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चीन में साम्यवाद का खूनी चेहरा

-हरिवंश- जिस ‘महान’ क्रांति के बाद माओ ने ‘पीपुल्स पॉवर’ (जनशक्ति) के प्रस्फुटन की चर्चा की थी, आज उसी व्यवस्था में उसके उत्तराधिकारी टैंक और बंदूक के बल जनशक्ति के उफान को कुचल रहे हैं. सत्ता और शक्ति, लोक और जन पर हावी हो गयी है. सर्वहारा के तानाशाह, लोकशक्ति-जनशक्ति को निजी स्वार्थ के लिए […]

-हरिवंश-

जिस ‘महान’ क्रांति के बाद माओ ने ‘पीपुल्स पॉवर’ (जनशक्ति) के प्रस्फुटन की चर्चा की थी, आज उसी व्यवस्था में उसके उत्तराधिकारी टैंक और बंदूक के बल जनशक्ति के उफान को कुचल रहे हैं. सत्ता और शक्ति, लोक और जन पर हावी हो गयी है. सर्वहारा के तानाशाह, लोकशक्ति-जनशक्ति को निजी स्वार्थ के लिए अपनी मुट्ठी में रखने का संकल्प कर चुके हैं. उनके इस संकल्प का ही परिणाम है, सामयिक इतिहास की यह सबसे जघन्य घटना.

4 जून को पेचिंग में मदांध शासकों ने 27वीं सैन्य बटालियन को निहत्थे लोगों पर धावा बोलने का आदेश दिया. इसके पूर्व चीनी फौज की 38वीं बटालियन ऐसा आदेश अनसुना कर चुकी थी. इस आदेश के तहत वफादार सैनिकों ने निहत्थे लोगों को टैंकों से रौंदना शुरू किया. साथ-साथ अधुनातन राइफलों-मशीनगनों से अंधाधुंध गोलियां बरसाने लगे. कुछ ही घंटों में शासकीय भ्रष्टाचार के विरुद्ध बगावत करनेवालों की लाशों से सड़कें पट गयीं. लोकतंत्र के समर्थकों के साथ सत्ता विदेशी दुश्मन की तरह पेश आयी. जनमुक्ति सेना (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) जनहंता सेना (पीपुल्स लिक्विडेशन आर्मी) बन गयी. अपुष्ट खबरों के अनुसार इस हमले में अब तक लगभग पांच हजार लोग मारे जा चुके हैं. 10,000 घायल हैं और हजारों की संख्या में लापता हैं.

4 जून को तड़के ही सेना ने अचानक टियामेन चौक पर धावा बोला. सात सप्ताह से इस चौक पर धरना दे रहे छात्र इस हमले से अचंभित रह गये. चौक के दक्षिण और पूर्वी छोर से पांच टैंक एक साथ आगे बढ़े. उनके साथ फौज की नौ ट्रकें थीं, जिनमें से मशीनगनों के माध्यम से छात्रों पर गोलियों की बौछार हो रही थी. इस आरंभिक हमले में पश्चिम के दो-तीन पत्रकार जख्मी हुए. अमेरिका के सीबीएस टेलीविजन नेटवर्क के संवाददाता फोटोग्राफर भी इस हमले में खो गये. अमेरिका में लाखों दर्शकों ने नेटवर्क के जरिये इस आक्रमण का ‘सीधा प्रसारण’ देखा. अगले दिन 5 जून को ‘फासिस्ट नेताओं’ के इस आदेश के खिलाफ जनाक्रोश भड़का, तो सत्ता समर्थक सेना बिल्कुल बर्बर हो गयी.

