. विधायकों पर भी मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक मंच से हमला आरंभ किया.
कांग्रेसी असंतुष्ट ऐसे ही अवसर की तलाश में थे. मुख्यमंत्री ने जब अपने व्यवहार से सबको नाराज कर दिया, तो असंतुष्टों ने आजाद सरकार के खिलाफ 16 मुद्दों का शिकायती पत्र तैयार किया और उसे शीला दीक्षित को सौंप दिया. अगस्त में बिहार के 55-56 असंतुष्ट विधायक दिल्ली पहुंचे. एलएन झा ने प्रधानमंत्री से 29 जुलाई को मिलने का समय मांगा. उधर से सूचना मिली की 2 अगस्त को असंतुष्ट विधायकों से प्रधानमंत्री मिलेंगे. आरंभ में मिलनेवालों की सूची में 36 विधायकों के नाम प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजे गये. बाद में यह संख्या बढ़ कर 55 हो गयी. इनमें 50 विधायक बिंदेश्वरी दुबे के समर्थक और पांच डॉ जगन्नाथ मिश्र के खेमे के थे.
प्रधानमंत्री से मुलाकात की औपचारिकताओं के तहत 36 लोग ही उनसे मिल सकते थे. अत: अंतिम समय में इन विधायकों से कहा गया कि आप लोग शीला दीक्षित से मिल लें. शीला दीक्षित ने इन लोगों को बातचीत के बाद ऑस्कर फर्नांडिस से भी मिलने को कहा.
बिहार में आरंभ से ही मुख्यमंत्री और विधानसभाध्यक्ष के बीच विवाद चल रहा था. इसी बीच आजाद की राजनीति विफलताओं ने एक नयी राजनीतिक लड़ाई आमंत्रित कर ली. असंतुष्ट विधायकों के दिल्ली पुहंचने के पहले ही बिंदेश्वरी दुबे और डॉ जगन्नाथ मिश्र के बीच कुछ लोगों ने मुलाकात करायी. इस बातचीत में पुरानी बातों को भुलाने की चर्चा हुई. इन दोनों के बीच मित्रता कायम होने के बाद बिहार की राजनीति में एक और महत्वपूर्ण घटना हुई. कांग्रेस की राजनीति में डॉ जगन्नाथ मिश्र और सीताराम केसरी दोनों दो ध्रुव पर थे. इनमें आपस में नहीं बनती थी. रामाश्रय प्रसाद सिंह ने दोनों के बीच दिल्ली में मुलाकात करा दी. इस तरह जगन्नाथ मिश्र-बिंदेश्वरी दुबे और सीताराम केसरी के बीच राजनीतिक मित्रता कायम हो गयी. बिहार की कांग्रेसी राजनीति के जो भी वजनदार नाम हैं, उन्हें आजाद ने अनायास नाखुश कर दिया है. सत्येंद्र नारायण सिंह उर्फ छोटे साहब अचानक उनके पैरोकार बन गये हैं. बीच में चूंकि एलपी शाही का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए उछला, इस कारण ‘छोटे साहब’ भागवत झा आजाद के खेमे में चले गये.
राजपूतों-भूमिहारों के बीच पुराने संघर्ष के कारण सत्येंद्र बाबू, एलपी शाही को किसी कीमत पर समर्थन नहीं देंगे. इस राजनीतिक गुटबाजी के कारण भागवत झा आजाद के समर्थक विधायकों की संख्या अब महज 26 रह गयी है. मंत्रियों समेत कुल 40 लोग आजाद के साथ हैं.
