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जनहितकारी विज्ञान को मिले बढ़ावा

गौहर रजा रिटायर्ड साइंटिस्ट हमें फख्र है कि भारत अकेला ऐसा देश रहा है, जिसने स्पेस साइंस (अंतरिक्ष विज्ञान) के क्षेत्र में शोध का इस्तेमाल आम आदमी की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए किया, न कि रणनीतिक शोध करने के लिए. इसलिए भारत ने पहले इसरो (इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन) की नींव डाली. उसके […]

गौहर रजा

रिटायर्ड साइंटिस्ट
हमें फख्र है कि भारत अकेला ऐसा देश रहा है, जिसने स्पेस साइंस (अंतरिक्ष विज्ञान) के क्षेत्र में शोध का इस्तेमाल आम आदमी की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए किया, न कि रणनीतिक शोध करने के लिए. इसलिए भारत ने पहले इसरो (इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन) की नींव डाली.
उसके बाद हम डीआरडीओ (रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन) की स्थापना तक पहुंचे, जो रक्षा मंत्रालय के रक्षा अनुसंधान और विकास विभाग के अधीन काम करता है. स्पेस साइंस में शोध चाहे वह रूस में हुआ हो या अमेरिका में, दोनों जगहों पर रक्षा अनुसंधान से इसकी शुरुआत हुई.
लेकिन भारत पहला देश था, जिसने कहा कि भारत स्पेस साइंस का इस्तेमाल जनमानस को बेहतर बनाने के लिए करेगा. स्पेस साइंस की बहुत सारी चीजें रक्षा क्षेत्र में काम आती हैं, इसलिए हमने डीआरडीओ की नींव डाली. मिसाइल और सैटेलाइट की जरूरत थी, जिन्हें हमने लगातार विकसित किया.
इसमें आईसीबीएम (अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल) विकसित करना हमारी बड़ी उपलब्धि थी. अगर हम आईसीबीएम विकसित नहीं करते, तो पिछले दिनों जो एंटी-सैटेलाइट (ए-सैट) मिसाइल क्षमता विकसित की है, वह नहीं हुई होती. फिर भी भारत के लिए यह बड़ी उपलब्धि है.
दूसरे विश्व युद्ध (1945) के बाद दुनियाभर में तकरीबन बीस प्रतिशत वैज्ञानिकों को विनाशकारी विज्ञान में झोंक दिया गया. विज्ञान और तकनीकी की क्षेत्र में हमें हर हाल में आगे रहना चाहिए, लेकिन हर तरह की विनाशकारी विज्ञान और तकनीक से बचना भी चाहिए. हालांकि,बीते दिनों भारत द्वारा किया गया ए-सैट मिसाइल परीक्षण एक कामयाबी है.
मिसाइल या एंटी-सैटेलाइट मिसाइल बनाना आसान काम नहीं है. मिसाइल बनाकर रखने में बहुत खर्च आता है और बहुत वक्त भी लगता है. दूसरी बात यह हे कि जब तक युद्ध न हो, मिसाइलों का इस्तेमाल नहीं होता है.
चूंकि, ये बहुत लंबे समय तक रखे जाते हैं, इसलिए इसके कंट्रोल और क्रियान्वयन को लेकर परेशानियां आती हैं. इसमें समस्या यह है कि जैसे-जैसे नयी तकनीक का विकास होता जाता है, हमारे बने-बनाये मिसाइलों की क्षमता का विकास भी करने की जरूरत पड़ती है.
नयी तकनीक, नये कंट्रोल सिस्टम, नये मटीरियल साइंस, आदि पर लगातार नजर रखते हुए अपडेट रहना पड़ता है और अपनी क्षमता का विस्तार करते रहना पड़ता है. ये सारी चीजें बिना इस्तेमाल हुए पुरानी पड़ती जाती हैं, इसलिए मिसाइलों को लेकर कई चुनौतियां हैं.
अगर अंतरिक्ष में कोई सैटेलाइट अपनी गति से चल रहा है और आपको यह मालूम हो जाये कि वह आपको नुकसान पहुंचा सकता है, तो उसे एंटी-सैटेलाइट मिसाइल से तोड़ा जा सकता है. बीते दिनों भारत ने जो अपने ही एलईओ (लो अर्थ ऑर्बिट) सैटेलाइट को मारकर जो परीक्षण किया है, हमने यह क्षमता साल 2011 तक हासिल कर ली थी.
आधिकारिक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2011 तक भारत ने ओड़िशा स्थित डीआरडीओ के लांच पैड से एंटी-सैटेलाइट मिसाइल के छह परीक्षण किये, जिनमें से पांच पूरी तरह से कामयाब थे.
