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बच्चों में स्मार्टफोन की लत के लिए माता-पिता हैं जिम्मेदार, पीछा छुड़ाने के लिए थमा देते मोबाइल

Smartphone Addiction in Children: स्मार्टफोन की लत बच्चों को समाज में मिलने-जुलने और दूसरे बच्चों के साथ खेलने में बाधक बन जाती है, जो कि एक छोटे से बच्चे के मस्तिष्क के विकास के लिए बहुत जरूरी है.

Smartphone Addiction in Children: स्मार्टफोन की लत से बच्चों में होने वाली समस्याओं के विषय पर पटना स्थित आइजीआइएमएस में हुए शोध में पाया गया कि 2 वर्ष से कम आयु के बच्चे के दिमाग पर स्मार्टफोन देखने का बहुत ज्यादा दुष्प्रभाव पड़ रहा है. उनकी मस्तिष्क में सेंसरी प्रोसेसिंग डिसऑर्डर जैसे मानसिक विकार उभर रहे हैं, जो ऑटिज्म के लक्षणों से मिलते-जुलते हैं. आइजीआइएमएस के फिजिकल मेडिसिन एंड रिहैबिलिटेशन डिपार्टमेंट में ऑटिज्म के शिकार सबसे ज्यादा वही बच्चे आ रहे हैं, जिन्हें 2 वर्ष की आयु से पहले ही उनके माता-पिता ने स्मार्टफोन की आदत लगा दी थी. विशेषज्ञ कहते हैं कि जाने-अनजाने बच्चों को बड़ी परेशानी में डालने के जिम्मेदार खुद माता-पिता ही हैं. समय रहते लोग सचेत नहीं हुए तो इस लत के भयावह दुष्परिणाम झेलने पड़ सकते हैं.

केस स्टडी 01

रांची : रवि अपने 6 वर्ष के बेटे रुद्र को अक्सर अपना मोबाइल कार्टून वीडियो देखने के लिए दे दिया करते थे. उनके ऑफिस चले जाने पर रुद्र को उसकी मां भी मोबाइल थमा देती थीं, ताकि उनको घर के कामों को पूरा करने व टीवी सीरियल देखने में कोई दिक्कत न हो. कुछ समय बाद रवि को लगा कि रुद्र के व्यवहार में काफी बदलाव आ गया है. उनके ऑफिस से लौटने पर रुद्र में कोई उत्साह नहीं होता, वह मोबाइल में ही लगा रहता. मोबाइल लेने पर उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच जाता. वह खाना भी तभी खाता, जब उसके सामने मोबाइल चल रहा हो. बेटे की स्थिति देख रवि ने डॉक्टर की मदद ली. डॉक्टर की काउंसलिंग व माता-पिता की कोशिशों के बाद रुद्र की आदत में बदलाव आ रहा है.

केस स्टडी 02

कोडरमा : बीते अक्तूबर महीने में यह खबर आयी कि मोबाइल के चक्कर में एक 8 वर्षीय छोटे भाई ने अपने 12 वर्षीय बड़े भाई पर चाकू से वार किया, जिससे उसकी मौत हो गयी. यह मामला कोडरमा जिले के डोमचांच थाना के ग्राम गैठीबाद स्थित राणा टोला का है. परिजनों के अनुसार, मोबाइल चलाने को लेकर दोनों में शुरू हुए मामूली विवाद में छोटे भाई ने बड़े भाई के पेट में चाकू से हमला कर दिया. परिजन जब तक घायल बच्चे को अस्पताल ले जाते, तब तक उसकी मौत हो गयी.

केस स्टडी 03

मुंबई/लखनऊ : मुंबई में एक 16 वर्षीय लड़के को उसकी मां ने मोबाइल फोन पर गेम खेलने से मना किया तो उसने आत्महत्या कर ली. मृतक बच्चे का एक सुसाइड नोट भी मिला, जिसमें उसने इस बात का जिक्र किया था. इसी तरह उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में भी ऐसा ही एक मामला सामने आया था, जहां पबजी गेम के आदी बन चुके नाबालिग बेटे ने मां साधना सिंह की गोली मारकर हत्या कर दी थी. इतना ही नहीं, वह उसके शव के साथ दो दिन व तीन रात तक उसी घर में रहा.