मौके की तलाश में बैठे विधानसभाध्यक्ष शिवचंद्र झा भी अगस्त के अंतिम सप्ताह में दिल्ली पहुंचे. पहली बार कांग्रेस के सभी वरिष्ठ नेताओं से मिलने में उन्हें कामयाबी मिली. माखनलाल फोतेदार, बिंदेश्वरी दुबे, शीला दीक्षित, केसी पंत आदि के साथ-साथ वह प्रधानमंत्री से भी मिले और आधे घंटे तक बातचीत की. वह राज्य सरकार की कारगुजारियों के खिलाफ विक्षुब्धों के प्रवक्ता के रूप में एक मोटी शिकायती फाइल ले कर दिल्ली गये थे. दिल्ली में मिली कामयाबी से वह काफी प्रसन्न हो कर बिहार लौटे. इसी बीच मुख्यमंत्री खेमे से यह अफवाह उड़ा दी गयी कि विधानसभाध्यक्ष से इस्तीफा ले लिया गया है. इससे भागवत झा आजाद के प्रति दिल्ली का मिजाज और बिगड़ा.
विधानसभाध्यक्ष के दिल्ली दौरे के आसपास ही बिहार के राज्यपाल गोविंद नारायण सिंह (जो खुद सक्रिय राजनीति में लौटने के लिए उतावले हैं) दिल्ली पहुंचे. वहां वह प्रधानमंत्री से भी मिले. राज्यपाल के सूत्रों के अनुसार प्रधानमंत्री से राज्य में नेतृत्व परिवर्तन के संबंध में उनकी बातचीत हुई. प्रधानमंत्री ने उसे संभावित मुख्यमंत्री के नाम पूछे, तो गोविंद नारायण सिंह ने डॉ जगन्नाथ मिश्र और बिंदेश्वरी दुबे के नाम लिये. डॉ जगन्नाथ मिश्र के पक्ष में उनका तर्क था कि वह लोकप्रिय है और चुनाव जीतने में सक्षम हैं. बिंदेश्वरी दुबे के संदर्भ में उनका तर्क था कि वह आलाकमान के प्रति निष्ठावान हैं. दिल्ली के दूसरे महत्वपूर्ण कांग्रेसी नेता भी आजाद से नाखुश हैं. गुलामनबी आजाद और माखनलाल फोतेदार के बीच नहीं बनती. लेकिन ये दोनों एक बात पर सहमत हैं कि बिहार को भागवत झा आजाद नहीं चला पा रहे हैं. गुलामनबी आजाद ने आलाकमान को उनके खिलाफ रपट दी है. शीला दीक्षित भी आजाद सरकार की कार्यशैली से खफा हैं.
उधर डीजी, जेएम कुरैशी के मामले से अर्जुन सिंह लॉबी भी आजाद से चिढ़ गयी है. बिहार को दुरुस्त करने के लिए भागवत झा आजाद कुरैशी को पुलिस का महानिदेशक बना कर लाये थे. बाद में उनके कामकाज में भी उन्होंने दखल दिया. पुलिस अफसरों की मनचाही तैनाती के हुक्म दिये, इससे कुरैशी खफा हो गये. अब वह केंद्र सरकार में या मध्यप्रदेश लौटने के इच्छुक हैं. अब मुख्यमंत्री आजाद बीएन पांडेय को पुलिस महानिदेशक बनाने की कोशिश कर रहे हैं. बिहार की मौजूदा राजनीतिक स्थिति से कांग्रेस आलाकमान भी परेशान हैं. असंतुष्ट पूर्ण विश्वास के साथ कहते हैं कि राज्य में नेतृत्व परिवर्तन अवश्यंभावी है. प्रधानमंत्री के नजदीकी लोग भी यह कबूल करते हैं कि भागवत झा आजाद को जिन उम्मीदों के साथ बिहार भेजा गया था, उन्हें पूरा करने में वे विफल रहे हैं, लेकिन ये लोग यह दलील भी देते हैं कि छह-सात माह के दौरान ही मुख्यमंत्री बदलना फलदायी नहीं होगा. बहरहाल असंतुष्टों ने मुख्यमंत्री के खिलाफ जो गंभीर आरोप लगाये हैं, उससे यह माहौल बन गया है कि मुख्यमंत्री बदले जायेंगे. दिल्ली के राजनीतिक पर्यवेक्षक का एक कयास यह भी है कि मुख्यमंत्री और विधानसभाध्यक्ष दोनों ही साथ-साथ जल्द ही हटाये जायेंगे.
असंतुष्टों ने भागवत झा आजाद के खिलाफ जो आरोप लगाये हैं, उनमें उनके ‘बदजुबान’ होने का हवाला दिया है. महत्वपूर्ण प्रशासनिक पद पर आसीन एक व्यक्ति अगर अनाप-शनाप बके, तो वह व्यक्ति तो हास्यास्पद बन ही जाता है, साथ ही उस पद की गरिमा भी खत्म हो जाती है. उनके ऐसे स्वभाव-खौफ के कारण अफसर स्वतंत्र हो निर्णय नहीं कर पा रहे हैं. वह विधायकों की बात नहीं सुनते. आरंभ में यह सभी मान कर चल रहे थे कि भागवत झा आजाद बिहार में आम चुनाव कराने आये हैं. इस कारण लोग उनसे राजनीतिक चतुराई की अपेक्षा करते थे, पर वह मंत्रियों को भी मिलने का समय नहीं देते. इससे राजनीतिक संवादहीनता की स्थिति पैदा हुई. जनता दरबार में वह कुछ भी बकते हैं. एक दिन उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय से पत्र लेकर आये एक मामूली प्रार्थी को कह दिया कि जब मैं उसकी (राजीव गांधी) मां (इंदिरा गांधी) की बात नहीं सुनता था, तो तुम्हारी क्या सुनूंगा. यह बात प्रधानमंत्री तक पहुंची. कभी-कभार तो जनता दरबार में आये लोगों से भी गाली-गलौज की नौबत आयी. असंतुष्टों का कहना है कि शायद ही किसी मुख्ममंत्री ने सार्वजनिक जीवन में मर्यादा और आचार संहिता का ऐसा मखौल उड़ाया हो.
विक्षुब्धों के अनुसार आजाद ने नौकरशाही के साथ अभद्र सलूक किया. उससे स्थिति और नाजुक हुई. पैर तोड़ने, बरखास्त करने और सामंती न्याय की उनकी घोषणाओं से जो क्षणिक भय पैदा हुआ, काम के मोरचे पर मुख्यमंत्री की विफलता ने उसे धो दिया. असंतुष्टों के अनुसार वह सामंती शैली में राज चलाना चाहते हैं. बिहार आते ही उन्होंने मनचाहे अफसरों की तैनाती के लिए मान्य नियमों का घोर उल्लंघन किया. मुख्य सचिव श्रीनिवासन की जगह, आजाद ने अरुण पाठक को नया मुख्य सचिव बनाया. श्री पाठक से 22 अफसर वरिष्ठ थे. तकनीकी कारणों से इन 22 अधिकारियों के पद भी सरकार को ‘मुख्य सचिव’ के समकक्ष बनाने पड़े. उन्हें मुख्य सचिव की तरह ही सुविधाएं दी गयीं, हालांकि वे अपने पुराने पदों पर ही कायम रहे. उनका दायित्व का कार्य बोझ नहीं बढ़ा. इस तरह पुराने पदों पर रहते हुए, बगैर काम बढ़े ये लोग मुख्य सचिव की श्रेणी में आ गये. ये सभी ‘मुख्य सचिव’ की तरह ही सेवामुक्त होंगे. इस तरह बिहार शायद एकमात्र राज्य है, जहां 22 ‘मुख्य सचिव’ कार्यरत हैं. ये अधिकारी मुख्य सचिव अरुण पाठक द्वारा आहूत बैठकों में शरीक नहीं होते, क्योंकि नौकरशाही में वरिष्ठ-कनिष्ठ होने का अहम बहुत अधिक है. इसी तरह जे एम कुरैशी को पुलिस महकमे में डीजी बनाने पर आजाद सरकार को आइजी स्तर के दस अधिकारियों की प्रोन्नति दे कर डीजी का ‘ग्रेड’ देना पड़ा. फिलहाल बिहार में डीजी स्तर के 11 अधिकारी तैनात हैं. इस अविवेकपूर्ण निर्णय से वरिष्ठ अधिकारियों को अधिक भत्ते-तनख्खाह आदि देने से राज्य सरकार को प्रतिवर्ष 2 करोड़ रुपये का वित्तीय नुकसान होगा. इसके अलावा मुख्यमंत्री नौकरशाही में वर्षों से जमे शक्तिशाली लोगों पर बगैर सुनियोजित योजना के टूट पड़े. बिहार की नौकरशाही में कायस्थों का बोलबाला है. डीएन सहाय इन लॉबी के प्रवक्ता थे. उन्हें रेलवे में भेज कर मुख्यमंत्री ने एक बड़े तबके को नाराज कर दिया.
