31.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Trending Tags:

Advertisement

हिंदी कहानी : बांसुरी

एक विचित्र-सी चुप्पी थी, जिसने पूरे घर को अपनी गिरफ्त में ले लिया. लेकिन अब वह मौन कोना सजग होने की मुनादी कर रहा था. स्वधा को जब भी उस घर से खटपट की आवाजें आती, तो जख्म हरा हो जाता. एक तीव्र पीड़ा मन को अपने घेरे में ले लेती, आंखें छलक उठती पर कुछ नहीं किया जा सकता था.

जाने अनजाने ही कुछ चीजें आपकी दिनचर्या में आहिस्ता से दाखिल हो जाती हैं. पहले पहल आप चौंकते हैं. आपकी बंधी- बंधाई दिनचर्या में उनका प्रवेश अनधिकार चेष्टा के समकक्ष मालूम होता है. फिर ये होता है कि अनचाहे ही सही, धीरे-धीरे आप स्वीकृति की ओर बढ़ने लगते हैं. एक दिन आता है आप उनके आदी होते चले जाते हैं. इस तरह कि किसी एक दिन उनका न होना आपको खलने लगता है.

ये जो घटा इसी दिवाली के ठीक बाद की बात है. लेकिन जो हो रहा था, वह कुछ भी अनायास नहीं था. इसकी पृष्ठभूमि तो कुछ वर्षों पहले ही तैयार हो चुकी थी. मन की भावुकता इंसान को बार-बार छलती है. स्वधा ने भी कब सोचा था कि एक दिन घर के दो हिस्सों के बीच खिंची एक दीवार हर रिश्ते से ऊपर उठ जायेगी. स्वधा बालकनी में जाती है, तो न चाहते हुए भी निगाह बार-बार वहीं जाती है. वैसे ये ‘न चाहते हुए’ शब्द युग्म सदा से संदेह के घेरे में रहा है.

उसने कब नहीं चाहा था कि वह उधर देखे और साथ वाली बालकनी में हंसता मुस्कुराता चेहरा उग जाये. देखते ही खुशी प्रकट करती आंखें और आत्मीयता भरा एक स्पर्श. इससे अधिक उसकी अपेक्षा भी क्या थी! आखिर वे दो घर अलग कब थे. जैसे घर के निवासी रक्त संबंध से जुड़े थे, वैसे ही दोनों घर भी एक साझी दीवार के साथ एक साथ जुड़े हुए थे. कम से कम स्वधा ने तो यही माना था. पर जिनके मन फटे हुए हों, वहां एका कब हो सकती है.

Also Read: हेमंत कुमार की मगही कविता – पर्यावरण बचाहो और बड़ी निमन मगही भाषा

जैसे-जैसे समय बीतता गया दिलों के बीच की दीवार ऊंची होती चली गयी. स्वधा को तो धुन लगी थी आदर्श बहू बनने की, जो अपने प्रेम से अलग परिवारों को भी जोड़ दे. आदर्शवाद का मुलम्मा चढ़ी उसकी शख्सियत कहो या उसके संस्कार कि उसने हर संभव कोशिश की कि किसी तरह दोनों घर एक हो जायें, पर कोई इकतरफा रिश्ते को कब तक निभा सकता है? शायद वे दीवारें तो बहुत पहले से उनके मनों में खिंची हुई थीं.

छोटी-छोटी बातें बहाना बनीं और एक दिन दीवार के बीच किसी खिड़की के खुलने की हर गुंजाइश खत्म हो गयी. उसके गले में सदा के लिए कुछ अटक गया था कि खाना तक नीचे उतरता ही नहीं था. शायद एक रुकी हुई रुलाई अटकी थी वहां, जो सम्यक का सपाट चेहरा देखकर बाहर आने का साहस नहीं जुटा पायी थी. वक्त बीतता चला गया और देखते देखते एक पीढ़ी काल के गर्त में समा गयी.

बच्चे अब बड़े हो. इधर कई दिन से सुन रहे थे कि साथ वाला घर, जो कभी उनके घर का हिस्सा था, अब बिकने के लिये तैयार है, मोल भाव चल रहा है पर ये सब इतनी जल्दी होगा पता नहीं था.

