सूचना आयोग व लोकायुक्त कार्यालय ऐसी संस्थाएं हैं, जहां आम आदमी अपने अधिकारों को पाने के लिए गुहार लगाता है. कई मामलों में ये दोनों संस्थाएं आम आदमी के लिए एक -दूसरे के पूरक के बतौर भी काम करती हैं. लोग आरटीआइ के जरिये सूचना प्राप्त करते हैं और फिर गड़बड़ियों व भ्रष्टाचार के मामले से जुड़ी शिकायतें लोकायुक्त से करते हैं. इससे व्यवस्था में कुछ हद तक सुधार हुआ है, लेकिन अभी लड़ाई लंबी है. इन दोनों संस्थाओं को और अधिक प्रभावी बनाना भी जरूरी है. इन संस्थाओं की भूमिका, सीमा, जरूरतों व आम आदमी के हितों के संरक्षण से जुड़े विषयों पर झारखंड के मुख्य सूचना आयुक्त सेवानिवृत्त न्यायाधीश दिलीप कुमार सिन्हा व लोकायुक्त सेवानिवृत्त न्यायाधीश अमरेश्वर सहाय से राहुल सिंह ने बातचीत की. प्रस्तुत है प्रमुख अंश :
सूचना के अधिकार(आरटीआइ) कानून से समाज में किस तरह के बदलाव आये हैं?
इस सवाल का जवाब मुझसे बेहतर आमलोग देंगे. वैसे लोग जो सूचना मांगते हैं. लेकिन मैं यह मानता हूं कि सूचना के अधिकार कानून से लोगों में जागरूकता आयी है. लोग अब जानना चाह रहे हैं कि सरकारी स्कीम में कितने पैसे खर्च हो रहे हैं. अंचल, मुफस्सिल के कार्यालय से लोगों को अधिकार मिल रहा है. आरटीआइ के कारण वहां उनकी शिकायतें सुनी जा रही हैं.
क्या राजनीतिक दलों को आरटीआइ के दायरे में आना चाहिए. उन्हें इसमें दिक्कत क्या है, वे क्यों नहीं आना चाह रही हैं?
राजनीतिक दल भी पब्लिक ऑथीरिटी हैं. उन्हें सरकार से जमीन मिलती है. सरकार से मिले भवन में वे अपना कार्यालय खोलते हैं. आकाशवाणी, दूरदर्शन पर उन्हें सरकार की ओर से अपनी बातें, अपना पक्ष रखने के लिए समय मिलता है. जब आप (राजनीतिक दल) ये सेवाएं, सुविधाएं ले रहें हैं, तो फिर आप पब्लिक ऑथीरिटी हैं. अत: आपको (राजनीतिक दलों को) आरटीआइ के दायरे में आना चाहिए. हम (सूचना आयोग) उन्हें यही बात कह रहे हैं.
एनजीओ में बड़ी गड़बड़ियों होती हैं. वे भी सरकार के पैसे से चलते हैं. उनके खिलाफ आरटीआइ का प्रयोग उतना प्रभावी ढंग से नहीं हो रहा है?
एनजीओ भी आरटीआइ के दायरे में आते हैं. हमारे यहां लोग आते हैं. वे स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ) से संबंधित सूचनाएं चाहते हैं. राज्य में कई एनजीओ हैं, जिनसे सूचनाएं आमलोगों ने मांगी है.
देश में चलने वाली निजी कंपनियां भी देश के नियम-कानून से चलती हैं. क्यों नहीं उन्हें एक हद तक सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाया जाये?
भारत में जितने संगठन हैं, सबों को इसके दायरे में आना चाहिए. लेकिन फिलहाल इसके दायरे में आने के लिए संगठनों की जो परिभाषा दी गयी हैं वे सार्वजनिक संगठन चाहे राज्य या केंद्र के हों, ही आते हैं. यह सरकार के संगठन या सरकार से अनुदान प्राप्त संगठनों तक ही सीमित है. इसलिए फिलहाल सिर्फ पब्लिक ऑथीरिटी ही इसके दायरे में आते हैं.