उपरोक्त केस स्टडी सिर्फ कुछ मामले नहीं हैं, बल्कि आज बच्चों में स्मार्टफोन की लत घर-घर की समस्या बन चुकी है. बीते कोरोना महामारी ने बच्चों को स्मार्टफोन के और भी करीब आने को विवश कर दिया. ऑनलाइन क्लास, ट्यूशन के साथ वीडियो गेम, कार्टून के चक्कर में आज बच्चे बहुत ज्यादा समय मोबाइल, टैबलेट, लैपटॉप आदि पर बिता रहे हैं, जो उनके शारीरिक व मानसिक विकास के लिए खतरे की घंटी है. अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2 वर्ष की उम्र तक के बच्चे भी हर दिन कई घंटे तक मोबाइल पर बिता रहे हैं, जबकि उनका स्क्रीन टाइम शून्य होना चाहिए था. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस बेंगलुरु की ओर से किये गये एक सर्वे के अनुसार, 13 से 18 आयु वर्ग के 19 प्रतिशत से ज्यादा बच्चे मोबाइल गेमिंग की लत के शिकार हैं, वहीं 18 प्रतिशत बच्चे इंटरनेट तो 15.5 बच्चों को स्मार्टफोन की लत है.

कैसे लग जा रही है मोबाइल की लत

आमतौर पर बच्चे जब छोटे होते हैं, तो अक्सर माता-पिता खुद ही उनके हाथ में मोबाइल थमा देते हैं, कभी खाना खिलाने के लालच में, तो कभी अपना काम पूरा करने के लिए, तो कभी बच्चों को कविता, डांस आदि सिखाने के उद्देश्य से. धीरे-धीरे बच्चों को मोबाइल देखने में मजा आने लगता है. यही आदत कब लत में बदल जाती है, पता ही नहीं चलता. जब मोबाइल बच्चे के रूटीन कामों, जैसे- नींद, भूख, होमवर्क, सेहत आदि पर असर डालने लगे, तो समझ जाइए कि सेहत के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है.

कौन-सी समस्याएं आ रहीं सामने

स्मार्टफोन की लत बच्चों के दिमाग में बदलाव लाकर मानसिक विकार उत्पन्न कर रहा है. कई शोधों में यह सामने आ चुका है कि ये मानसिक विकार ऑटिज्म या स्वलीनता के लक्षणों से मिलते-जुलते हैं. ऑटिज्म एक विकास संबंधी विकार है. ऑटिज्म बच्चों की मानसिक क्षमता को प्रभावित करता है और संवेदी प्रसंस्करण विकार (सेंसरी प्रोसेसिंग डिसऑर्डर) को बढ़ावा देता है. इस स्थिति में बच्चों को अपनी इंद्रियों से जानकारी प्राप्त करने और प्रतिक्रिया देने में मुश्किल होती है. धीरे-धीरे वे उन चीजों से नफरत करने लगते हैं, जो उनकी इंद्रियों को ट्रिगर करती है, जैसे गंध, स्पर्श, प्रकाश, ध्वनि आदि. आमतौर पर बच्चों में ऑटिज्म होने के कई कारण होते हैं, लेकिन वर्तमान समय में छोटे बच्चों में स्मार्टफोन की लत और ज्यादा स्क्रीन टाइम उन्हें ऑटिज्म का शिकार बना रही है.

सेंसरी प्रोसेसिंग डिसऑर्डर के लक्षण

बच्चों में सेंसरी प्रोसेसिंग डिसऑर्डर को इन लक्षणों से पहचाना जा सकता है, जैसे- अति संवेदनशीलता, एक ही चीज को बार-बार हाथ में लेना व घुमाते रहना, घर की चीजों को मुंह में डालना, एक ही चीज को हाथ में लेकर बार-बार देखना, नाम सुन कर भी रेस्पॉन्ड नहीं करना, काम में ध्यान नहीं देना, खाना को अच्छी तरह से नहीं चबाना आदि.

अभिभावक बच्चों को लत से कैसे बचाएं

स्मार्टफोन के बढ़ते इस्तेमाल के कारण अब बड़ों समेत बच्चों को भी इसकी लत लग चुकी है. ऐसे में अभिभावक के लिए यह जरूरी है कि वह अपने बच्चों को स्मार्टफोन से दूर रखें और उनकी इस लत को समय रहते छुड़वाएं.