Also Read: हिंदी कहानी : उसकी प्रतीक्षा

फिर दीवाली से कोई हफ्ता भर पहले ऑफिस के लिये निकले सम्यक उल्टे पांव घर लौटे, तो स्वधा का माथा ठनका. वही हुआ जिसका डर था. रातोंरात सामान लद चुका था, साथ वाला वह घर खाली हो गया था. बड़े भाईसाहब का परिवार चला गया. जाने कब से अटकी रुलाई जब फूटी तो घंटों नहीं रुकी. उधर ऑफिस में सम्यक का भी यही हाल था. पहले एक क्षीण सी उम्मीद थी कि किसी रोज दोनों एक हो जायेंगे, आज वो भी टूट गयी. सदा के लिये. इतना रीतापन उसने तब भी महसूस नहीं किया था, जब सास-ससुर गये थे. आज पूरी तरह से अनाथ होने के विचार से भर उठा था दोनों का मन.

एक विचित्र-सी चुप्पी थी, जिसने पूरे घर को अपनी गिरफ्त में ले लिया. लेकिन अब वह मौन कोना सजग होने की मुनादी कर रहा था. स्वधा को जब भी उस घर से खटपट की आवाजें आती, तो जख्म हरा हो जाता. एक तीव्र पीड़ा मन को अपने घेरे में ले लेती, आंखें छलक उठती पर कुछ नहीं किया जा सकता था. सम्यक मन में गांठ लगाकर बैठ गये थे. हमेशा दिखाते जैसे उन्हें कोई परवाह नहीं, पर उनकी खाली आंखों में पीड़ा की सूक्ष्म परछाईं स्वधा छुप नहीं पाती थी.

इसी उहापोह में पहली ऐसी दिवाली बीती जब करीब से आती हवा में अपनेपन की कोई महक नहीं थी. अंधेरे में डूबे उस घर ने मन में ऐसी कसक पैदा की, कि न रहा गया तो वह मुख्य द्वार पर दो दीपक रख आयी.

Also Read: एडिनबरा के भूमिगत भूत

दिवाली के बाद का समय था. इधर कुछ रोज से बराबर के घर से खूब खटपट की आवाजें भी आने लगी थीं. कभी तेज कभी धीमे स्वर में अस्सी के दशक के गाने चलने लगते, तो कभी कुछ पुरुष स्वर, जो किसी बहस या समवेत वार्तालाप से छिटककर उसकी बालकनी में चले आते.

सुबह या शाम के समय पहले मसाला पीसने का स्वर और उसके बाद तेज छौंक की खुशबू. कभी-कभी तो बहुत तीखी. कभी-कभी यूं भी हुआ कि मांसाहारी खाने की तेज महक, बेचैन कर देने वाली तेज महक कि उसकी वैष्णव रसोई सहम जाती.

सम्यक को मालूम चला कि साथ के घर में ऊपर की दो मंजिलों को कुछ बंगाली बिहारी कामगार लोगों को रहने को दे दिया गया है. स्वधा के मन को गहरी ठेस लगी. ये घर जो कभी उनके घर का एक हिस्सा था, अब अजनबियत से भर उठा था. उस घर से भावनाएं कुछ इस तरह जुड़ी थीं कि कई दिन मन उदास रहा.

वह सम्यक से शिकायत करती कि जाने कौन लोग हैं? कैसे लोग हैं? सम्यक के ऑफिस और बच्चों के स्कूल चले जाने के बाद जब वह अकेली होती, तो मन कितनी ही आशंकाओं से घिर जाता है. सम्यक उसे समझाते कि अरे जो कोई भी हैं, हैं तो इंसान ही न. व्यर्थ के वहम पालकर वह जीवन को क्यों मुश्किल बनाये रहती हैं. उधर से ध्यान हटा क्यों नहीं लेंती.

Also Read: यात्रा वृत्तांत : पहाड़ों के बीच गुमशुदा है गुरेज वैली

ठीक ही कहते थे सम्यक. आसान नहीं था. सम्यक जितना विशाल हृदय उसके पास नहीं. अपरिचित लोगों के साथ सतर्कता बरतना कहां गलत है! लेकिन उसने भी मन को समझाया कि जाने वाले जब भावुक नहीं हुए, तो कोरी भावुकता को ओढ़कर अपने मन में अवसाद को बढ़ने देना क्या उचित है? धीरे-धीरे मन स्थिति को स्वीकार करने लगा.