लेकिन लोगों की भावना से खिलवाड़ करनेवाले क्रूर तानाशाह अपने प्राचीरों में भी सुरक्षित नहीं रहते. 6 जून को एक सैनिक अफसर ने प्रधानमंत्री ली फंग पर गोली चला कर उन्हें मारने का प्रयास किया. खबर थी कि उन्हें गोली लगी है, पर वह खतरे से बाहर हैं. उक्त अफसर ली से कुछ दूर पर खड़ा था. इसके बाद लोकतंत्र के पक्षधर छात्रों की हमदर्द सेना चुप न रह सकी. प्राप्त खबरों के अनुसार 6 जून को सेना के दो डिवीजन के बीच आपस में ही मुठभेड़ हो गयी. छात्रों के एक गुट ने इस खून-खराबे के लिए दोषी राजनेताओं की हत्या के लिए एक दस्ता बनाने की घोषणा की. हालांकि आंदोलन की मुख्यधारा के छात्र नेताओं ने उन्हें बरजा कि ऐसे कार्यों से इस आंदोलन की पवित्रता-संकल्प धूमिल होंगे.

6 जून को ही सरकारी तौर पर बताया गया कि टियामेन चौराहे से लोगों को हटाने की प्रक्रिया में तीन सौ लोग मारे गये हैं. चीनी मंत्रिमंडल के एक प्रवक्ता के अनुसार इस मुठभेड़ में पांच हजार सैनिक और दो हजार नागरिक घायल हुए. चार सौ सैनिक लापता हैं. पेचिंग स्थित एक राजनयिक के अनुसार सेना की 38वीं बटालियन ने 27वीं बटालियन पर हमला किया. इस हमले के फलस्वरूप पेचिंग का जनजीवन ठप पड़ गया. सब्जी बाजार और दुकानों पर लंबी-लंबी कतारें लगने लगीं. फल, सब्जी, मांस आदि आम जरूरत की चीजों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई. उस दिन ही शामहाय, नानचिंग और छागशा में सरकार विरोधी उपद्रव आरंभ हो गये. 7 जून तक आंदोलन की लपटें लगभग चीन के एक दर्जन प्रमुख शहरों तक फैल गयीं. अमेरिकी उपग्रह इंटेलिजेंस की तसवीरों के अनुसार लगभग 3,50,000 सैनिक राजधानी की चौकसी कर रहे हैं. 7 जून को चीन से यह भी खबर आयी कि इस जनसंहार के लिए जिम्मेदार सेना की 27वीं बटालियन को प्रतिस्पर्द्धी बटालियनों ने खत्म कर दिया है. चीन गृहयुद्ध की स्थिति में पहुंच गया है.

पार्टी के पूर्व महासचिव चाओ जयांग की जगह पोलित ब्यूरो की स्थायी समिति के सदस्य क्वि वोशी को नया महासचिव बनाया गया. वोशी इस आंदोलन को क्रूरतापूर्वक दबाने के पक्षधर हैं. इस तरह जयांग की सत्ताच्युत होने की खबर लगभग दो सप्ताह बाद पुष्ट हुई.पेचिंग की इस अराजक स्थिति से राजधानी में भगदड़ मच गयी. दूतावासों में बाहर जानेवालों की लंबी कतारें लगने लगीं. अमेरिकी दूतावास में तो मशहूर वैज्ञानिक डॉ. फैंग ने भी शरण ली. खबर है कि अनेक चीनी बुद्धिजीवी शासकों के कहर से बचने के लिए दूसरे देशों की शरण में जा रहे हैं.

फिलहाल चीन की ‘पीपुल्स डेमोक्रेसी’ (जनतंत्र) के प्रधानमंत्री ली, फौज के बल आंदोलनकारियों की आवाज दबा कर मुदित हैं. सशस्त्र फौज ने निहत्थे लोगों के खिलाफ जो ‘बहादुरी’ दिखायी, उससे आह्लादित होकर 8 जून को वह सार्वजनिक रूप से प्रकट हुए, उसी दिन पेचिंग के ऐतिहासिक ग्रेट हॉल में उन्होंने वफादार सैन्य टुकड़ियों की हौसलाअफजाई की. सैनिकों को संबोधित करते हुए उन्होंने शाबाशी दी, ‘‘कॉमरेड आपने बहुत कठिन काम पूरा किया है. राजधानी की सुरक्षा और व्यवस्था कायम रखने के लिए अभी आपको और कठिन काम करना है.’’