भारत की यह परंपरा रही है कि चाहे वह इसरो का कोई परीक्षण हो या डीआरडीओ का, हमेशा इसरो और डीआरडीओ के प्रमुख ही अपनी उपलब्धियों की जानकारी देश को देते रहे हैं, जहां कभी प्रधानमंत्री की, कभी राष्ट्रपति की उपस्थिति भी रही है
. लेकिन, मौजूदा केंद्र सरकार ने इस परंपरा को बदल दिया और वैज्ञानिक उपलब्धियों को जनता तक पहुंचाने की हमारी समृद्ध परंपरा टूट गयी, वहीं इसका श्रेय वैज्ञानिकों को जाने के बजाय, राजनीतिक नेतृत्व को गया.
अस्सी के दशक में ए-सैट मिसाइल क्षमता की शुरुआत करने की कोशिश जब अमेरिका ने की थी, जिससे कि अंतरिक्ष में स्टार वार शुरू हो गया होता, तब सोवियत यूनियन ने इस पर रोक लगा दी थी.
उस वक्त दुनियाभर में बहस भी हुई थी कि अपनी-अपनी दुश्मनियों को क्या हम अंतरिक्ष में ले जा रहे हैं? स्टार वार एक प्रोग्राम था, जिसे अमेरिका ने तैयार किया था और सोवियत यूनियन से कहा था कि एक-दूसरे की क्षमता को देखने और परीक्षण करने के लिए अंतरिक्ष में एक सीमित युद्ध करते हैं.
सोवियत यूनियन ने कहा कि अमेरिका अगर स्पेस में स्टार वार करना चाहता है, तो सीमित नहीं, बल्कि पूरा युद्ध होगा. इस धमकी के बाद अमेरिका रुक गया था. लेकिन, सोवियत यूनियन के विघटन के बाद अमेरिका ने परीक्षण किया कि किस तरह से स्पेस में किसी सैटेलाइट को ए-सैट मिसाइल से ध्वस्त जा सकता है.
सैटेलाइट बहुत तेज गति से स्पेस में चलता है. इसको ध्वस्त करने की तकनीक आसान नहीं थी. रूस ने लेजर तकनीक का इस्तेमाल करके सैटेलाइट ध्वस्त करने की क्षमता विकसित कर ली थी. तब तक यह अमेरिका नहीं कर पाया था. लेजर तकनीक में और ए-सैट मिसाइल तकनीक में क्या फर्क है?
लेजर तकनीक पूरी तरह से सैटेलाइट को जला देती है, जिससे कि स्पेस में उसका मलबा इकट्ठा न हो. जबकि ए-सैट मिसाइल तकनीक से सैटेलाइट ध्वस्त करने से सैटेलाइट के टुकड़े स्पेस में इधर-उधर विचरने लगते हैं. स्पेस में ग्रैविटी नहीं होती, इसलिए उन टुकड़ों पर नियंत्रण भी नहीं होता.
इसके बहुत बड़े खतरे हैं, क्योंकि ये टुकड़े किसी अन्य सैटेलाइट को नुकसान पहुंचा सकते हैं. दुनिया का कोई भी कंप्यूटर यह नहीं बता सकता कि स्पेस में ध्वस्त सैटेलाइट के टुकड़े किस दिशा में गति कर रहे हैं. इसलिए भारत ने ए-सैट मिसाइल का परीक्षण कर स्पेस में कूड़ा इकट्ठा करने का काम किया है, हमें इससे बचना चाहिए.
स्पेस में स्थित एक सैटेलाइट के बारे में मालूम होता है और उस पर नजर रखी जा सकती है. लेकिन, अगर सैटेलाइट का टुकड़े स्पेस में हैं, तो उन पर नियंत्रण नामुमकिन है. ए-सैट मिसाइल तकनीक के इस्तेमाल की यह बड़ी चुनौती है, वैज्ञानिकों को इसका ध्यान रखना चाहिए.
परीक्षण के बाद अपने संदेश में प्रधानमंत्री मोदी ने दावा किया कि स्पेस में ये टुकड़े नुकसान नहीं पहुंचायेंगे. जबकि दुनिया का कोई भी वैज्ञानिक या कोई विज्ञान संस्था यह दावा नहीं कर सकते कि स्पेस में कूड़ा कोई नुकसान नहीं पहुंचायेगा. इसलिए, यह कहना कि इस परीक्षण से देश की सुरक्षा सुनिश्चत होती है, यह सही नहीं है.
क्योंकि दूसरे देशों में भी होड़ लगेगी ऐसा परीक्षण करने के लिए, जो स्पेस में युद्ध का माहौल बना देगा. विज्ञान और तकनीक पर राजनीति होगी, तो इससे विज्ञान और तकनीक ही कमजोर होंगे और इससे विज्ञान और तकनीक की संस्थाएं भी कमजोर होंगी. इन संस्थाओं के कमजोर होने का अर्थ है कि देश असुरक्षा की ओर बढ़ेगा. हर हाल में विनाशकारी विज्ञान और तकनीक को बढ़ावा देने के बजाय जनहितकारी विज्ञान और तकनीक की तरफ बढ़ना चाहिए.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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