जल्द निर्णय लेने की उनकी पूर्व घोषणा भी झूठा आश्वासन सिद्ध हुआ. रांची जैसी संवेदनशील जगह में पिछले डेढ़ माह से कोई उपायुक्त नहीं है. हाल ही में सुबोधकांत सहाय के नेतृत्व में जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने रिक्शाचालक बुधुवा उरांव को रांची का उपायुक्त घोषित कर दिया. दूसरी ओर भाजपा के लोगों ने प्रेम मित्तल को उपायुक्त बना कर शहर में घुमाया. सरकार के अफसर डर कर उपायुक्त कार्यालय पर डेरा डाले रहे कि कहीं ये दोनों ‘उपायुक्त’ के सरकारी कार्यालय पर भी कब्जा न जमा लें. विरोधी कहते हैं कि प्रशासनिक पदों का ऐसा मखौल किसी राज्य में नहीं बनाया गया होगा.
आदिवासियों के मोरचे पर आजाद सरकार सोयी हुई है. पिछले दिनों प्रधानमंत्री जब छोटानागपुर आये, तो एक सार्वजनिक सभा में आदिवासी सांसद साइमन तिग्गा ने राज्य सरकार पर आदिवासियों की उपेक्षा-शोषण का आरोप लगाया. प्रधानमंत्री की अगवानी में रांची विश्वविद्यालय के तत्कालीन उप कुलपति रामदयाल मुंडा भी मौजूद थे. बूटा सिंह से श्री मुंडा ने झारखंड समस्या पर लंबी बातचीत की थी. अंतरराष्ट्रीय ख्याति के विद्वान श्री मुंडा का पूरे छोटानागपुर के आदिवासियों के बीच प्रभाव है. वह पहले आदिवासी कुलपति थे, जिन्होंने आदिवासियों की संस्कृति के नाम पर विभिन्न आदिवासी गुटों को एकजुट किया. हाल ही में आजाद सरकार ने उन्हें बरखास्त कर दिया है. कांग्रेस के ही एक नेता का कहना है कि यह कार्य आदिवासियों को बंदूक उठाने के लिए मजबूर करने जैसा है. राज्य सरकार के इस कार्य से आदिवासियों में घोर असंतोष है. सरकार के इस निर्णय के खिलाफ नाराज और उग्र आदिवासी युवकों-युवतियों ने छोटानागपुर के विभिन्न शहरो में बड़े-बड़े जुलूस भी निकाले हैं. उधर रांची विश्वविद्यालय आर्थिक रूप से जर्जर स्थिति में, बंदी के कगार पर है. शिक्षक काफी दिनों तक हड़ताल पर थे. लेकिन सरकार को इस विश्वविद्यालय को सुधारने की सुध नहीं है.
छोटानागपुर में भी कांग्रेस संगठन की स्थिति पुख्ता नहीं है. असंतुष्टों के अनुसार आजाद सरकार के समर्थक ऐसे लोग हैं, जो आदिवासियों के शोषण पर ही टिके हुए हैं. ऐसे तत्वों के कारण अदिवासी कांग्रेस से दूर भाग रहे हैं. इस कारण कांग्रेस का राज्य नेतृत्व से असंतुष्ट खेमा पूरे छोटानागपुर में आदिवासियों के बीच कांग्रेस कार्यकर्ताओं को ‘ग्रासरूट वर्कर’ सम्मेलन आयोजित करने में जुटा है. ये सम्मेलन ज्ञानरंजन, सांसद गोपेश्वर, सांसद दुर्गा प्रसाद जामुदा तथा कुछ और आदिवासी विधायकों की देख-रेख में जोर-शोर से आयोजित किये जा रहे हैं.
