36.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Trending Tags:

Advertisement

भाषा का समाजशास्त्र

अनेक शब्द अपनी मूल अभिव्यक्ति से इतने दूर आ जाते हैं कि उन्हें बरतते हुए ऐसा लगता नहीं कि हम अन्यार्थ बरत रहे हैं, मूलार्थ नहीं.

भाषा का समाजशास्त्र दिलचस्प है. समाज की नजर में जो कुछ भी ‘उच्च’ है, वहां से जरा सा भी इधर-उधर होना (विचलन) समाज सहन नहीं करता. इससे पहले कि इस ‘विचलन’ को किसी अन्य शब्द से अभिव्यक्त किया जाये, सीधे-सीधे ‘उच्चता’ की उस अभिव्यक्ति का ही अर्थापकर्ष कर दिया जाता है. अध्यापक की अर्थवत्ता वाले किन्हीं शब्दों पर गौर करें, यही प्रवृत्ति देखने को मिलेगी.

‘गुरु’ अब चतुर, चालाक, धूर्त के अर्थ में प्रयुक्त होता है. यही बात ‘उस्ताद’ के साथ है. मठाधीश, महंत, स्वामी, बाबा, चेला, भक्त, अफसर, पंच, बाबू, मास्टर, नेता, पहलवान, जादूगर, बाजीगर, ओझा, पंडित आदि शब्द इसी कतार में हैं. यह जो गिरावट है, दरअसल सामाजिक विसंगति, व्यंग्य की अभिव्यक्ति है. सामाजिक बदलावों के शिलालेख बाद में तराशे जाते हैं, बदलाव पहले भाषा में दर्ज होता है.

लगता है साहित्य की तमाम विधाएं बहुत बाद में जन्मीं किंतु व्यंग्य का जन्म भाषा के विकासक्रम में सबसे पहले हुआ होगा. व्यंग्य बोली-संवाद का भी विषय है, साहित्य की अनेक मर्यादाएं हैं. भाषा का बुनियादी मकसद मन की बात लिख या बोल कर बताना है. कहने या लिखने का ऐसा ढंग जिसमें कही गयी बात से हट कर कुछ और अर्थ निकलता हो, उसे व्यंजना कहते हैं. दरअसल यही व्यंग्य है. इसी रूप में भाषा सर्वाधिक सफल है. ‘रहने दो, तुमसे नहीं हो पायेगा’, इस वाक्य में छिपे व्यंग्य को अगर कोई समझ ले तो दरअसल उसे करने से रोका नहीं जा रहा है, बल्कि करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है.

मुहावरे, लोकोक्तियां, कहावतें वगैरह बोली-संवाद की देन हैं. व्यंग्य में हास्य अनिवार्य तत्व नहीं है. समाज जितना संवेदनशील होगा, उतना ही प्रतिक्रियावादी भी होगा. व्यंग्य भी प्रतिक्रिया से ही जन्म लेता है. भारतीय समाज में गहन संवेदनशीलता का गवाह वैदिक साहित्य है, इसीलिए प्राचीन भारतीय साहित्य में व्यंग्य कम नहीं. शूद्रक का मृच्छकटिक तो व्यंग्य नाट्य ही है.

कभी धर्म-कर्म से जुड़ी शब्दावली का आधिक्य था. कभी युद्ध से जुड़ी शब्दावली प्रमुख थी. किसी दौर में राज-व्यवहार या व्यापार-वाणिज्य की शब्दावली प्रमुख थी. एक वक्त ऐसा था, जब मुंबइया फिल्मों के असर में भाषा प्रभावित होती थी. अब राजनीति ने अधिकांश स्पेस का अतिक्रमण कर लिया है. बोलचाल की भाषा में ऐसे तमाम पद-सर्ग प्रभावी तौर पर शामिल हैं. मिसाल के तौर पर ‘खेल’ अब हिंदी की राजनीतिक शब्दावली है.

