-हरिवंश-
आमूलचूल परिवर्तन के प्रति उनकी ईमानदार प्रतिबद्धता ने आरंभ में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वह नये सिरे से ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वह नये सिरे से अपनी विदेश नीति बनायेंगे. चीन के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ा कर उन्होंने तीन दशक पुरानी अपनी विदेश नीति से मुक्ति पा ली है. रूस-चीन की इस नयी मैत्री से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, खासतौर से एशिया की राजनीति गंभीर रूप से प्रभावित होगी.
आगामी मई माह में गोर्बाचौफ चीन की यात्रा पर जा रहे हैं. वहां उनकी मुलाकात चीनी राजनीति के अपराजेय सूत्रधार तंग श्याओ फिंग से होगी. फरवरी के प्रथम सप्ताह में इस यात्रा और दोनों देशों के बीच सामान्य संबंध बनाने के क्रम में रूस के विदेश मंत्री एडवर्ड बीजिंग गये थे. वहां उन्होंने तंग से मुलाकात की और चीन के विदेश मंत्री से अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों पर द्विपक्षीय चर्चा की. इस बातचीत में दोनों देशों ने अपनी 8000 किमी. सीमा से सैनिक तनाव कम करने के लिए सेना और हथियार हटाने का निश्चय किया. दोनों देशों के बीच गहरे मतभेद का एक प्रमुख कारण है दस वर्षों से कंपूचिया में चल रहा युद्ध.
गोर्बाचौफ-तंग की आगामी ऐतिहासिक मुलाकात के पूर्व 1959 में ख्रुश्चेव और माओ की शिखर वार्ता हुई थी. ठीक 30 वर्ष पूर्व दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के बीच, चीन में बातचीत हुई थी. इसके पूर्व 1959 में रूस के तत्कालीन विदेश मंत्री आंद्रेइ ग्रोमिको बीजिंग गये थे.
50-60 के दशकों में दोनों देशों में प्रगाढ़ता थी. तब अंतर्राष्ट्रीय साम्यवाद की खुमारी शेष थी. उन दिनों दोनों देश हर समस्या की जड़ में पश्चिमी पूंजीवाद को दोष देते थे. लेकिन बहुत जल्द ही यह ‘हनीमून’ खत्म हो गया. आपसी टकराव के बाद चीन ने आरोप लगाया कि रूस पूरे एशिया में ‘सत्ता परिवर्तन और धौंसबाजी की शैतानी चाल’ चल रहा है. 1960-63 की अवधि में चीन की नजर में भारत, अमेरिकी साम्राज्यवाद का दलाल था, लेकिन रूस से मनमुटाव होते ही उनकी दृष्टि में भारत सोवियत संघ का पिट्ठू बन गया. चीन ने यह भी आरोप लगाया था कि बांगलादेश के निर्माण, सिक्किम के घटनाक्रम के पीछे भी सोवियत रूस की शक्ति या प्रेरणा रही है.
कंपूचिया, वियतनाम, लाओस और कोरिया के मामलों में भी दोनों देश एक दूसरे पर साम्राज्यवादी रुख अपनाने की तोहमत लगाने लगे. चीन ने तो यह भी आरोप लगाया था कि सोवियत संघ सिक्यांग और मंगोलिया की सीमाओं पर पृथकतावादी आंदोलन भड़का रहा हैं. वह चीन के बंटवारे का षडयंत्र कर रहा है. दक्षिण-पूर्व एशिया के मामले में दोनों ने एक दूसरे पर खुला प्रहार किया. दोनों तरफ से एक-दूसरे के खिलाफ युद्ध की तैयारी और सैनिक कार्रवाई की खबरें, अकसर उन दिनों अखबारों की सुर्खियां बनती थीं.
साम्यवादी अपने अंतर्राष्ट्रीय एका के मोहक नारे में असलियत को ढंकने का प्रयास करते रहे. वस्तुत: दोनों देशों के बीच मनमुटाव के अनेक कारणों में से राष्ट्रीय पहचान और यूरोपीय अहम प्रमुख कारण रहे हैं. जब चीनी नेता, एशियाई-अफ्रीकी और लातिनी अमेरिका के देशों में क्रांतिकारी आंदोलनों को मदद देने और रूस सहित सभी ताकत संपन्न-समृद्ध गोरे देशों के विरुद्ध विपन्न देशों का संघर्ष तेज करने की बात करते थे, तो रूसियों को ‘एशिया-एशियाइयों के लिए’ जापानी नारा याद हो आता था. रूसी भूल जाते थे कि चीन साम्यवादी देश है. चीनी नेता भी यह भूल गये कि ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ की सुंदर कल्पना के बावजूद राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल दब-ढक नहीं जाते.
रूस के विदेश मंत्री ने अपनी चीन यात्रा के दौरान तंग से भी बताचीत की. इस मुलाकात के उपरांत रूस के विदेश मंत्री ने कहा कि अपनी समस्याओं के बाबत हुई हमारी चर्चा रोचक रही है. रूस के विदेश मंत्री के अनुसार, ‘रूस चीन की यह बातचीत शांति और विकास से जुड़ी है. पिछले वर्ष के अंत तक चीन इस बात पर दबाव दे रहा था कि कंपूचिया से वियतनाम पूरी तरह हट जाये, तब रूस और चीन के बीच बातचीत होगी. बाद में दोनों देश इस मुद्दे पर सहमत हुए कि आपसी विवाद के विभिन्न मुद्दों की समेकित सूची बनायी जाये, और उन पर गंभीर चर्चा हो. इसी बातचीत के तहत तंग और गोर्बाचौफ की महत्वपूर्ण बातचीत होनेवाली है.