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इजारेदारों के नुमाइंदे हर जगह हैं

-हरिवंश- यदि किसी नारे की सार्थकता, धार और साख खत्म करनी हो, तो उसे यथार्थ-व्यवहार के धरातल पर क्रियान्वयन का प्रयास किये बिना उसका खूब प्रयोग करिए, उसका जादुई प्रभाव खत्म हो जायेगा. इस प्रक्रिया में उस नारे में लोगों के अंतर्मन को उद्वेलित करने की जो शक्ति होती है, वह खत्म हो जाती है. […]

-हरिवंश-

यदि किसी नारे की सार्थकता, धार और साख खत्म करनी हो, तो उसे यथार्थ-व्यवहार के धरातल पर क्रियान्वयन का प्रयास किये बिना उसका खूब प्रयोग करिए, उसका जादुई प्रभाव खत्म हो जायेगा. इस प्रक्रिया में उस नारे में लोगों के अंतर्मन को उद्वेलित करने की जो शक्ति होती है, वह खत्म हो जाती है. खोखले शब्द लोगों के मन-मस्तिष्क पर नहीं ठहरते और बकवास लगते हैं. इसी कारण कर्म और सोच के बीच कम-से-कम दूरी की बात गांधी ने की थी.

आज भारतीय राजनीति में क्रांतिकारी नारे-वायदे अर्थहीन हैं. इंकलाब-समाजवाद की चर्चा गुलाम भारत में लोगों के अंदर आग पैदा करती थी. आज हर कस्बे-नुक्कड़ और सड़क पर लगनेवाले ये क्रांतिकारी नारे उबाऊ हो गये हैं.लेखन में भी कुछ खास शब्दों के व्यापक और अर्थहीन प्रयोग के कारण उनका अवमूल्यन होता है. गांधी जी इससे वाकिफ थे. तीस के दशक में समाजवाद और प्रगतिशील नीतियों की वकालत करनेवाले युवा नेहरू गुलाम भारत में परिवर्तन और बदलाव के पक्षधर माने जाते थे. 1930 के आसपास समाजवाद की चर्चा भारतीय राजनीति में नयी बात थी.

इस शब्द का खूब इस्तेमाल होने लगा, तो गांधी जी ने नेहरू को एक पत्र लिखा. उस पत्र का आशय था कि आज हमारे सामने अंगरेजों को हटाना मुख्य लक्ष्य है. आजाद भारत में समाजवाद के लिए असल और निर्णायक लड़ाई का अवसर आयेगा. गांधी जी के अनुसार स्वतंत्र भारत में समाजवाद के लिए संघर्ष सबसे कठिन लड़ाई होगी. क्योंकि इस संघर्ष में दो प्रमुख गुट होंगे. इजारेदारों समेत व्यवस्था में लाभ कमानेवाला अदना व्यक्ति एक ओर होगा. दूसरी ओर निपट गंवार, अशिक्षित और शोषित जनता होगी. यानी पढ़े-लिखे संपन्न और नौकरीपेशा लोग थैलीशाहों के साथ होंगे. दूसरी ओर अवश, मूक और पीड़ित जनता होगी. आज के भारत का इससे अधिक यथार्थ चित्रण नहीं हो सकता.

बौद्धिक वर्ग, राजनीतिक संगठन और संघर्ष के तथाकथित ठेकेदार, लेखक, शब्दों के कलाबाज ये सभी एक खास वर्ग समूह के हैं. ये अपने बाड़े में सुरक्षित हैं. वर्तमान व्यवस्था से ये लोग हरसंभव लाभ उठा रहे हैं. इनका आपसी संघर्ष-मनमुटाव दिखावा है. बाड़े के उस ओर जो लोग हैं, उनका आज कोई रहनुमा नहीं है. गांधी जी ने 1930 के लगभग यह आशंका व्यक्त की थी कि भारत में जब ऐसी सामाजिक स्थिति होगी, तो बाड़े के उस ओर बसनवाले वर्ग का नेतृत्व करनेवाला कोई नहीं होगा. गांधी जी के अनुसार समाजवाद और परिवर्तन के प्रवक्ताओं के लिए यह अग्निपरीक्षा का समय होगा.

