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कब मिलेगी हमें बेफिक्र निर्णय लेने की आजादी

रानी सुमिता ranisumita4@gmail.com आज के दौर को स्त्री-विमर्श का दौर कहा जा रहा है, जब हर तरफ स्त्री के विचारों को प्रमुखता देने की पैरवी की जा रही है. अगर हम अपने चारों ओर नजर दौड़ायें, तो आज की स्त्री हर क्षेत्र में नित नये मानदंडों को स्थापित करती दिख रही है. मगर इस पहलू […]

रानी सुमिता
ranisumita4@gmail.com
आज के दौर को स्त्री-विमर्श का दौर कहा जा रहा है, जब हर तरफ स्त्री के विचारों को प्रमुखता देने की पैरवी की जा रही है. अगर हम अपने चारों ओर नजर दौड़ायें, तो आज की स्त्री हर क्षेत्र में नित नये मानदंडों को स्थापित करती दिख रही है. मगर इस पहलू का दूसरा सच यह भी है कि बहुत मामलों में वह आज भी गुलामी का जीवन जी रही है. आजादी के 70 वर्षों बाद भी उसे खुद के लिए छोटे-छोटे फैसले लेने की भी स्वतंत्रता नहीं है.
वर्तमान भारतीय परिवेश में एक स्त्री की शिक्षा को उसके अधिकारों से जोड़ कर देखा जाना चाहिए. यदि आप शिक्षित होंगे, तो अपने आधिकारों के प्रति अवश्य जागरूक भी होंगे. एक भारतीय स्त्री के जीवन-चक्र को तीन से चार मुख्य स्तरों में बांटा जा सकता है-
हमारे भारतीय समाज की स्त्रियों को ये सारी सहूलियतें प्राप्त हैं या नहीं, इस संबंध में यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड एवं नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लायड इकोनॉमिक रिसर्च इंस्टिट्यूट के तहत किये गये एक सर्वे में बेहद चौंकानेवाले तथ्य सामने आये. संस्थान ने वर्ष 2004-2005 एवं वर्ष 2011-2012 में भारतीय महिलाओं के निर्णय लेने के स्वतंत्रता विषय पर एक सर्वे किया.
सर्वे इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट द्वारा किया गया. इसमें पता लगाने की कोशिश की गयी कि क्या नित नये आयाम रचती भारतीय स्त्रियों को स्व-निर्णय लेने की स्वतंत्रता है अथवा नहीं? क्या वह सशक्त है एवं आत्मनिर्भर हैं? क्या स्त्री की साक्षारता स्तर उसे इस काबिल बना देती है कि घर और समाज में कम-से-कम स्त्री से संबंधित फैसलों पर उसकी हामी आवश्यक समझी जाये.
क्या है स्त्री का शिक्षा स्तर
किन बातों में स्त्री को नहीं है स्वतंत्रता
सर्वे बताता है कि स्त्री शिक्षित हो, तो भी उसे अपने जीवन के सबसे अहम फैसला लेने यानी जीवनसाथी का चुनाव करने या फिर अपने विवाह संबंधी फैसले लेने या इस निर्णय में सहभागी बनने की इजाजत नहीं.
दिल्ली में स्त्री साक्षरता दर भले ही 86.21% है, जो देश के कुल औसत 74.04% से ज्यादा है. इसके बावजूद वहां की केवल 2.09 % महिलाओं ने बताया कि उन्हें अपना जीवनसाथी चुनने की पूर्ण इजाजत नहीं है. दूसरी ओर मेघालय में साक्षरता दर 74.43 % है, जो कि दिल्ली के मुकाबले भले ही कम है, लेकिन वहां 76.9% महिलाओं ने बताया कि उन्हें अपना जीवन साथी चुनने छूट है. इस आधार पर कुल मिला कर पाया कि देश में केवल 4.99 % महिलाओं को ही अपनी मरजी से अपना जीवन साथी चुनने की स्वतंत्रता प्राप्त है.