बच्चे को खुद न थमाएं फोन

अक्सर पहली बार अभिभावक ही बच्चे को फोन पकड़ाते हैं और यह देखकर खुश होते हैं कि हमारा बच्चा कितना स्मार्ट है, लेकिन यह छोटी-सी गलती आगे जाकर बुरी आदत बन जाती है. इसके अलावा, कई बार माता-पिता बच्चों से कहते हैं कि फटाफट होमवर्क कर लो, तो फिर मोबाइल मिल जायेगा या खाना खाओगे तो मोबाइल देखने को मिलेगा. इस तरह की शर्तें बच्चों के सामने नहीं रखनी चाहिए. इससे बच्चे लालच में फटाफट काम तो निपटा लेते हैं, लेकिन उनका सारा ध्यान मोबाइल पर ही लगा रहता है. उन्हें ब्लैकमेलिंग की आदत भी पड़ती है.

बाहर खेलने को करें प्रेरित

बच्चों के साथ मिलकर टहलें, योग करें या दौड़ लगाएं. बच्चों को रोजाना कम-से-कम एक घंटे के लिए पार्क ले जाएं. वहां उन्हें दौड़ने, फुटबॉल, बैडमिंटन आदि फिजिकल गेम्स खेलने के लिए प्रेरित करें. आप खुद भी उनके साथ गेम खेलें. विशेषज्ञों का कहना है कि अगर बच्चे हर दिन दो घंटे सूरज की रोशनी में खेलते हैं, तो उनकी आंखें कमजोर होने से बच सकती हैं. आप घर में भी बच्चे के साथ कैरम, लूडो, ब्लॉक्स, पजल्स जैसे खेल खेलें.

बनें बच्चे का रोल मॉडल

बच्चे अक्सर हमेशा वही सीखते हैं, जो देखते हैं. ऐसे में आपको बच्चों के सामने रोल मॉडल बनना होगा. बच्चों के सामने मोबाइल, लैपटॉप या टीवी का कम-से-कम इस्तेमाल करें.

खाते समय मोबाइल से दूरी

घर में एक जगह ऐसा हो, जहां मोबाइल लेकर जाने की इजाजत किसी को न हो. यह डिनर टेबल या स्टडी एरिया हो सकता है. डिनर, लंच या ब्रेकफास्ट का समय पूरी तरह से उसी पर फोकस्ड हो, उस समय मोबाइल एकदम न चलाएं.

पसंद को पहचान उसको बढ़ावा दें

आपके बच्चों की कोई-न-कोई खास पसंद होगी, जैसे- पेंटिंग, डांस, म्यूजिक, मॉडलिंग आदि. अपने बच्चे की पसंद को देखते हुए उन्हें उससे जुड़ी क्लास जॉइन करवाएं.

घर के काम में लें उनकी मदद

घर के कामों में बच्चों की क्षमता के अनुसार, उनकी मदद लें. इससे बच्चे आत्मनिर्भर तो बनेंगे ही, साथ ही खाली समय मोबाइल पर बिताने की जगह कुछ व्यावहारिक चीजें सीखेंगे. कपड़े फोल्ड करना, पानी की बोतल भरना, कमरा सेट करना, पौधों में पानी डालना, अलमारी लगाना जैसे काम बच्चे खुशी-खुशी कर सकते हैं.

पुस्तकों से कराएं उनकी दोस्ती

बच्चों को यदि बचपन से ही फोन की जगह किताबों, बाल पत्रिकाओं, उनकी पसंद के विषय की पुस्तकों की ओर ज्यादा ध्यान देने के लिए प्रेरित करें. उन्हें अच्छी स्टोरी बुक लाकर दें और उनसे कहानियां सुनें. जब बच्चों को स्टोरी बुक या कोई अन्य पुस्तक पढ़ने के लिए दें, तो खुद भी कोई किताब पढ़ें. ऐसा न हो कि आप टीवी खोलकर बैठ जाएं या मोबाइल पर बातें करने लगें. आपको किताब के साथ देख उसका भी मन पढ़ाई में लगेगा.

