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नोटबंदी से माइक्रो इकोनाॅमी को पहुंचा भारी नुकसान, कूड़ा हो गये करोड़ों रुपये के 500 आैर 1000 रुपये के नोट

विश्वत सेन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल आठ नवंबर को बाजार में नकली नोटों पर अंकुश लगाने, आतंकवाद को फंडिंग रोकने आैर कालाधन को बाहर निकालने के लिए 500 आैर 1000 रुपये के पुराने बड़े नोटों को चलन से बाहर करने की घोषणा की थी. नोटबंदी की इस घोषणा के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था […]

विश्वत सेन

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल आठ नवंबर को बाजार में नकली नोटों पर अंकुश लगाने, आतंकवाद को फंडिंग रोकने आैर कालाधन को बाहर निकालने के लिए 500 आैर 1000 रुपये के पुराने बड़े नोटों को चलन से बाहर करने की घोषणा की थी. नोटबंदी की इस घोषणा के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था पर तात्कालिक प्रभाव तो देखने को मिल ही रहा है, लेकिन इसका भारत के माइक्रो इकोनाॅमी (सूक्ष्म अर्थव्यवस्था) पर गहरा प्रभाव देखने को मिल रहा है. भारत की घरेलू महिलाआें आैर घरों में बसने वाले इस माइक्रो इकोनाॅमी में अब भी 500 आैर 1000 रुपये मूल्य करोड़ों रुपये के एेसे नोट पड़े हैं, जो आयकर विभाग की सख्त कार्रवार्इ के डर से बाहर नहीं निकाले जा सके हैं या फिर सरकार की आेर से निर्धारित समय में बदले नहीं जा सके हैं. इसी का परिणाम है कि भारत के ग्रामीण आैर शहरी इलाकों में करोड़ों रुपये मूल्य के 500 आैर 1000 रुपये के नोट कूड़ा में तब्दील हो गये, जो अब किसी काम के लायक नहीं रहे आैर फिलहाल जिनकी गिनती करना संभव भी नहीं है.

इस खबर को भी पढ़ेंः नोटबंदी का असर समाप्त महंगाई बढ़ेगी : आरबीआइ

हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस समय देश में नोटबंदी की घोषणा की थी, उसी समय देश-दुनिया के कर्इ बड़े अर्थशास्त्रियों ने इस बात पर प्रकाश डाला था कि नोटबंदी का व्यापक असर कर्इ महीनों के बाद देखने को मिलेगा. 15 नवंबर, 2016 को विश्व बैंक के पूर्व अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने कहा था कि भारत में 500 और 1000 के नोटों को चलन से बाहर करना अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं है. प्रोफ़ेसर बासु ने कहा था कि इससे फायदे की जगह व्यापक नुक़सान होगा. इसके पीछे उन्होंने तर्क दिया था कि इस फैसले से कम आय वाले ज्यादातर लोग, व्यापारी और बचत करने वाले साधारण लोग, जो नकदी अर्थव्यवस्था पर निर्भर हैं, वे बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं आैर इसका असर भारत की सूक्ष्म अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा.

माइक्रो इकोनाॅमी के बल पर ही चलता है भारत के ग्रामीणों का कारोबार

दरअसल, भारतीय अर्थव्यवस्था का जितना बड़ा भार बाजारों, आयात-निर्यात, विदेशी मुद्रा भंडार आैर कृषि पर निर्भर है, उससे कहीं ज्यादा माइक्रो इकोनाॅमी अथवा सूक्ष्म अर्थव्यवस्था पर भी है, जो सीधे तौर पर बाजार से जुड़ा नहीं होता. इसमें घरेलू महिलाएं अथवा ग्रामीण क्षेत्र के लोग भविष्य में काम आने के लिए छोटी-छोटी राशि के रूप में पैसों की बचत करते हैं. इसे वे या तो नकदी के रूप में घर में रखते हैं अथवा जागरूक लोग बचत योजनाआें में निवेश कर उसका लाभ उठाते हैं. नोटबंदी के बाद बचत योजनाआें में निवेश करने वालों पर कोर्इ खास प्रभाव देखने को तो नहीं मिल रहा, लेकिन उन लोगों पर व्यापक असर देखने को जरूर मिल रहा है, जिन लोगों ने नकदी के तौर पर 500 या बड़े नोटों को भविष्य के लिए संजोकर रखा हुआ था. दरअसल, भारत के ग्रामीणों का कारोबार माइक्रो इकोनाॅमी के तहत अब भी चलता है आैर यह आपसी बचत के जरिये चलता है.