पर यादें इतनी आसानी से पीछा कहां छोड़ती हैं. अब कभी उस घर से कहकहों का शोर उठता, तो स्वधा बीते वक्त में लौटकर चौंक उठती पर वर्तमान का चाबुक अतीत पर हावी हो जाता और मन सामान्य होने का ढोंग करने लगता. मन क्लांत था पर समझौता करना सीख रहा था कि कुछ विचित्र सा घटा.

यह शनिवार की एक शाम का समय था. सामने पेड़ पर पक्षियों का कलरव बता रहा था कि वे घर लौट आये हैं. दीवार के उस तरफ की हलचल बता रही थी कि वहां भी शाम की रसोई की तैयारी है. शायद कोई खल में मसाला कूट रहा था. कुछ देर बाद बालकनी मसालों की तीखी गंध से भरने लगी.

वहां हो रही आपस की चुहल का शोर कभी अंदर से आता तो कभी बालकनी तक आता और लौट जाता. बीच-बीच में कहीं कोई चीखता, शायद वे आपस में छीना झपटी कर रहे थे.

Also Read: विनय तिवारी की खोरठा कविताएं – मिटे नायं दिहा माटिक मान और मानुसे मानुस के मारे लागल

कुछ देर बाद आवाजें धीमी हो गयीं. तभी अचानक कहीं बेहद करीब से एक बहुत ही सुरीली स्वरलहरी ने आकर स्वधा को छुआ.

बांसुरी! हां! निश्चित तौर पर यह स्वर बांसुरी का था. इतनी मधुर आवाज कि वह उसमें खो गयी. लेकिन, उसके उद्गम की अनभिज्ञता बेचैन किये हुए थी. उसने मन को समझाया कि कंक्रीट के जंगलों में बांसुरी का क्या काम? निश्चित तौर पर कोई रिकॉर्डिंग है.

पर अगले दिन ठीक उसी समय यानी शाम स्वरा ने चाय का कप उठाया ही था कि फिजा में फिर बांसुरी के मधुर स्वर घुलने लगे. वह मंत्रमुग्ध होकर सुनने लगी. उसकी समस्त इंद्रियां उस आवाज पर केंद्रित हो गयीं. कुछ देर बाद बांसुरी मौन हो गयी. स्वधा की तंद्रा लौटी, तो वह मुस्कुरा दी कि चाय एकदम ठंडी हो चुकी थी. उसने कप ले जाकर सिंक के पास रख दिया. जाने क्यों, उसे आज चाय पिये बिना ही तृप्ति का अहसास हो रहा था.

इसके बाद यह अक्सर होने लगा. वह बाहर जाकर ढूंढ़ती कि कहीं सामने के स्कूल से तो ये आवाज नहीं आ रही. पर सामने शाम को बंद पड़े स्कूल से पत्तों की सरसराहट और पक्षियों के कलरव के अतिरिक्त कुछ सुनाई न पड़ता. हर शाम, कभी किसी रात को जब वही स्वरलहरी बालकनी में गूंजने लगी, तो समझ आया कि आवाज का स्रोत वही साथ वाला ‘परला घर’ है.

Also Read: डॉ प्रमोद कुमार तिवारी के 4 गो भोजपुरी कविता

ये स्वर लहरी की मधुरता का प्रभाव ही रहा होगा कि उसके मन से कटुता का अंश क्षीण होने लगा. फिर सारा ध्यान इस बांसुरी के स्वर पर केंद्रित हो गया. सारी नकारात्मकता को सकारात्मकता में बदल देने वाला मधुर स्वर, जिसे वह हर रोज सुनती.

एक दिन वह बाजार से लौटी, तो पाया कि साथ वाले घर की सीढ़ियों से वही स्वरलहरी उठी और धीमे-धीमे पूरे वातावरण को अपनी गिरफ्त में लेने लगी. वह दौड़कर बाहर गयी कि एक नजर देख सके उस स्वरलहरी के उद्गम को. देखा तो पाया कि वे कुछ युवा लड़के थे. स्वधा को देखकर सहम से गये. उनकी चुहल तो ठिठकी ही, बांसुरी का वह स्वर भी उसके इस अकस्मात प्रकटन का शिकार हो गया.