ली की उस हुंकार का वफादार पलटन ने तालियां बजा कर स्वागत किया. टेलीविजन पर सीधे प्रसारण में यह दिखाया गया. अब पेचिंग विश्विविद्यालय और आंदोलन के दूसरे केंद्रों पर सैनिकों को कहर ढाने की अनुमति उन्होंने दे दी है. असंतोष न उभरे, इसके लिए बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हो रही हैं. पेचिंग युद्ध छावनी के रूप में तब्दील हो गया है. हर चौराहे-नाके पर बख्तरबंद गाड़ियां और टैंक शांति कायम करने के लिए चौकस हैं. टियामेन चौक से आंदोलनकारियों के शव हटाने और खून धोने में सरकारी लाव-लश्कर कई दिनों तक जुटा रहा.

लोगों के बीच परिवर्तन की यह छटपटाहट, बेचैनी कितनी गहरी है, इसका परीक्षण अब होगा. ली की सरकार परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्ध ताकतों पर स्तालिन की शैली में प्रहार करेगी. हर आंदोलन में उद्विग्नता और उदासीनता के दौर आते हैं, इस आंदोलन में भी ऐसे पड़ाव आयेंगे. अगर चीन का यह आंदोलन महज भावनात्मक उबाल नहीं था, तो निश्चित ही इसे इस अंधेरे-अत्याचार के दौरान भी परिवर्तन की रोशनी दिखाई देगी.

चीनी शासकों ने माओ की यह उक्ति दोहराने की कोशिश की है कि सत्ता का असली स्रोत बंदूक की नली है. लेकिन इस प्रक्रिया में वे भूल रहे हैं कि मूल शक्तिस्रोत तो जनता है. चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, पोलैंड में सैनिक तानाशाह बहुत दिनों तक लोगों की परिवर्तन की भूख की दबाये रखने में कामयाब नहीं रहे. रूस में अगर गोर्बाचौफ पदारूढ़ नहीं होते, तो रूस कौन-सी करवट लेता, कहना मुश्किल है. सरकारी मुनाफाखोरों के खिलाफ लोगों के जिहाद को खुद चीनी शासकों ने हवा दी. तंग का नारा था कि ‘‘संपन्न होना शानदार है’’ (टू गेट रिच इज ग्लोरियस), जब शीर्ष पर आसीन सूत्रधार ही आदर्श से स्खलित हो जायें, तो समाज में भ्रष्टाचार-विषमता का फैलाव अपरिहार्य है.

संपन्न बनने की इस प्रतिस्पर्द्धा में हेनान आइसलैंड के रास्ते करीब 150 करोड़ डॉलर के पश्चिमी उपभोग की वस्तुएं तस्करी से चीन लायी गयीं. इनमें टीवी, मोटरसाइकिल, आधुनिक कारें और इलेक्ट्रॉनिक्स वस्तुएं शामिल थीं. विभिन्न मंत्रालयों के सरकारी कोषों में बड़े-बड़े घोटाले होने लगे. इन घोटालों और तस्करी में सर्वोच्च नेताओं के स्वजन और शाहजादे निर्लिप्त थे. पश्चिम का उपभोगवाद-बाजार और बहुद्देशीय कंपनियां अगर किसी देश में जगह बनाती हैं, तो महज अपने सामानों से बाजार नहीं पाटतीं. साथ ही इन बाजारों में इन स्रोतों के माध्यम से उद्गम देश के मूल्य और आचार-विचार भी फैलते हैं. फिलहाल चीन के 30,000 छात्र सिर्फ अमेरिका में अध्ययनरत हैं. चीनी शासक आर्थिक सुधारों के जरिये संपन्न बनने के सपने दिखा कर समाज को उन्मुक्त बनाने की कोशिश कर रहे हैं, पर सरकारी भ्रष्टाचार पर पाबंदी नहीं लगा सके.

