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झामुमो का हमलावर रुख

-नरेश- अलग झारखंड की लड़ाई अब उलझ गयी है. 25 जुलाई को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने रांची में एक बड़ी जनसभा की. इस सभा में माकपा नेताओं ने घोषणा की कि माकपा बिहार के संथाल परगना और छोटानागपुर के पठारी इलाकों के लिए ‘स्वायत्त जनजातीय परिषद’ गठित करने के लिए आंदोलन चलायेगी. माकपा की इस […]

-नरेश-

अलग झारखंड की लड़ाई अब उलझ गयी है. 25 जुलाई को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने रांची में एक बड़ी जनसभा की. इस सभा में माकपा नेताओं ने घोषणा की कि माकपा बिहार के संथाल परगना और छोटानागपुर के पठारी इलाकों के लिए ‘स्वायत्त जनजातीय परिषद’ गठित करने के लिए आंदोलन चलायेगी. माकपा की इस नयी मांग से अलग झारखंड की मांग को गहरा झटका लगा है. माकपा की इस नयी रणनीति के पीछे बंगाल के शासक मार्क्सवादियों का दिमाग है. पिछले वर्ष पहली बार झारखंड आंदोलन की गूंज बंगाल के आदिवासी इलाकों मिदनापुर, पुरुलिया, झाड़ग्राम और बांकुड़ा में सुनाई दी.

जून के दूसरे सप्ताह में झारखंड मुक्ति मोरचा (झामुमो) के आवाहन पर आयोजित बंद इन इलाकों में सफल रहा. झारखंड समन्वय समिति और झारखंड मुक्ति मोरचा के नेता और समर्थक कलकत्ता में भी कई बार रैलियां और बैठकें आयोजित कर चुके हैं. स्वाभाविक था कि बंगाल-विभाजन की आशंका माकपा के ‘भद्रलोक’ को आतंकित करती. बंगाल में झारखंड समर्थकों की जड़ें फैलते देख माकपा ने अलग रणनीति अख्तियार की. अब माकपा मानती है कि इस इलाके की सांस्कृतिक पहचान बनाये रखने, विकास कार्य तेज करने के लिए स्वायत्त जनजातीय परिषद का गठन की सबसे कारगर विकल्प है. 25 जुलाई की रांची की अपनी विशाल सभा में वरिष्ठ माकपा नेताओं ने अलग राज्य की मांग को अलगाववादी और विघटनकारी बताया.

इसके पूर्व 24 जुलाई को झारखंड मुक्ति मोरचा के नेताओं ने झामुमो में अलग मुसलिम प्रकोष्ठ गठित करने की संभावना व्यक्त की. फिलहाल कुछ दिनों से झामुमो के वरिष्ठ नेता अपना जनाधार पुख्ता करने का अभियान चला रहे हैं. जून के द्वितीय सप्ताह में झारखंड मुक्ति मोरचा के आवाहन पर 16 जिलों में पूर्ण बंद रहा. इस बंद ने स्पष्ट कर दिया कि झामुमो का व्यापक आधार खत्म नहीं हुआ है और झामुमो के अध्यक्ष शिबू सोरेन की लोकप्रियता बरकरार है. झामुमो के उपाध्यक्ष सूरज मंडल के अनुसार विधानसभा से त्यागपत्र देने के बाद फिलहाल उनका दल अपने समर्थक वकीलों, शिक्षकों, व्यापारियों और पत्रकारों की सभा आयोजित करने में व्यस्त है.

धनबाद, गोड्डा, पुरुलिया, देवघर, हजारीबाग, गिरिडीह, दुमका, रांची, लोहरदगा, डालटेनगंज, सिंहभूम, बांकुड़ा, मिदनापुर और साहेबगंज में झामुमो अपने समर्थकों की ऐसी सभाएं आयोजित कर रहा है. इनमें से अनेक जगहों पर सभाओं हो चुकी हैं. श्री मंडल के अनुसार इन सभाओं में विचार-विमर्श का मुख्य मुद्दा है, अलग झारखंड राज्य बनने के पूर्व चुनाव लड़ा जाये या नहीं! ‘‘इन सवालों पर हम जनमत संग्रह का प्रयास कर रहे हैं. इसके बाद हम निर्णायक लड़ाई लड़ेंगे.’’ यह श्री मंडल का कहना है.