दूसरी तरफ झारखंड मुक्ति मोरचा, जनता पार्टी और भारतीय जनता पार्टी छोटानागपुर में नये सिरे से आंदोलन शुरू करने की मुहिम में व्यस्त हैं. हजारीबाग, पलामू और धनबाद की स्थिति कमोबेश मध्य बिहार की तरह हो गयी है. इन क्षेत्रों के गांवों में अतिवादी और नक्सली अपने पांव जमा चुके हैं. असंतुष्टों का कहना है कि दक्षिण बिहार में सुनियोजित नीति के अभाव में कांग्रेस खत्म होने के कगार पर पहुंच गयी है.
कांग्रेस के विक्षुब्धों ने आलाकमान का ध्यान नागेंद्र झा की करतूतों की ओर भी खींचा है. नागेंद्र झा ने मिथिला विश्वविद्यालय में भ्रष्ट तत्वों को तत्कालीन उपकुलपति शकीलुर्रहमान के खिलाफ उकसाया और उनकी बरखास्तगी कराने में कामयाब रहे. वह नागेंद्र झा की बेजा बातें मानने को तैयार नहीं थे. शकीलुर्रहमान के खिलाफ कार्रवाई ने, असंतुष्टों के शब्दों में ‘मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद का असली चेहरा बेनकाब कर दिया है.’ इस बरखास्तगी के विरोध में 15 विधायकों ने प्रधानमंत्री को तार देकर सही तथ्यों से उन्हें अवगत कराया है. नागेंद्र झा 1967 के बाद बगैर कॉलेज गये, अपना प्रमोशन चाहते थे. अपने ‘होनहार’ पुत्र का परीक्षा केंद्र बदलवाने के लिए, उन्होंने कुलपति पर दबाव डाला था. बिहार में परीक्षा केंद्र क्यों बदलवाये जाते हैं, यह छुपी हुई बात नहीं है. श्री झा के समर्थक लोगों ने 20 नेपाली छात्रों से लाखों रुपये लेकर उनके नंबर बढ़ाये थे. कुछ लोग फरजी तरीके से रीडर बन गये थे. शिक्षा जगत के इन अपराधियों के खिलाफ जब शकुलुर्रहमान ने कार्रवाई की तो, उन्हें ही हटा दिया गया.
भागवत झा पर उनके दल के असंतुष्ट यह गंभीर आरोप भी लगाते हैं कि वह राज्य में जातिवाद बढ़ा रहे हैं. उनके आवासीय कार्यालय में सिर्फ मिश्र, उपाध्याय एवं झा लोगों की भरमार है. हाल ही में उन्होंने जनसंपर्क विभाग के निदेशक शफीउद्दीन की जगह मृत्युंजय झा को तैनात किया है. पुलिस अधीक्षकों की तैनाती में भी उन्होंने ऐसी ही पक्षधरता दिखायी है. जिस कारण डीजी कुरैशी से उनके संबंध खराब हुए.
बिहार में शिक्षा और सिंचाई विभाग से बिहार के अनेक ताकतवर परिवार जुड़े हैं. उनके खिलाफ बयान देकर मुख्यमंत्री ने उन्हें नाराज तो कर दिया, लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. इससे उनकी स्थिति और हास्यास्पद हो गयी. उनके सचिव टीएन ठाकुर से भी अफसर-मंत्री नाराज हैं. अगर कोई मंत्री मुख्यमंत्री को नोट भेजता है, तो उस संचिका का निष्पादन टीएन ठाकुर ही कर देते हैं. मुख्यमंत्री का प्रधान सचिव अमूमन कमिश्नर स्तर का अधिकारी होता है. चूंकि टीएन ठाकुर जूनियर हैं, इसलिए उन्हें यह स्तर नहीं मिला. लेकिन मुख्यमंत्री के यहां वह प्रधान सचिव की हैसियत से ही काम कर रहे हैं. श्री ठाकुर की कार्यशैली से अफसरों के साथ कुछ मंत्री भी नाराज हैं. जुलाई के अंतिम सप्ताह में पटना में भावी मुख्यमंत्रियों के सम्मान में काफी गहमागहमी भी रही. भोजों का दौर चला. एलपी शाही और केके तिवारी के सम्मान में आयोजित भोज समारोहों में काफी विधायक शरीक हुए. श्री शाही ने खुलेतौर पर राज्य के मुख्यमंत्री बनने के लिए समर्थन मांगा.