ऐसे माहौल में पूर्व महासचिव चाओ जयांग ने राजनीतिक सुधारों की पेशकश की. खबर है कि 20 मई को पोलित ब्यूरो की बैठक में उन्होंने नेशनल पीपुल्स कांग्रेस (संसद) और उच्च नेताओं के स्वजनों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कराने का प्रस्ताव रखा. चाओ पर भी अपने दो पुत्रों के साथ पक्षपात करने का आरोप है. इस सुझाव पर तंग भड़क गये. उन्होंने सीधे कहा कि सेना मेरे साथ है. चाओ ने पलट जवाब दिया कि लोगों का दिल मेरे साथ है. उन्होंने त्यागपत्र देने की पेशकश की. लेकिन चतुर चीनी नेता उन्हें शहीद बनने देने के लिए तैयार नहीं थे. इस कारण तत्काल उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया गया. चाओ उक्त बैठक से घर आये. फिर आंदोलनकारी छात्रों के बीच गये. उनका पीछा करते ली भी वहां पहुंचे. छात्रों की सभा से लौटने के तत्काल बाद चाओ को नजरबंद करने की खबर आयी.

दरअसल, इस अस्थिरता के बीज तो दशकों पूर्व चीन में लक्षित होने लगे थे. 1978 में ही चीन के मशहूर असंतुष्ट बुद्धिजीवी वेइ ने लिखा था कि संपन्न बनने के लिए सर्वप्रथम समाज में उत्पादक शक्तियों को आगे बढ़ाने होगा. लेकिन एक बार संपन्नता आ जाने पर तब तक लोग चुप नहीं बैठेंगे, जब तक उन्हें निर्णय प्रक्रिया में साझीदार नहीं बनाया जाता. इस विश्लेषण के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा.

चीन की इस घटना के बाद पश्चिमी मीडिया की साम्राज्यवादी-पूंजीवादी मनोवृत्ति भी स्पष्ट हुई. अधिसंख्य पश्चिमी अखबार-पत्रिकाएं साम्यवाद-मार्क्सवाद को मानव-विरोधी साबित करने पर तुली हुई हैं. उनकी दृष्टि में रूस-चीन या दूसरे देशों में साम्यवादी व्यवस्था का जन्म ही इस संकट का मूल उद्गम है. मानव इतिहास की प्रगति में साम्यवाद एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था का बेहतर विकल्प. अब यह अपने अंतर्विरोध से टूट रहा है, तो इसका विकल्प इतिहास में पीछे लौट कर पूंजीवादी अपसंस्कृति का वरण नहीं है. चीन की घटनाएं मनुष्य के उस मोहक सपने पर सबसे कठोर आघात हैं, जिसे साम्यवाद के रूप में मार्क्स ने दिखाया था. ‘गरीबों के लोकतंत्र’ की बात करनेवाला संभवतया पहला व्यक्ति था मार्क्स, जिसने कहा कि गरीबी का निराकरण संभव है. इससे पहले किसी पैगंबर या धार्मिक आचार्य ने ऐसा प्रतिपादित नहीं किया.

इस घटना के खिलाफ विश्वव्यापी प्रतिक्रिया हुई. अमेरिका, जापान, ब्रिटेन, कनाडा, स्विट्जरलैंड ने चीन को हथियारों की बिक्री पर पाबंदी की घोषणा की. संयुक्त राष्ट्र संघ सचिव ने गहरा खेद प्रकट किया. पोलैंड में छात्रों ने चीनी दूतावास के बाहर धरना दिया. लेकिन लोकतांत्रिक देशों में इस पर जो प्रतिक्रिया होनी चाहिए, वह नहीं हुई. पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी और रूसी फौज के बूटों में चरमराहट की आहट भारत में भी सुनाई दी थी. पूरे देश में इसके खिलाफ गंभीर प्रतिक्रिया हुई. चीन के सवाल पर विभिन्न दलों द्वारा घुमा-फिरा कर राय देने से लगता है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत की लोकतांत्रिक पार्टियां किस कदर मानव विरोधी और संवेदनहीन हो चुकी हैं.

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