9 जून के बंद के दौरान मिली सफलता से झामुमो उत्साहित है. इसके पूर्व सरकार, राजनेता और टीकाकार इस दल को खारिज कर चुके थे. केंद्र सरकार और बिहार सरकार झारखंड के मसले पर बातचीत के लिए आजसू (ऑल झारखंड स्टूटेंड यूनियन) और झारखंड समन्वय समिति को ही प्राथमिकता दे रही थी, लेकिन 9 जून को 24 घंटे के बंद और 10 से 13 जून के बीच आर्थिक नाकेबंदी ने स्थिति बदल दी.

राज्य सरकार की गुजारिश पर आर्थिक नाकेबंदी का कार्यक्रम दो दिन पूर्व ही झामुमो ने वापस ले लिया. लेकिन इस कार्यक्रम के दौरान मुरी स्थित अल्यूमिनियम कारखाना बंद होने के कगार पर पहुंच गया. सीसीएल, बीसीसीएल और इसीएल में कोयला ढुलाई प्रभावित हुई. खास तौर से बीसीसीएल को अधिक क्षति हुई. गिरिडीह-मधुपुर के बीच ट्रेनें नहीं चलीं. इस बंद में मिली सफलता से खुद झामुमो नेतृत्व को आश्चर्य हुआ. इसके पहले आर्थिक नाकेबंदी के तहत रांची और चाईबासा में ही बंद आयोजित होता था. पुरुलिया, बांकुड़ा, संथाल परगना और उत्तरी छोटानागपुर (हजारीबाग, धनबाद और गिरीडीह) में इसका कोई असर नहीं होता था. इस बंद के दौरान छिटपुट हिंसक घटनाएं भी हुईं. लेकिन जहां कहीं भी आंदोलन के उग्रवादी युवकों ने रेल लाइन या सड़क को क्षतिग्रस्त करने की योजना बनायी, इसकी सूचना मिलते ही शिबू सोरेन तत्काल वहां पहुंचे और ऐसा करने से अपने समर्थकों को मना किया. मिहिजाम, जामताड़ा और धनबाद में काफी तादाद में झामुमो कार्यकर्ता गिरफ्तार किये गये. अब झामुमो नेतृत्व जनमत संग्रह के साथ-साथ झारखंड बंद की तैयारी में लगा है. इस योजना के तहत 13 अगस्त तक झारखंड राज्य गठित नहीं हुआ, तो झामुमो 14 से 16 अगस्त से तीन दिनों के बंद का आवाहन किया है.

झारखंड के सवाल पर उलझी राजनीतिक स्थिति को कांग्रेस और जनता दल समझ नहीं पा रहे हैं या समझ कर भी दलगत हितों के कारण खुल कर अपनी राय प्रकट नहीं करते. आदिवासियों को अगर राष्ट्र की मुख्यधारा में सम्माहित करना है, तो बहुराष्ट्रीय दलों को उन्हें तरजीह देनी होगी. 1980 में कांग्रेस ने चुनावी समझौत तक ही झामुमो की उपयोगिता समझी. कांग्रेस और झामुमो के बीच अगर यह समझौता क्षेत्र के विकास और भ्रष्ट नौकरशाहों को दुरुस्त करने तक कायम रहता, तो हालात बदलते. लेकिन इस समझौते से जिन कांग्रेस नेताओं के हित प्रभावित हुए, उन्होंने इसे विफल बनाने की पुरजोर कोशिश की. इसके पूर्व भी कांग्रेस जयपाल सिंह को दल में शामिल कर उनकी लोकप्रियता का लाभ नहीं उठा सकी, जनता दल नेतृत्व भी यही गलती दोहरा रहा है. झामुमो नेशनल फ्रंट में शामिल होने के लिए आरंभ से ही इच्छुक था.