भूकंप के विनाशकारी प्रकोप के दौरान मुख्यमंत्री आजाद ने खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली. उन्होंने राजीव गांधी से दलील दी कि अगर प्रधानमंत्री ही अपने मुख्यमंत्री का बचाव नहीं करेगा, तो उसे कौन मदद देगा! भागवत झा आजाद के कहने पर प्रधानमंत्री ने प्राकृतिक विपदा भूकंप में मरनेवालों की संख्या 164 बतायी और कहा कि बहुत क्षति नहीं हुई है. वहां मौजूद तारिक अनवर और सीताराम केसरी ने आजाद को ऐसा कहने से मना किया. श्री केसरी ने कहा कि आजाद ने मृतकों की संख्या 164 बता कर भारी भूल की है. मुख्यमंत्री की इस गंभीर चूक से कांग्रेस को काफी क्षति हुई. स्वैच्छिक संगठनों ने भरपूर मदद नहीं दी. अंतरराष्ट्रीय संगठन भी मदद के लिए आगे नहीं आये. कांग्रेस और प्रशासन की ‘हृदयहीन छवि’ उभरी. मृतकों की संख्या ले कर अनावश्यक नया विवाद छिड़ गया. बाद में अधिक लोगों के मरने की खबर खुद प्रशासन ने कबूल की. इस बीच देवीलाल अपने हुजूम के साथ भूकंप पीड़ितों की सेवा करने बिहार आये. उन्होंने बिहार सरकार की जम कर छीछालेदर की और राज्य सरकार को चोर बताया. उन्हें किसी ने मुंहतोड़ जवाब नहीं दिया, इससे राजीव गांधी भागवत झा आजाद से और चिढ़ गये. भूकंप में मरे लोगों की गलत संख्या बताने के कारण पहले ही राजीव गांधी, भागवत झा से अप्रसन्न थे. इस संबंध में मुख्यमंत्री से पूछताछ के लिए उन्होंने गोपी अरोड़ा को भेजा था.
पिछले दिनों भागवत झा आजाद अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति की बैठक में भाग लेने दिल्ली गये. पांच दिनों तक वह दिल्ली में ही टिके रहे. इस दौरान उनके त्यागपत्र की अफवाह तेजी से फैली. मुख्यमंत्री के साथ दिल्ली गये, राज्य इंटेलिजेंस के प्रमुख एसके झा पांच दिनों बाद पटना लौटे. पटना लौटने के बाद श्री झा ने अपने मातहत अधिकारियों से राज्य की राजनीतिक स्थिति पर नजर रखने के लिए कहा, दिल्ली से प्राप्त सूचनाओं के अनुसार 7 सितंबर को प्रधानमंत्री ने बिहार में नेतृत्व परिवर्तन के संबंध में वरिष्ठ नेताओं से बातचीत की. विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार राज्यपाल गोविंद नारायण सिंह ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी को राज्य की मौजूदा स्थिति के संबंध में एक विस्तृत नोट भेजा है. राज्यपाल का यह नोट भागवत जा आजाद के खिलाफ सबसे कारगर साबित है.
बिहार के लिए यह दुर्भाग्य ही है कि अच्छी शुरुआत करके भी भागरथ झा आजाद पुराने पचड़ों में उलझ गये हैं. लगता है, आलाकमान अभी कुछ दिनों तक और इंतजार करेगा. इस बीच भागवत झा आजाद की कोई नयी राजनीतिक भूल, उनके लिए खतरनाक सिद्ध होगी.