इस अग्निपरीक्षा के समय आज दलितों-शोषितों और पीड़ितों की बात करनेवाला सचमुच कोई नहीं है. पिछले दिनों देश के कुछ मशहूर व्यापारिक घरानों पर आयकरवालों ने छापे मारे. विदेशी मुद्रा नियमन अधिनियम, कस्टम और केंद्रीय राजस्व का उल्लंघन करनेवालों पर भी छापे मारे गये. लेकिन उद्योगपतियों के यहां छापों का सरकारी खेमे से ही विरोध शुरू हो गया है. पिछले दिनों गुजरात में राष्ट्रपति ने भी इन छापों की आलोचना की.

प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार लक्ष्मीकांत झा ने तिरुपति में कहा कि औद्योगिक और व्यापारिक घरानों पर सावधानी और शालीनता से छापे मारे जाने चाहिए. उन्होंने आगे कहा कि इस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए कि समाज में ऐसे लोगों की बदनामी न हो. वस्तुत: राष्ट्रपति द्वारा विरोध या श्री झा की मांग हमारी मध्यवर्गीय मान्यताओं के अनुरूप हैं. हम मध्यवर्गी यह मान कर चलते हैं कि सफेदपोश व्यक्ति अपराधी नहीं हो सकता.

स्टेशन पर भी टिकटचेकर फटेहाल लोगों की तरफ ही लपकता है, क्योंकि उसके मन में कहीं-न-कहीं यह बात बैठी हुई है कि गरीब बेबस और लाचार लोग आदतन अपराधी होते हैं. अधिकारी तो यह खुलेआम कहते हैं कि मवाली ही दंगा करते हैं. यानी इस व्यवस्था में अपराध, तस्करी और हर गलत काम गरीब करते हैं. अत: इनके खिलाफ कार्रवाई से सरकार को शालीनता नहीं बरतनी चाहिए.


यह खुला तथ्य है कि उद्योगपति बड़े पैमाने पर कर-चोरी करते हैं. दशकों से गैरकानूनी हथकंडे अपना कर ये लोग अपनी संपत्ति में इजाफा कर रहे हैं. तब से आज तक किसी ने इनके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठायी? गांव के बनिये को, राशन की दुकान करनेवालों को सरकारी अधिकारी गैरकानूनी कामों के लिए तत्काल दंडित करते हैं, तो गलत हथकंडे अपनानेवाले उद्योपतियों के साथ अलग सलूक की मांग क्यों? क्या इस कारण कि राजनेताओं को ये धन देते हैं? इनकी विशिष्टता, हैसियत कालेधन पर टिकी है. इन्हें सम्मान देने की बात का अर्थ है, कालेधन को, गैरकानूनी हथकंडों को मान्यता देना. अपराधी अपराधी ही रहता है. पैसे, रुतबा और शोहरत से उसका अपराध कम नहीं होता.

वैसे भी इन छापों का यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि यह सरकार क्रांतिकारी सुधारों की पक्षधर है. लोक-लुभावन नारों और एकाध चौंकानेवाले कार्यों के बल पर यह सरकार अपनी छवि बनाये रखना चाहती है. नवंबर 1983 में डी. सी. एम. के प्रबंध निदेशक डॉ चरत राम और इस कंपनी के अनेक वरिष्ठ अधिकारियों के घर छापे मारे गये थे. संसद में सरकार ने स्वीकार किया था कि इस छापे में 1.21 करोड़ रुपये के गोलमाल के मामले मिले हैं. डी. सी. एम. पर छापे से सरकार का एक लाख से अधिक खर्च हुआ. अब दो वर्षों बाद प्रत्यक्ष कर केंद्रीय बोर्ड ने चरत राम के खिलाफ चल रहे मामले को बंद करने का फैसला किया है. कारण डी. सी. एम. के खिलाफ अपराध का कोई मुकदमा नहीं बन रहा है. यह फैसला कैसे हुआ होगा, यह समझने में किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए.

अभी जो छापे पड़ रहे हैं, इनका भी यह हश्र होगा, जो चरत राम के मामले में हुआ. कारण, इस व्यवस्था में हम सब शरीक हैं, जो विषमता की बुनियाद पर टिकी है. शब्दों की जादूगरी या क्रांतिकारी घोषणाएं या क्रांतिकारी नारों पर से लोगों का अब विश्वास उठ गया है.

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