विसल्ब्लोअर विधेयक को सरकार संसद में पारित करवाने की बात कह रही है. क्या इसके पारित होने के बाद उनकी सुरक्षा सुनिश्चित होने के बाद आरटीआइ और वह नया कानून एक-दूसरे के लिए मददगार साबित होगा?
विसल्ब्लोअर अभी भी देश में काम कर रहे हैं. वे विभिन्न माध्यमों से भ्रष्टाचार का खुलासा करते हैं, लेकिन उन पर हमले हो रहे हैं. उनकी हत्या भी हो जा रही है. उनकी सुरक्षा सुनिश्चित होनी चाहिए. सरकार को उन्हें हर संभव सुरक्षा व सहायता मुहैया कराना चाहिए.
पंचायतों से हमारे पास फोन आते हैं कि वे पंचायत कार्यालय में कहां आरटीआइ आवेदन दें?
आरटीआइ के दायरे में पंचायतें भी आती हैं, क्योंकि वे भी पब्लिक ऑथीरिटी हैं. उनके कार्यालय में भी जन सूचना पदाधिकारी होना चाहिए. आमलोग जन सूचना पदाधिकारी और पंचायत का नाम लिख कर सूचना मांग सकते हैं.
निचले स्तर से आरटीआइ से जुड़ी शिकायतें ज्यादा आती हैं. जैसे प्रखंड कार्यालय से लोगों को सूचना पाने में काफी दिक्कतें आती हैं? गांवों में आरटीआइ को कैसे प्रभावी बनायें?
वैसे लोगों पर हमलोगों ने जुर्माना लगाया है. कई बीडीओ व सीओ पर सूचना नहीं देने के कारण जुर्माना किया गया है. उन्हें भी आमलोगों को सूचना उपलब्ध करानी है. दूसरी बात हमलोग गांव के लोगों को मात्र 10 रुपये के पोस्टल ऑर्डर पर सूचनाएं उपलब्ध करवा रहे हैं. लोगों को सूचना का अधिकार कानून से बड़ी राहत मिल रही है. जब उन्हें कहीं से कोई राहत नहीं मिलती तो इस कानून से उन्हें सहज ढंग से सस्ते में सूचना मिल जाती है और उनका काम हो जाता है.
नागरिक अधिकारों को और मजबूती देने के लिए और किस तरह की संस्थाएं या कानून चाहिए?
नागरिक अधिकार सिर्फ बना देने से नहीं होगा. अभी भारत में जितने कानून हैं, अगर उन्हीं पर प्रभावी ढंग से अमल हो तो वे काफी हैं. देश में वर्तमान में लगभग बारह हजार से साढ़े बारह हजार के बीच कानून हैं. हां, यह जरूरी है कि लोगों को इनके लिए जागरूक किया जाये.
सूचना के अधिकार कानून को को लागू करने में प्रभावी बनाने में किस तरह की दिक्कतें आती हैं?
जन सूचना पदाधिकारी समझते हैं कि उन्हें सूचना देनी है. लेकिन हर जगह अभी कर्मचारी व संसाधन की कमी है. अगर किसी संस्था में आरटीआइ आवेदन जाता है, तो वहां के कर्मचारी व संसाधन को दूसरे काम से डायवर्ट कर उस काम में लगाना पड़ता है. उनकी भी बाध्यता है कि वे एक निश्चित समय में सूचना लोगों को उपलब्ध करायें. कार्यालयों में चार-पांच साल का भी पुराना प्रॉपर रिकार्ड नहीं है. ऐसे में चार-पांच साल के रिकार्ड को खोजना पड़ता है.
झारखंड सूचना आयोग का काम कैसे चल रहा है?
हमारे यहां हर दिन लगभग 50 केस की सुनवाई होती है और इसमें 20 का निष्पादन कर दिया जाता है. पहले आयोग में सात सदस्य थे, फिर मैं अकेला रह गया. अब एक और सदस्य अप्रैल 2013 से आ गये हैं. ऐसे में मामलों के निष्पादन किया जा रहा है.
क्या आप महसूस करते हैं भ्रष्टाचार व पारदर्शिता से जुड़ा सवाल आज देश में सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है?
हमारे यहां पारदर्शिता लाने और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए ही ये तमाम कानून बनाये गये हैं.
डीके सिन्हा
मुख्य सूचना आयुक्त, झारखंड