-राहुल सिंह-
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#WorldRadioDay: बचपन से अबतक मेरे जीवन से ऐसे जुड़ा रहा रेडियो
-राहुल सिंह- रेडियो मेरे लिए हमेशा से सूचनाओं और मनोरंजन का सबसे रोचक माध्यम रहा है. बचपन से लेकर अबतक. हम बालपन में जब अपने गांव जाते थे, तो वहां मैं अपने छोटे बाबा को हाथ में रेडियो लिये सुबह-सुबह देखता था. वे सुबह दरवाजे पर पहुंच जाते और रेडियो को ट्यून कर बैठ जाते […]
रेडियो मेरे लिए हमेशा से सूचनाओं और मनोरंजन का सबसे रोचक माध्यम रहा है. बचपन से लेकर अबतक. हम बालपन में जब अपने गांव जाते थे, तो वहां मैं अपने छोटे बाबा को हाथ में रेडियो लिये सुबह-सुबह देखता था. वे सुबह दरवाजे पर पहुंच जाते और रेडियो को ट्यून कर बैठ जाते थे. अमूमन यह समय सुबह 7.55-7.50 का होता था. कुछ मिनटों में कुछ बुजुर्ग, कुछ युवा और कुछ बच्चे उनके आसपास इकट्ठा हो जाते थे. ठीक आठ बजे उनके रेडियो पर आकाशवाणी का बुलेटिन शुरू हो जाता था और वहां पूर्ण शांति होती थी. हर कोई ध्यान से बुलेटिन सुनता और बुलेटिन खत्म होने के बाद ही खबरों पर टीका-टिप्पणी या उसका विश्लेषण शुरू होता था. यह स्थिति 90 प्रतिशत गांव के आत्म अनुशासन (तब) के कारण बनती थी और 10 प्रतिशत बाबा के व्यक्तित्व का असर था.
हम थोड़ा बड़े हो रहे थे. गांव में जरूरी शादी-विवाह के अलावा छठ की छुट्टी पर जरूर जाना होता था. 1984 में छठ पर्व का सुबह का अरग 31 अक्तूबर को पड़ा था. हमारे गांव के बड़े से मैदान में उन दिनों महापर्व छठ की समाप्ति पर बड़ा फुटबॉल टूर्नामेंट आयोजित होता था, जिसमें दूर-दूर के गांव की टीमें हिस्सा लेती थीं. मेला-सा लगता था…तो 31 अक्तूबर 1984 को मैं सात साल की उम्र में अपने चचेरे-फुफेरे भाइयों के साथ गलबहियां कर टूर्नामेंट के मेले में व्यस्त था, पापड़ खा रहा था. इसी दौरान भीड़ में गांव के किसी आदमी ने खबर दी कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके ही बॉडीगार्ड ने हत्या कर दी है. टूर्नामेंट के रंग में भंग पड़ गया. शोर-शराबा थम गया और हर जुबान पर अब इंदिरा गांधी की चर्चा शुरू हो गयी. दरअसल, टूर्नामेंट के दौरान यह खबर रेडियो पर ही मिली थी. उस दौर में गांव में लोग अपने हाथों में रेडियो लेकर खेत, खलिहान, रोड व आसपास एक-दो किलोमीटर तक चला जाया करते थे. सूचनाएं भी मिलती थीं, लता दीदी से लेकर किशोर कुमार तक के कर्णप्रिय गानों से मनोरंजन भी हो जाता था. तब एक रेडियो पर 25-50 लोग क्रिकेट कमेंटरी भी सुनते थे. कई लोग अपनी साइकिल के आगे लगे बॉस्केट में रेडियो रखते थे और जहां जाते वह साथ रहता. वह आखिरी दौर था जब मध्यवर्ग तक में शादी में दूल्हे को दहेज कहें या उपहार स्वरूप साइकिल-रेडियो मिला करता था, जैसे आज बाइक-फ्लैट टीवी मिलता है.