आंखों में तिरछापन होने का भी रहता है खतरा

स्मार्टफोन के इस्तेमाल से बच्चों की आंखों पर भी काफी बुरा असर पड़ता है. फोन से निकलने वाली रोशनी सीधे रेटीना पर असर करती है, जिसकी वजह से आंखें जल्दी खराब होने लगती हैं. इतना ही नहीं धीरे-धीरे देखने की क्षमता भी कम होने लगती है और सिर में दर्द बढ़ने लगता है. बच्चों में कम उम्र में चश्मा लग जाता है. बच्चे की आंखों में लालपन व जलन की समस्या भी आजकल काफी बढ़ी है. कई मामलों में देखा गया है कि स्मार्टफोन की वजह से बच्चे की आंखों में तिरछापन की समस्या भी आ जाती है. कभी भी अगर आपको लगे कि बच्चे का एक आंख तिरछा देख रहा है, तो तुरंत डॉक्टर से मिलें. कभी-कभी बच्चों की एक आंख ज्यादा कमजोर रहती है या किसी बीमारी जैसे- मोतियाबिंद, रेटीना की समस्या या ऑप्टिक नस की बीमारी वैगेरह के कारण उस आंख में रोशनी कम हो जाती है. इस स्थिति में वह आंख बाहर की ओर मुड़ जाता है या टेढ़ा हो जाता है. इसे भेंगापन या स्क्वींट भी बोलते हैं. इन बच्चों को तुरंत आंख के डॉक्टर से दिखा कर सही पावर के चश्मे दिलाना चाहिए और अगर कोई अन्य गंभीर समस्या उभरती है, तो उसका इलाज करवाना चाहिए.

बच्चों में स्मार्टफोन की लत के लक्षण व्यवहार में बदलाव

  • बच्चे से फोन मांगने पर बहाने बनाना या गुस्सा करना

  • कहीं रिश्तेदार के यहां जाकर भी मोबाइल पर ही लगे रहना

  • दूसरों से कटे-कटे रहना

  • अपनी बिस्तर पर साइड में मोबाइल रखकर सोना

  • बाहर खेलने के लिए मैदान में भी मोबाइल साथ ले जाना

  • नहाने, खाने में बहानेबाजी करना

शारीरिक परेशानी

  • नींद पूरी न होना, वजन बढ़ना

  • सिरदर्द होना

  • भूख न लगना

  • साफ न दिखना

  • उंगलियों और गर्दन में दर्द होना

मानसिक समस्याएं

  • ज्यादा संवेदनशील होना

  • काम की जिम्मेदारी न लेना

  • हिंसक होना

  • चिड़चिड़ा हो जाना

डिजिटल उपवास को आप भी अपनाएं

अपने बच्चों को इस भयावह समस्या से बचाने के लिए आपको खुद को भी बदलने की जरूरत है. आप घर के सभी सदस्यों के लिए डिजिटल उपवास का एक नियम बनाएं. हर हफ्ते में एक दिन खुद को गैजट फ्री रखें. शुरू-शुरू में ऐसा करने में मुश्किलें आ सकती हैं, लेकिन ऐसा करना नामुमकिन नहीं है. इस दौरान आप अपने स्मार्टफोन को स्विच ऑफ करके रखें. घर पर बच्चों के साथ मिलकर कोई आउटडोर गेम्स खेलें. अगर इसमें दिक्कत आ रही हो तो शुरुआत आप दो घंटे से कर सकते हैं. फिर धीरे-धीरे टाइम बढ़ा सकते हैं.

स्क्रीन टाइम को लेकर WHO की गाइडलाइन

डब्ल्यूएचओ के अनुसार, 2 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए जीरो स्क्रीन टाइम निर्धारित किया गया है. यानी उन्हें बिल्कुल भी स्क्रीन के सामने नहीं रखना है. इसके अलावा उन्हें दिन में आधा घंटे पेट के बल लिटाना चाहिए. फर्श पर तरह-तरह के खेल खिलाना भी बच्चे के शारिरिक विकास के लिए बेहतर होता है. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, कोशिश करें कि 3 से 4 वर्ष तक भी बच्चों को मोबाइल से दूर ही रखें, लेकिन यदि ऐसा संभव न हो पा रहा हो, तो ज्यादा-से-ज्यादा एक घंटे तक उनका स्क्रीन टाइम हो. इसके अलावा, 5 से 12 वर्ष तक के बच्चे को भी 90 मिनट से ज्यादा स्क्रीन नहीं देखना चाहिए. यह अवधि टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर सब मिलाकर है.

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