‘बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहने की वृत्ति’ की ओर प्रेमचंद ने नौ दशक पहले इशारा किया था. किसी जमाने में ‘जान पर खेल जाना’ बहादुरी उजागर करने वाला मुहावरा था. ‘हौसले पर खेल जाने’ की नजीरें होती थीं. अब ‘खेल कर दिया’ जैसे नये मुहावरे सामने हैं. ‘खेल’ वह जो सर चढ़ कर बोले, मगर अब ‘खेल’ वह है, जो किसी को नजर न आए. कई खेल जब बिगड़ जाते हैं, तो तमाशा साबित हो जाते हैं. चुनाव अब भी जंग है, मगर उसे खेल, सर्कस, कुंभ, मेला या तमाशा तक कहा जा रहा है.

हिंदी में ऐसे तमाम पद, संज्ञा अथवा शब्दयुग्म बरते जा रहे हैं जो अभिधेय होने के साथ-साथ व्यंजना के स्तर पर महत्वपूर्ण हो उठे हैं. पहले ‘गुरु’ ही शिक्षक होते थे. बृहस्पति, वशिष्ठ, विश्वामित्र, द्रोणाचार्य, सांदीपनि, चाणक्य आदि, किंतु अब गुरु शब्द में गुरुता का लोप हो गया. शिक्षक के अर्थ में गुरु का तात्पर्य यही कि जिसमें गुरुता हो वही गुरु है. अब ‘गुरु’ शब्द का अर्थ चतुर, चालाक, धूर्त, चलता-पुर्जा हो गया है.

‘बहुत गुरु आदमी है’ इस वाक्य में किसी शिक्षक की प्रशंसा नहीं बल्कि किसी चतुर-चालाक व्यक्ति का हवाला है. यूं देखें तो अर्थापकर्ष चाहे न हुआ हो पर ‘छिच्छक’ जैसा उच्चार शिक्षक को दयनीय अथवा हीन साबित करने के प्रमाण हैं. ‘मास्टर साहब’ कहीं माट्साब, कहीं माड़साब बनकर गुरुकुल संस्था पर व्यंग्य बन कर चिपका है. यही बात उस्ताद के साथ है. औलिया, पीर, मठाधीश, महंत, स्वामी, बाजीगर, ओझा, पंडित, मास्टर, अफसर, पंच, बाबू, नेता, पहलवान समेत चेला और भक्त आदि शब्द इसी कतार में हैं.

अनेक शब्द अपनी मूल अभिव्यक्ति से इतने दूर आ जाते हैं कि उन्हें बरतते हुए ऐसा लगता नहीं कि हम अन्यार्थ बरत रहे हैं, मूलार्थ नहीं. पाखंड किसी जमाने में परिव्राजकों (घर परिवार छोड़ कर ज्ञान की खोज में चलनेवालों का समूह, सन्यासी आदि) का पंथ था. आज पाखंडी किसे कहते हैं, यह सब जानते हैं.

‘रास’ रचाना पहले कुछ और था, बाद में इसका अभिप्राय आमोद-प्रमोद से जुड़ गया. आज ‘गोरखधंधा’ का सामान्य अर्थ उलटे-सीधे कामों के संदर्भ में ज्यादा होता है. दरअसल, यह नाथपंथी सिद्ध योगियों की शब्दावली से निकला पद है. अपने मूल रूप में गोरखधंधा ध्यान केंद्रित करने का यंत्र था.

गुरुओं की अपनी अलग धंधारी होती थी. गोरखनाथ की धंधारी अनोखी थी, इसीलिए उनके पंथ में इस धंधारी का नाम ‘गोरखधंधा’ प्रसिद्ध हुआ. बाद में गोरखधंधा शब्द जटिल और उलझाऊ क्रिया के लिए रूढ़ हुआ. गोरखनाथ की धंधारी अद्भुत थी, इसलिए साधक को चक्कर में डालने वाली सिद्धि प्रक्रिया के बतौर इसका प्रयोग शुरू हुआ होगा. अब तो उन शब्दों की सूची भी बनायी जा सकती है जो जल्दी ही इस कतार में जुड़नेवाले हैं. अब कांवड़िया, वामपंथी, कांग्रेसी, भाजपाई, संघी, जज, मेंबर, पत्रकार, लेखक, कवि, साहित्यकार, वंदना, प्रणाम जैसे शब्द इसमें जुड़नेवाले हैं. इसके अलावा खेल, गेम, समीकरण जैसे अनेक शब्द और हैं.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें