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सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करने की जरूरत

आशिमा, लेखिका स्वतंत्र पत्रकार आमतौर पर गणतंत्र का अर्थ जनता के शासन, वोट देने की संस्कृति और एक भौगोलिक क्षेत्र में लागू संविधान तक ही सीमित करके देखा जाता है. खुशी की बात है कि हमारे देश में यह सब है भी, लेकिन विडंबना है कि व्यावहारिक पटल पर पहुंचते ही अनेकों सवाल खड़े हो […]

आशिमा, लेखिका स्वतंत्र पत्रकार

आमतौर पर गणतंत्र का अर्थ जनता के शासन, वोट देने की संस्कृति और एक भौगोलिक क्षेत्र में लागू संविधान तक ही सीमित करके देखा जाता है. खुशी की बात है कि हमारे देश में यह सब है भी, लेकिन विडंबना है कि व्यावहारिक पटल पर पहुंचते ही अनेकों सवाल खड़े हो जाते हैं. आज के दिन लागू होनेवाला संविधान, जहां मौलिक अधिकार देता है, जाति, लिंग धर्म के आधार पर किसी भी भेदभाव को मना करता है, वहीं हमारे देश का एक बहुत बड़ा तबका जाति के आधार पर भेदभाव छोड़िए हैवानियत की सारे हदें पार कर चुका है, धर्म के आधार पर हिंसा आम है और महिलाओं की स्थिति का अंदाजा तो सहज ही लग जाता है.

संविधान निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था कि किसी देश की तरक्की का अंदाजा वहां की महिलाओं की स्थिति में परिलक्षित होता है. जाहिर है बाबा साहेब की चिंता जो देश के वंचित तबके को लेकर थी, उसका समाधान हमारे संविधान में खोजने की कोशिश की गयी. बात को और विस्तार से समझने के लिए गणतंत्र दिवस के साथ-साथ हम स्वतंत्रता दिवस पर भी प्रकाश डालते हैं. समझना होगा कि देश के स्वतंत्रता संघर्ष में जितने सेनानी उस समय लगे थे, उनकी चिंता देश को केवल अंग्रेजी शासन से आजाद करवाने की नहीं थी, बल्कि पहले से ही व्याप्त देश में फैली गैर बराबरी को भी खत्म करने की थी.

यानी कि स्वतंत्रता दिवस जहां अंग्रेजी शासन से मुक्ति का नाम है, वहीं गणतंत्र दिवस देश का प्रशासन बराबरी के हक से लिखने की कहानी है. जहां अंग्रेज मुक्त देश को समस्त सौहार्द के साथ आगे बढ़ने की दिशा प्रदान हुई. कुल मिला कर गणतंत्र स्थापित होने के बाद इस सामाजिक भेदभाव पर लगाम लगनी चाहिए थी, क्योंकि अब तो हमारे पास अपना संविधान था, जिसमें देश के हर नागरिक को सम्मानजनक जीवन जीने के प्रावधान था. अंग्रेज कब का देश छोड़ कर चले गये, लेकिन गैर बराबरी का खौफनाक चेहरा हम आज तक देख रहे हैं. चिंताजनक है कि आज भी देश का वंचित तबका भेदभाव का दंश झेल रहा है. दावा किया जाता है कि जाति आधारित भेदभाव अब बीते समय की ही बात रह गयी है. दुखद है कि इस सच्चाई से समाज का बहुत बड़ा तबका मुंह मोड़ता है. खैर सवाल यह भी है कि ऐसा दावा करने वाला तबका कौन-सा है, उसका समाजशास्त्रीय विश्लेषण करना बनता है.

आखिर क्या वजह है कि एक खास जाति के कुछ लोग अपनी जाति के झूठे घमंड में एक दलित को सरेआम मार डालने को अपना हक समझते हैं. जाति के आधार पर छोटी कही जाने वाली जाति की लड़कियों का बलात्कार भी आम है. यहां याद रहे कि देश में मानव तस्करी, जबरन वेश्यावृत्ति में सबसे बड़ा तबका छोटी कही जाने वाली जाति का या आदिवासी लड़कियों का होता है, तो आज किस मुंह से कह सकते हैं कि हम अपने गणतंत्र को सही ढंग से लागू करने में कामयाब हो पाये हैं. बीते दिनों की एक खबर के मुताबिक, चंद लोगों ने एक दलित युवक को सरेआम बेरहमी से पीटा और उससे अपनी आस्था के भगवान का नाम जबरन बुलवाया.

ऐसे लोगों ने अपने मानसिक दिवालियापन का परिचय दिया, वह अलग. साथ ही विविधता वाले इस देश के सर्वधर्म सद्भाव को भी कलंकित किया. इसके साथ ही यह सवाल उठना चाहिए कि आखिर इस खौफनाक जुर्रत को बल कहां से मिलता है? कहां से आती है इतनी हिंसा करने की हिम्मत?

यदि मसले को सकारात्मक दिशा दें और यह कहा जाये कि आज हमारे देश के राष्ट्रपति भी दलित समुदाय से हैं और कई जगह इस तबके के लोग समाज को प्रतिनिधित्व प्रदान कर रहे हैं, हालांकि प्रतिनिधित्व का भी अपना एक बहुत बड़ा महत्व है, लेकिन फिर भी विचारणीय बिंदु वहीं-के-वहीं ही है. क्योंकि मामला केवल वंचित तबकों के प्रतिनिधित्व मात्र का नहीं है. सत्ता के पूरे ढांचे में प्रतिनिधित्व तय करने के जो औजार हैं, उसमें दलितों की क्या भूमिका है, यह उससे तय होता है.

हमारा देश विविधता से भरा है और हरेक आस्था विश्वास वाले नागरिक को सम्मान से रहने का पूरा अधिकार है. ये तमाम अधिकार हमारा संविधान हमें मूल रूप से प्रदान करता है. ऐसे में समझना होगा कि समाज के कौन से तत्व हैं, जिन्हें बराबरी कायम करने वाले संविधान से समस्या है, जिन्हें यह बराबरी नागवार गुजर रही है, वे कौन से तबके हैं, जिनको जातिगत भेदभाव बुरा नहीं लगता है और कौन से वे लोग हैं, जिन्हें जातिगत भेदभाव बनाये रखने में सहूलियत महसूस होती है. आज जितना जाति आधारित भेदभाव देखने को मिलता है, उससे साफ है कि संविधान एक ऐसी व्यवस्था है, जिसकी बदौलत न जाने कितने ही दलितों और वंचितों के मुख्य धारा में आने का रास्ता साफ हुआ, बराबरी का नागरिक कहलाने का हक मिला, यही बात महिलाओं और अन्य वंचित तबकों पर भी लागू होती है. यानी कि संविधान न होता तो इस तबके की बुरी हालत का अंदाजा लगाना इतना भी कठिन नहीं है.

देश पहले ही इतनी समस्याओं से जूझ रहा है, लेकिन बीते दिनों एक फिल्म को लेकर समाज के एक तबके ने जिस तरह का माहौल देश में पैदा किया, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस तरह का समाज हम तैयार कर रहे हैं. फेहरिस्त लंबी है, ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं, जिनसे साबित होता है कि हम व्यावहारिक पटल पर संविधान की मूल अवधारणा को लागू कर पाने में न केवल फेल हुए हैं, बल्कि वैश्विक पटल पर भी अच्छे उदाहरण नहीं छोड़ रहे. यदि संविधान की मूल भावना का सामाजिक रूप से भी लागू किया जाये, तभी देश की तस्वीर बदलेगी.

Prabhat Khabar Digital Desk
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