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Bheed Movie Review: कोरोना काल में प्रवासी मजदूरों के दर्द और संघर्ष को बखूबी बयां करती राजकुमार राव की भीड़

Bheed Movie Review: फिल्म की कहानी लॉकडाउन के दर्द को दिखाती है . एक शहर से दूसरे शहर की ओर पैदल ही निकले मज़दूरों ने बीमारी के साथ -साथ भुखमरी की दोहरी मार को झेला था. यह फिल्म मूल रूप से इसी कहानी को कहती है. दिल्ली से से हज़ार किलोमीटर दूर तेज़पुर गांव में हज़ारों की संख्या में मज़दूर फंसे हुए हैं.

फ़िल्म-भीड़

निर्माता -बनारस फिल्म्स

निर्देशक -अनुभव सिन्हा

कलाकार – राजकुमार राव, भूमि पेडनेकर, पंकज कपूर, दीया मिर्जा, कृतिका कामरा, आशुतोष राणा, आदित्य श्रीवास्तव और अन्य

प्लेटफार्म -सिनेमाघर

रेटिंग -तीन

मुल्क ,थप्पड़ , आर्टिकल 15 के बाद अब निर्माता निर्देशक अनुभव सिन्हा अपनी फिल्म भीड़ से कोरोना के दौर के उस वर्ग विभाजन की कहानी को सामने लेकर आए हैं ,जिसकी मिसाल आज़ाद हिंदुस्तान के इतिहास में कभी देखने को नहीं मिलती है. मज़दूरों और कामगारों का वर्ग, जिसपर लॉकडाउन की सबसे ज्यादा मार पड़ी थी. वे अपने देश में ही प्रवासी करार दे दिए गए थे. उसी दर्द से अनुभव सिन्हा की यह फिल्म एक बार फिर से रूबरू करवाते हुए दिल को छू जाती है.

लॉकडाउन से जुडी त्रासदी की कहानी

फिल्म की कहानी लॉकडाउन के दर्द को दिखाती है . एक शहर से दूसरे शहर की ओर पैदल ही निकले मज़दूरों ने बीमारी के साथ -साथ भुखमरी की दोहरी मार को झेला था. यह फिल्म मूल रूप से इसी कहानी को कहती है. दिल्ली से एक हज़ार किलोमीटर दूर तेज़पुर गांव में हज़ारों की संख्या में मज़दूर फंसे हुए हैं. अपने घर जाने के लिए उन्होंने शहरों से पलायन किया ,लेकिन सरकार ने गांव की सीमाओं को सील करने का फैसला कर दिया है. ऐसे में वह कोरोना महामारी के साथ – साथ सिस्टम से किस तरह से जूझते हैं. यह फिल्म इसी कहानी को कहता है. जिसमें पुलिस, डॉक्टर्स और पत्रकार भी हैं. उनकी छोटी -छोटी कहानियां भी चल रही हैं. फिल्म में कोरोना के दौरान हुई कई रियल स्टोरीज को भी इस कहानी में जगह दी गयी है. जिससे फिल्म की कहानी और ज़्यादा रियलिटी के करीब लगती है. फिल्म की शुरुआत ही दिल दहला देने वाली ट्रेन की घटना से होती है. फिल्म में तबलीगी जमात के मुद्दे को भी शामिल किया गया है.

स्क्रिप्ट की खूबियां और खामियां

फिल्म की सबसे बड़ी खूबी इसका विषय है, एक बार फिर निर्माता निर्देशक अनुभव सिन्हा ने अपनी फिल्म के लिए साहसिक विषय को चुना है.दूसरा फिल्म की लम्बाई है. फिल्म दो घंटे में अपनी बात को कह जाती है. प्रवासी मजदूरों के दर्द के साथ -साथ क्लास, जाति, धर्म, पावर को भी यह फिल्म बहुत खूबी से सामने ले आती है. अनुभव सिन्हा की यह फिल्म भी मूल रूप से सिस्टम पर चोट करती है.

अनुभव सिन्हा ने मज़दूरों के दर्द और उस काले दौर को ब्लैक एंड वाइट के ज़रिये पर्दे पर जिया है. जो एक बार फिर से उनके अलहदा सोच का परिचय देती है. वैसे अनुभव सिन्हा की इस फिल्म को भले ही ब्लैक एंड वाइट में दर्शाया गया है , लेकिन ये उनकी फिल्म के किरदारों का रंग नहीं हैं. सभी किरदार ब्लैक एंड वाइट नहीं हैं. कुछ को ग्रे रंग भी दिया गया है. पंकज कपूर , दीआ मिर्जा का किरदार में ऐसी झलक देखने को मिलती है. खामियों की बात करें फिल्म के ट्रेलर में लॉकडाउन की तुलना देश के विभाजन से की गयी थी , जिस पर बहुत विवाद भी हुआ था , लेकिन फिल्म का वह अप्रोच नज़र नहीं आया. कई लोगों को फिल्म से यह शिकायत भी हो सकती है कि एक बार फिर से कहानी में जाति पर ज़्यादा फोकस कर दिया गया है.

उम्दा कलाकारों की टोली

भीड़ में उम्दा कलाकारों की टोली शामिल है. इन सब में पंकज कपूर बाजी मार ले जाते हैं, अपने किरदारों में रच -बस जाने की उनकी आदत है. इस बार भी वह अपने अभिनय से अपने किरदार में अलग रंग भरते हैं. राजकुमार राव का काम भी प्रभावी रहा है. उन्होंने अपनी भूमिका को बारीकी के साथ आत्मसात किया है. भूमि ने अपने हिस्से की भूमिका अच्छे से निभा गयी हैं, लेकिन उनके किरदार के लव एंगल पर ज्यादा फोकस किया गया है. यह बात अखरता है. दीया का काम औसत हैं.कृतिका कामरा का किरदार उस तरह से प्रभावी नहीं बन पाया है. जैसा कहानी की जरूरत है. उनका किरदार कुछ – कुछ अधूरा सा लगता है बाकी के किरदारों में आशुतोष राणा और आदित्य श्रीवास्तव ने भूमिका के साथ बखूबी न्याय किया है.

ये पहलू भी हैं खास

गीत- संगीत फिल्म की कहानी और परिस्थितियों के साथ बखूबी न्याय करता है. फिल्म की सिनेमाटोग्राफी उम्दा है. फिल्म के संवाद कहानी को और प्रभावी बना गए हैं. फिल्म में सवांद किसी लम्बे -चौड़े स्पीच में नहीं बल्कि आपसी बातचीत में जरूरी बात कह जाती है. गरीब आदमी के लिए कोई इंतज़ाम नहीं होते हैं. हमारा न्याय हमारी औकात से बाहर है. साहब हम जैसे निकले थे कहीं पहुंचे ही नहीं जैसे संवाद कहानी के हर पहलू को बखूबी सामने ले आते हैं.

देखें या न देखें

यह एक फिल्म नहीं आइना है. जिसमें बतौर समाज हम अपनी छवि को देख सकते हैं. जिसे सभी को देखना चाहिए ताकि हम याद रख सकें और खुद से सवाल करते रहे कि जो लोग हमारी ज़िन्दगी में सहूलियत पैदा करते हैं. उनके साथ कितनी बड़ी अनदेखी हुई थी.

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