लेकिन बार-बार बातचीत के बावजूद फ्रंट के नेता गोल-मटोल जवाब देते रहे. दिसंबर ’88 से जून तक इस संबंध में बातचीत होती रही. 29 जून को झामुमो के उपाध्यक्ष सूरज मंडल ने इस संबंध में रामराव को लंबी चिट्ठी भी लिखी. दरअसल देश के जो राष्ट्रीय दल हैं, वे खुद अपने संकीर्ण हितों से ऊबर नहीं पाये हैं. आदिवासी, हरिजन या पिछड़ों के संगठनों से महज चुनाव के लिए तालमेल करना अल्पकालिक राजनीति के दृष्टि से अवश्य लाभप्रद है, लेकिन दीर्घकालिक राजनीति या देशहित में नहीं. देश में बड़े दल, जब तक इन दलों को साझीदार बना कर राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समस्याओं के समाधान में इन्हें शरीक नहीं करते, इनसे समान व्यवहार नहीं करते, तब तक आदिवासी संगठन मुख्यधारा में कैसे शरीक होंगे?


20 और 21 जुलाई को जनता दल अध्यक्ष विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर और देवीलाल छोटानागपुर यात्रा पर आये थे. झारखंड समन्वय समिति के नेताओं ने जनता दल के वरिष्ठ नेताओं से अलग झारखंड राज्य के संबंध में बातचीत की. लेकिन जनता दल अपना समर्थन देने के संबंध में आश्वासन नहीं दे सका. माकपा की तरह जनता दल नेतृत्व उधेड़बुन में है. उड़ीसा में दल के वरिष्ठ नेता बीजू पटनायक झारखंड आंदोलन के विरोधी हैं. झारखंड समर्थक उड़ीसा के कुछ जिलों को प्रस्तावित झारखंड का हिस्सा मानते हैं. इससे जनता दल नेतृत्व बीजू पटनायक को नाखुश कर झारखंड समन्वय समिति को ठोस आश्वासन नहीं दे पाया. जनता दल नेतृत्व झामुमो से भी चुनावी समझौते के संदर्भ में बातचीत कर रहा है. जनता दल के रामविलास पासवान और झामुमो अध्यक्ष शिबू सोरेन इस संदर्भ में बातचीत कर चुके हैं. भारतीय जनता पार्टी तो आरंभ से ही झारखंड आंदोलन का विरोध करती है. वह इसके पीछे विदेशी हाथ मानती है. लेकिन वह अलग वनांचल राज्य के लिए आंदोलन भी चला रही है.

झारखंड समन्वय समिति नये सिरे से अपनी स्थिति पुख्ता करने की कोशिश कर रही है. समिति के विभिन्न घटकों में चुनाव में शरीक होने के सवाल पर गंभीर मतभेद हैं. आजसू इस समिति का प्रमुख घटक है. हालांकि इसका जन्म झामुमो के छात्र संगठन के रूप में हुआ, लेकिन आक्रामक तेवर अपना कर इसने झामुमो को ही शिकस्त देने की कोशिश की. पिछले दिनों आजसू के नेताओं ने गृहमंत्री बूटा सिहं से झारखंड मसले पर दिल्ली में बातचीत की. यह बातचीत अचानक हुई. बूटा सिंह ने कहा कि ‘‘ये लड़के दिल्ली आये थे, मुझसे मिलना चाहते थे. मैंने कहा, ठीक है, मिल लेंगे.’’ बूटा सिंह के बयान ने आजसू के आक्रामक छवि को खत्म कर दिया है.

हालांकि गृह मंत्री और आजसू की इस बातचीत के बाद पटना में भी बिहार सरकार और आंदोलनकारियों के बीच बातचीत विफल रही. खबर है कि रामदयाल मुंडा को केंद्र सरकार योजना आयोग के अंतर्गत आदिवासी कल्याण विभाग का सलाहकार बना सकता है या प्रधानमंत्री कार्यालय में उन्हें ‘आदिवासी कल्याण विभाग’ का संचालक बनाया जा सकता है. केंद्रीय गृह मंत्री से उनकी निकटता उल्लेखनीय है. कुल मिला कर झारखंड आंदोलन पुन: अनिश्चितता के दौर में पहुंच गया है.

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