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अजित वडनेरकर

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भाषा का समाजशास्त्र

अनेक शब्द अपनी मूल अभिव्यक्ति से इतने दूर आ जाते हैं कि उन्हें बरतते हुए ऐसा लगता नहीं कि हम अन्यार्थ बरत रहे हैं, मूलार्थ नहीं.

भाषा का स्वभाव है परिवर्तन

सामाजिक मूल्यों का बदलाव भाषा पर भी अलग ढंग से असर डालता है, पर इसे भाषा के खिलाफ साजिश के खाते में नहीं चढ़ाया जा सकता.

समाज की प्राणदायिनी है भाषा

भाषा और व्यापार साथ-साथ चलते रहे हैं. भाषाओं की बरक्कत में कारोबार-रोजगार का बड़ा योग रहा. दूसरे दर्जे पर हैं सैलानी, घुमक्कड़ या रोजीदार. साहित्य तीसरे पायदान पर है.

हिंदी शब्दकोश की समस्याएं

हिंदी पर तत्सम का प्रभाव दिखना स्वाभाविक है, मगर उसे संस्कृतनिष्ठता तक ले जाना उचित नहीं. रागदारी जैसे शब्दों की क्या गलती, जो उसे उर्दू के खाते में डाला जाए, न फारसी के. गजब यह कि इसे हिंदुस्तानी का बताना तो दूर, संस्कृत का बता रहे हैं!

हिंदी को बैसाखी की दरकार नहीं

भारतीय भाषाओं में एकता का जो सूत्र संस्कृत के जरिये नजर आता है, वही सूत्र आज हिंदी के रूप में समूचे भारतीय भाषिक परिदृश्य को जोड़े हुए है.

भाषाओं के साथ व्याकरण पैकेज

हमारी वाणी यानी भाषा में व्याकरण अपना काम करता जाता है, पर कभी-कभी उसे समझने की जरूरत पड़ती है.