सबसे बड़ी बात यह है कि वर्ष 2005 से 2012 तक के सर्वे का यह अंतर बेहद कम है. वर्ष 2005 में यह आंकड़ा 5% था. इससे पता चलता है कि स्थिति में कुछ ज्यादा बदलाव नहीं आया है. यह सर्वे आइएचडीएस द्वारा वर्ष 2012 में भारतीयों राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की 15 से 81 वर्ष की करीब 34,000 नगरीय एवं ग्रामीण महिलाओं के बीच किया गया.
इस सर्वे में केवल 5% महिलाओं ने स्वीकार किया कि उन्हें अपनी मरजी से अपना जीवनसाथी चुनने की आजादी है. 73% महिलाओं ने बताया कि इस बारे में उनके माता-पिता या रिश्तेदार ही निर्णय लेते हैं. बिहार में महिलाओं की जीवनसाथी के चुनाव में भागीदारी 1.19% है, जबकि पंजाब में 1.14%, मणिपुर मे 96%, मिज़ोरम मे 88%मेघालय मे 76%, और सबसे कम सहभागिता राजस्थान में .98% है.
हमारा समाजिक ढांचा कुछ ऐसा है, जिसने स्त्रियों के मन में आत्मविश्वास पनपने ही नहीं दिया. उनमें निर्णय या स्वीकृति जैसी आत्मबल की छड़ी आने नहीं दी. जो महिलाएं अपने पैरों पर खड़ी भी हैं, उनके पैसों के बारे में भी घर के पुरुष सदस्य ही निर्णय लेते हैं. इसे बदलने के लिए महिलाओं को आगे आना होगा, खुद में आत्मविश्वास पैदा करना होगा. कोई चमत्कार कभी नहीं होनेवाला.
सविता सिंह, वरिष्ठ शिक्षिका, संत कैरेंस स्कूल
पितृ-सत्तात्मक सामाजिक ढांचे में पुरुष को अभिभावक के रूप मे देखा गया है. माताएं बेटियों को हर वह शिक्षा देती हैं, जिससे उसका दांपत्य जीवन खुशहाल रहे. वैसे भी परिवार न टूटे, यह भारतीयों की तीसरी प्राथमिकता होती है. लेकिन यह जिम्मेदारी जितनी महिलाओं की होती है, उतनी ही पुरुषों की भी होनी चाहिए. लड़कों को बचपन से ही महिलाओं की इज्ज़त करना सिखाया जाना चाहिए.
जूही समर्पिता, डीन-आर्यभट्ट ज्ञान विश्वविद्यालय
स्वास्थ संबंधी निर्णय लेने का भी हक नहीं
सर्वे में इस बात का भी खुलासा हुआ कि जीवनसाथी तो दूर की बात, भारत में महिलाओं को बीमार पड़ने या किसी तरह की स्वास्थ समस्या होने पर हेल्थ केयर सेंटर जाने के लिए भी घर के पुरुषों या बुजुर्ग महिला सदस्यों से इजाजत लेनी पड़ती है. झारखंड में 94% महिलाओं को अस्पताल जाने के लिए घर के सदस्यों से इजाजत लेने की जरूरत होती है, वहीं बिहार में भी स्थिति कमोबेश ऐसी ही है. सर्वे रिपोर्ट की मानें तो पूर्वोत्तर राज्यों मिजोरम, सिक्किम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में औरतों के निर्णय लेने की स्थिति में अन्य राज्यों से कुछ बेहतर और उत्साहवर्धक है.
यही नहीं, 58% महिलाओं को किराना दुकान जाने के लिए भी आज्ञा लेनी पड़ती है. किस दिन रसोई में क्या बनेगा, इस पर भी पुरुषों की राय का वर्चस्व ही देखा गया. 92.89% महिलाओं में से 50% ने बताया कि इसमें उनके पतियों की मरजी चलती है. 2012 में इस बारे में महिलाओं की राय 94.16 % थी, जिसमें उनके पतियों की भागीदारी 40.89 % रही.
कब मिलेगी हमें बेफिक्र घूमने की आजादी
भारत में महिला सुरक्षा से संबंधित कानूनों की कोई कमी नहीं है, इसके बावजूद वह घर या बाहर कहीं भी सुरक्षित नहीं. आस-पास नजर दौड़ायें, तो गांव-देहात से लेकर शहरों में हर ओर, हर पल कोई-न-कोई महिला यौन अपराध का शिकार हो रही होती है.
ज्यादातर मामलों में दोषी कोई नजदीकी पड़ोसी, चाचा, फूफा, भाई या सगा-सौतेला पिता होता है, जो उन्हें नारकीय जीवन जीने को मजबूर करता है. वहीं सार्वजनिक स्थलों की बात करें, तो बस, ट्रेन, ऑटो रिक्शा में भरी भीड़ में या फिर पैदल राह चलते हुए भी कोई गलत तरीके से छूने की कोशिश करता है. राजधानी दिल्ली से लेकर औद्योगिक नगरी मुंबई तक हर शहर, हर गली और हर मुहल्ले का यही हाल है.
ब्रिटिश पोलिंग काउंसेलिंग नामक संस्था की पंजीकृत ईकाई एक्शन एड यूके द्वारा देश के प्रमुख शहरों में रहनेवाली 18 वर्ष या इससे अधिक उम्र की करीब 502 महिलाओं पर किये गये सर्वेक्षण के आधार पर जारी एक सर्वे रिपोर्ट में यह बात सामने आयी है कि आज भी भारत में हर पांच में से चार महिलाएं (करीब 79 फीसदी) आज भी सार्वजनिक स्थानों पर किसी-न-किसी रूप में लैंगिक हिंसा का शिकार होती हैं.
इनमें से 84 फीसदी महिलाएं 25 से 35 वर्ष की हैं, जबकि तकरीबन 82 फीसदी महिलाएं फुलटाइम वर्कर हैं और करीब 68 फीसदी छात्राएं हैं.
जब भी हम महिलाओं के खिलाफ हिंसा के बारे मे सोचते हैं, तो हमारे जेहन में बलात्कार और दहेज हत्या के मामले ही उभरते हैं, जबकि सच तो यह है कि लैंगिक हिंसा का स्वरूप इससे कहीं ज्यादा व्यापक है.
कहां कमजोर है महिला सुरक्षा का कानून
अगर बात कार्यस्थलों की करें, तो महिलाओं के साथ होनेवाली लैंगिक हिंसा को रोकने के लिए देश में ‘कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध तथा प्रतिरोध) अधिनियम 2013’ बनाया गया है. लेकिन क्या किसी रोज ऐसा होता है जब ऐसी खबरें नहीं पढने-सुनने या देखने को न मिलती हों. दरअसल, सुरक्षा की कमी और सामाजिक ताने-बाने के चलते कई महिलाएं सामने नहीं आतीं.
उत्तर प्रदेश महिलाओं के लिए देश के सबसे असुरक्षित राज्यों में से एक है. महिलाओं के साथ होनेवाले ज्यादातर अपराध इन्हीं राज्यों में होते है. इन रिपोर्ट्स की मानें, तो हर साल भारत में 1000 से भी अधिक एसिड अटैक के मामले सामने आते हैं. इन सभी मामलों में पुरुष दोषी होते हैं और महिलाएं पीड़ित.
राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार
2015 के दौरान देश में बलात्कार के 34,651 दर्ज किये गये. हालांकि महिला सुरक्षा को लेकर काम कर रहे लोग इसे सही नहीं मानते. उनके मुताबिक बलात्कार के असल मामले इन आंकड़ों से कहीं ज्यादा हैं. 2014 के आंकड़े गवाही देते हैं की भारत विश्व के उन दस देशो की सूची में आठवें नंबर पर शुमार है, जहां महिलाओं की हालत बदतर है. यहां हर दो मिनट पर यहां महिलाओं के प्रति यौन अपराध का एक मामला दर्ज किया जाता है.

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