मैं अब हाइस्कूल में पहुंच गया था. 90 के दशक की शुरुआत हो गयी थी. मैं हाइस्कूल पहुंच गया था. टीवी का क्रेज काफी तेजी से बढ़ रहा था. रेडियो का असर फीका हो रहा था. लेकिन, मेरे भैया को कंपीटिशन की तैयारी करनी थी, सो उन्होंने कुछ पैसों का जुगाड़ कर रेडियो खरीदा. उस रेडियो के जरिये हम दोनों भाई देश-दुनिया की सूचनाओं से हमेशा अपडेट रहते थे. हाईस्कूल से निकलते-निकलते मुझे बीबीसी हिंदी सेवा की लत लग गयी. सुबह और रात दोनों बुलेटिन मैं नियमित सुना करता था. घर से बाहर होने पर उसे नहीं सुन पाने पर एक अजीब बेचैनी होती थी. यह बीबीसी हिंदी सेवा व रेडियो के प्रति मेरा लगाव था और रात में पढ़ाई खत्म होने पर उस पर बजने वाले सुमधुर गानों के जरिये नींद की शुरुआत करता था. चार बजे रेडियो पर गानों का पिटारा खुलता है और उसे लंबे समय तक सुनता रहा. उसके सेल्यूलाइड के सितारे, हैलो फरमाइश, जयमाला व हवामहल कार्यक्रम अब भी याद हैं.
विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की पढ़ाई के दिनों में एक प्रोफेसर ने हमें क्लास में बताया था कि रेडियो ने अबतक (उस समय तक) सबसे कम समय में फैलने वाली खबर को बीबीसी रेडियो पर प्रसारित किया. उतना याद नहीं उन्होंने आठ मिनट का तब जिक्र किया था. क्लॉस में रेडियो की महिमा वे हमें जनसत्ता में काम करने वाले हमारे एक सीनियर का हवाला देकर भी बताते थे कि वे अपने न्यूजरूम में भी अपने साथ रेडिया रखते हैं.
अब अपने सीनियर की तरह हम भी पत्रकार बन गये थे. पत्रकारिता हमें खींचते-खींचते दिल्ली ले गयी. उस दौर में मैं और मेरा एक दोस्त साथ रहते थे. उसने एक दिन कहा – यार हमें एक रेडियो रखना चाहिए. मैंने भी कहा हां यार. फिर हम दोनों बस पकड़ कर पांडवनगर से कनाटप्लेस एक बड़े इलेक्ट्रानिक स्टोर में पहुंच गये. हमने वहां जाकर कहा – हमें रेडियो चाहिए. वह बड़ी दुकान थी, जहां सस्ते टीवी तक नजर नहीं आ रहे थे. दुकान के स्टॉफ ने हम दोनों का चेहरा ध्यान से देखा और फिर धीमी आवाज में बोला – रेडियो चाहिए? हमने कहा – हां. फिर उसने पीछे पलट कर स्टोर को देखा. उसे एक जगह इकलौता रेडियो दिखा, जो कोने में पड़ा था और उस पर धूल की परतें थीं. एक मशहूर कंपनी के उस रेडियो को उसने हमें धूल झाड़कर दिया और हमने उसे साढ़े सात सौ रुपये में ऐसे खरीदा जैसे कोई दुर्लभ चीज मिल गयी हो. उसे हाथ में लेकर हम इतने खुश थे कि मानो कोई ट्रॉफी मिली हो. तो यह रेडियो के प्रति हमारा लगाव था.
परिस्थितियां बदलीं. हम दिल्ली से रांची आ गये और मेरे दोस्त द्वारा चुकाये गये पैसे से खरीदा गया वह रेडियो भी साथ-साथ रांची आ गया. कई बार गिरने से उसका एक हिस्सा टूट गया है और बच्चों के कारण कई बार खराब भी हुआ है, लेकिन उसे एक मिस्त्री से मैं अब भी ठीक करवा लेता हूं. शायद उस मिस्त्री के पास रेडियो लेकर जाने वाला मैं इकलौता शख्स होता हूं, इसलिए वह मुझे पहचान भी गये हैं जो व्यस्त रहने पर भी मेरे विनम्र आग्रह पर मेरा काम कर देते हैं.
अब डिजिटल क्रांति का दौर है. मेरे पास भी स्मार्ट फोन है, जिसमें ठीक-ठाक इंटरनेट सर्विस है. मेरे फोन पर कई प्रमुख न्यूज एप्स हैं जो मिनटों में मुझे देश-दुनिया का हर अपडेट्स देते हैं, लेकिन रेडियो के बिना मैं सूचनाओं के लिए अधूरा हूं. मैं हर रोज अपने आधे टूटे रेडियो पर सुबह आठ बजे आकाशवाणी सुनता हूं. उसमें मुझे सटीक, टू दि प्वाइंट सभी सूचनाएं मिलती हैं. टेपरिकार्डर-कंप्यूटर से अधिक पसंद मुझे रेडियो पर गाना सुनना लगता है, इसकी वजह हैं…तो इस तरह मेरे जीवन से गूंथा है रेडियो, जिसके बिना मैं खुद को अधूरा महसूस करता हूं.
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