फैक्ट्स

2008 की महामंदी में माइक्रो इकोनाॅमी ने दी थी भारतीय अर्थव्यवस्था को गति

दुनियाभर के अर्थशास्त्री बताते हैं कि जब 2008 में वैश्विक आर्थिक महामंदी का दौर था, तब भी भारतीय अर्थव्यवस्था सरपट दौड़ रही थी. इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उस समय भारत की माइक्रो इकोनाॅमी के पास छुपी क्रयशक्ति ने भारत की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को सहारा दिया था. महामंदी के दौर में भी भारत के लोगों की क्रयशक्ति में कमी नहीं देखी गयी. आठ सितंबर को जब प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की, तो घरों में पड़ी नकदी बाहर निकली तो जरूर, लेकिन जागरूकता के अभाव में अथवा सख्त कार्रवार्इ के भय से ज्यादातर गृहणियों ने 500 आैर 1000 रुपये के रूप में जमाराशि का रहस्योद्घाटन नहीं किया. इसी का नतीजा है कि आज भारत के घरों में करोड़ों रुपये के 500 आैर 1000 रुपये के पुराने नोट पड़े हैं.

केस स्टडी-1

बेसहारा नाबालिगों को नहीं मिला मां की जमापूंजी का सहारा

गिरीश मालवीय ने अपने फेसबुक कमेंट में राजस्थान के कोटा जिले के सहरावदा गांव के नाबालिग सूरज आैर सलोनी के साथ हुर्इ घटना का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि नोटबंदी की दुश्वारियां लोगों ने उफ किये बगैर झेल लीं. बेबस और असहाय लोग अब भी मिल रहे हैं, जिन्हें नोटबंदी का एहसास तो था, लेकिन अपने भाग्य में आये रुपयों की जानकारी नहीं थी. ऐसी ही कहानी है कोटा के सूरज और सलोनी की. उन्होंने लिखा है कि सहरावदा गांव के राजू बंजारा की मौत के बाद उसकी पत्नी पूजा की 2013 में हत्या हो गयी और इससे उनका 16 साल का बेटा सूरज और 12 साल की बेटी सलोनी बेसहारा हो गये. पुलिस ने अपना काम किया और बाल कल्याण समिति के आदेश पर रंगबाड़ी स्थित अनाथ बच्चों की संस्था में सहारा दिलाया.

96,500 के पुराने नोट देख पुलिस ने भी पीट लिया माथा

गिरीश मालवीय ने लिखा है कि बच्चों के पुनर्वास की पहल शुरू हुई, तो सूरज और सलोनी ने बताया कि गांव में उनका एक घर है. समिति के आदेश पर पुलिस ने घर का सर्वे किया, तो सौ और पांच सौ के नोटों में 96 हजार 500 रुपये की रकम मिली. ये रकम मां ने अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए सुरक्षित की होगी, जिससे बच्चे भी अनजान रहे और अब जब पता चला है, तो नोटबंदी ने बेबस कर दिया है. उन्होंने संवेदना व्यक्त करते हुए लिखा है कि क्या ऐसे लोगों को भी आप कहेंगे कि उनकी गलती हैं. 125 करोड़ की आबादी में ऐसे हजारो लाखों किस्से होंगे, थोड़ा उनके बारे में भी सोच लें.

केस स्टडी-2

कूड़ा हो गये 10,000 मूल्य के 500 आैर 1000 रुपये के पुराने नोट

बिहार के नवादा जिले के बजरा गांव निवासी उमा देवी पेशे से प्रधानाध्यापिका थीं. उन्होंने भविष्य के लिए वेतन मिलने के बाद 500 आैर 1000 रुपये के पुराने नोटों को संदूक में संजोकर रखा था. नोटबंदी के करीब नौ महीने बाद अभी कुछ दिन पहले उन्होंने जब अपने संदूक को खोला, तब उनकी नजर उन 10,000 रुपयों पर पड़ी. अब आयकर विभाग की सख्त कार्रवार्इ के भय से उन्होंने उसका जिक्र करना भी छोड़ दिया. इसी तरह झारखंड की राजधानी रांची में एक काॅलेज की छात्रा है श्वेता कुमारी. उसकी मां के पास भी 500 आैर 1000 रुपये के पुराने नोट पड़े हैं, लेकिन ये नोट भी अब उनके किसी काम के नहीं हैं.

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