बांसुरी के रुकते ही वातावरण में एक मुर्दा खामोशी छा गयी. पता नहीं ये उसका वहम भी हो सकता है पर जाने क्यों उसे लगा कि घर के सामने के वट वृक्ष पर बैठे पक्षियों का कलरव भी जैसे थम सा गया. वह आपादमस्तक ग्लानि से भर उठी कि ये मैंने क्या किया? कि मैंने उनके आनंद के क्षणों में बाधा डाल दी.

उसका मन हुआ कि कहे कि बजाओ न, बहुत सुंदर बांसुरी बजाते हो, लेकिन संकोच और ग्लानि से उसके कदम वापस लौट गये. कुछ क्षण सन्नाटा पसरा रहा. वह भी बेवजह कमरे में इधर से उधर कुछ न कुछ उठाते, रखते हुए घूम रही थी. अलबत्ता उसके कान अब भी नीचे सीढ़ियों की ओर लगे थे.

फिर कुछ क्षणों बाद बांसुरी फिर से गूंजने लगी. उसे लगा तभी पक्षियों का कलरव भी गूंजने लगा. उसकी सांस में सांस आ गयी. बांसुरी का वह सुमधुर स्वर उसकी दिनचर्या में यूं शामिल हो गया था कि उसके बिना शाम की चाय मीठी न लगती. कुछ इस तरह कि उससे जुड़ा कौतूहल पीछे छूटने लगा.

इस बीच कई एक मौकों पर सम्यक और उन लड़कों में संवाद होने लगा. वक्त जरूरत पर सम्यक उन्हें आवाज भी लगा लेते. वे भी जरूरत पड़ने पर ठंडे पानी के लिए संकोच के साथ आवाज देने लगे लगे. पर स्वधा अपने खोल में ही सिमटी रही. फिर एक दिन हाई ब्लड प्रेशर से सम्यक की तबियत बिगड़ने लगी. उनके एक कॉल पर परेश, मदन, राजू, तपन सब दौड़े आये. तुरंत गाड़ी चलाकर सम्यक को हॉस्पिटल ले गये. उन तीन दिनों में जब तक सम्यक ठीक हुआ, जिस तरह से उन्होंने मदद और भागदौड़ की, स्वधा भीगी आंखों से सब देखते हुए ग्लानि में भीगती रही.

इधर कुछ दिन पहले छुट्टी के दिन, कुछ भिन्न आवाजों के साथ सुबह आयी. पता चला ‘वे लोग’ चले गये. ये उन्हीं के सामान के लदने का स्वर था. अरे…कहां चले गए?

सम्यक ने बताया छड़े छटांक लोग थे, काम खत्म हुआ तो बोरिया बिस्तर समेटकर चल दिये अगले ठिकाने पर. दिल को एक अनजाने से डर ने छुआ. तो क्या बांसुरी भी? स्वधा का डर सच साबित हुआ. अब न अस्सी के दशक के गाने गूंजते थे, न झूठ मूठ लड़ने झगड़ने के स्वर, न मसाला पीसने की कर्कश, लेकिन समरस ध्वनि और न ही मन को ठिठका देने वाली वह बांसुरी.

स्वधा के सुरक्षा से जुड़े सवाल तो हल हो गये, पर साथ वाला घर फिर से गहरी शांति में डूब गया है. मुर्दा शांति.

उस दिन पहली बार स्वधा ने जाना कि आत्मीयता खून के रिश्तों की मोहताज नहीं. मन के जुड़ने के लिए मन को खोलना जरूरी है. एक कदम बढ़ाना होता है कि दिलों के बीच के फासले मिटाकर बांसुरी की मिठास जीवन में घुल जाये.

संपर्क : 41-ए, आनंद नगर, इंद्रलोक मेट्रो स्टेशन के सामने, दिल्ली-110035, मो. – 9873851668, ई-मेल : anjuvsharma2011@gmail.com

(दिल्ली में जन्म और निवास. दो कविता संग्रह, दो कहानी संग्रह, तीन उपन्यास प्रकाशित. दो कहानी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य. कई पुरस्कारों से सम्मानित.)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें