अप्रैल की गर्म कर देनेवाली पछुआ हवाओं के बीच देश अब मतदान-केंद्र की तरफ बढ़ चला है तो ठोस तथ्यों और तर्को से होनेवाली जांच-परख की एक तरह से विदाई हो रही है. और इन पर हावी हो रहा है जन-संपर्क उद्योग का प्रचार-अभियान. पहला है नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व पर चढ़ाया जा रहा रंग-रोगन ताकि वह लोगों की नजर में चढ़ जाए.
अ धिनायकवादी चरित्र और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिक्रियावादी मूल्यों में अंदर तक धंसे नरेंद्र मोदी जिनकी संभवत: 2002 के गुजरात दंगों में भी मिलीभगत रही हो, अब एक संकटमोचक की छवि में बदल गये हैं यानी एक ऐसा खेवैया, जिससे उम्मीद बांधी जाय कि वह भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी के भंवर से बचाते हुए देश की नैया पार लगायेगा. यह संकटमोचक इतना कुछ कैसे कर पायेगा, इसे हमारी कल्पना के भरोसे छोड़ दिया गया है. प्रचार के सारे अफसाने में हक की यही बात गायब है.
खुद भारतीय जनता पार्टी की छवि भी साफ-सुथरा शासन देनेवाली पार्टी के रूप में चमकायी जा रही है, यह तथ्य आंखों से ओझल करके कि भ्रष्टाचार के मामले में भाजपा और कांग्रेस के बीच शायद ही कोई फर्क है. ठीक इसी तरह अवसर के अनुकूल गुजरात की छवि भी संवारी गयी है. कई मतदाता मतदान-केंद्र तक मन में यह छवि लेकर जायेंगे कि गुजरात, जापान जैसा बन चला है और मोदी के हाथ में बागडोर देने पर पूरे देश के लिए यही संभावना पैदा होगी.
मोदी-प्रशंसक कुछ अर्थशास्त्रियों ने विकास के मोरचे पर गुजरात की चकाचौंध भरी प्रगति की व्याख्या में तर्कपेश किया है कि यह सब निजी उद्यम और आर्थिक-वृद्धि की वजह से हुआ है. यह व्याख्या व्यावसायिक मीडिया में खूब लोकप्रिय है क्योंकि यह व्याख्या कारपोरेट जगत के इस विचार के एकदम माफिक बैठती है कि सरकार का मुख्य काम व्यापारिक हितों को बढ़ावा देना है. बहरहाल, जैसा कि सधे-संयमित मिजाज के कुछ विद्वानों (मसलन रघुराम राजन, अशोक कोटवाल, मैत्रेश घटक सहित कुछ अन्य प्रसिद्ध अर्थशास्त्री) ने बताया है, वस्तुत: गुजरात का विकास अभूतपूर्व होने से अभी कोसों दूर है. हां, ये जरूर है कि पिछले बीस बरसों में गुजरात आगे बढ़ा है. कोई गुजरात की यात्र करे तो वहां की अच्छी सड़कों, कुकुरमुत्ते की तरह फैली फैक्ट्रियों और नियमित बिजली-आपूर्ति को नजरअंदाज नहीं कर सकेगा. लेकिन वहां के लोगों की जीवन-दशा के बारे में भी सोचिए.
विकास का मापदंड : हम चाहे गरीबी, पोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य के निर्देशांकों को ध्यान में रखें या फिर इनसे जुड़े अन्य सूचकांकों को, एक सिरे से नतीजा यही निकलेगा कि गुजरात कई मायनों में अखिल भारतीय औसत से थोड़ा आगे है लेकिन इस विकास में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके आधार पर गुजरात को एक मॉडल (आदर्श) कहना तार्किक जान पड़े. जिस किसी को इस बात पर संदेह हो, वह हालिया राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, या फिर रघु राजन समिति की रिपोर्ट को डाउनलोड करके स्वयं तथ्यों की पुष्टि कर सकता है- इसके लिए पीएचडी करने की जरूरत नहीं. इस तर्क की काट में गुजरात मॉडल के पैरोकार कहते हैं कि गुजरात के सामाजिक-सूचकांकों को उसके विकास का आधार बनाना ठीक नहीं, बल्कि यह देखना जरूरी है कि समय गुजरने के साथ गुजरात के सामाजिक-विकास के सूचकांकों में कितना सुधार हुआ है. उनका दावा है कि अन्य राज्यों की तुलना में गुजरात ने तेज गति से प्रगति की है और खासतौर पर यह प्रगति मोदी के मुख्यमंत्री रहते हुई है. लेकिन अफसोस कि यह दावा भी झूठा साबित हुआ है. वस्तुत: गुजरात 1980 के दशक में भी अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर कर रहा था.
गुजरात कोई अलग नहीं : इसके बाद से गुजरात का तुलनात्मक स्थान ज्यादातर एक जैसा रहा है, यहां तक कि कुछ मामलों में तो नीचे गया है. इस बात को एक उदाहरण के जरिये समझा जा सकता है. गुजरात में शिशु मृत्यु-दर अखिल भारतीय औसत से बहुत अलग नहीं है: प्रति हजार जीवित शिशुओं के जन्म पर गुजरात के लिए यह दर 38 शिशुओं का है जबकि अखिल भारतीय औसत 42 शिशुओं का. ऐसा भी नहीं कि शिशु मृत्यु-दर को कम करने के मामले में गुजरात शेष भारत की तुलना में अधिक तेजी से प्रगति कर रहा है. बीस साल पहले शिशु मृत्यु-दर के मामले में शेष भारत से गुजरात का अंतर कहीं ज्यादा बेहतर था. जहां तक अन्य सूचकांकों का सवाल है, तसवीर कम या अधिक (जोर के हिसाब से) गुजरात के पक्ष में नजर आती है. कुल मिला कर, उपलब्ध आंकड़ों से ऐसी कोई स्पष्ट तसवीर नहीं उभरती कि गुजरात ने अद्वितीय प्रगति हासिल की है. संक्षेप में कहें तो तुलनात्मक अर्थों में गुजरात के विकास का रिकार्ड बुरा नहीं है, लेकिन केरल की तो छोड़ दें, उसे तमिलनाडु या फिर हिमाचल प्रदेश जितना भी बेहतर नहीं कहा जा सकता. यहां एक और मुद्दा भी है. क्या गुजरात का विकास वास्तव में निजी उद्यम और आर्थिक-वृद्धि पर आधारित है? यह सिर्फ कहानी का एक हिस्सा है.
भ्रामक चित्रण ज्यादा: वर्ष 1980 के दशक में जब मैं गुजरात गया था तो उत्तर भारत के बड़े राज्यों की तुलना में गुजरात में बहाल सामाजिक सेवाओं और सार्वजनिक सुविधाओं को देख कर दंग रहा गया था. मिसाल के लिए, गुजरात में उस वक्त ही प्राथमिक विद्यालयों में दोपहर का भोजन देने की योजना चल रही थी. इस मामले में गुजरात तमिलनाडु से दशकों पीछे भले रहा हो, लेकिन शेष भारत से दशकों आगे था. गुजरात में सार्वजनिक वितरण प्रणाली सुचारू ढंग से चल रही थी, तमिलनाडु जितनी कारगर ना सही, तो भी यह प्रणाली उत्तर भारत की तुलना में बहुत बेहतर थी. तब गुजरात में सुखाड़ के समय राहत-कार्य पहुंचाने की व्यवस्था भी बड़ी अच्छी थी और (महाराष्ट्र के साथ) गुजरात इस मामले में प्रावधान रचने के मामले में अगुआ साबित हुआ. बाद के दिनों में ऐसे बहुत से प्रावधान राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में शामिल किये गये. गुजरात की आज के समय की उपलब्धियां, अपने मौजूदा स्वरूप में, जितनी सरकारी क्षेत्र के जरिये कारगर सेवा प्रदान करने की उसका क्षमता की देन हैं, उतनी ही निजी उद्यमों और आर्थिक-वृद्धि की. संक्षेप में बात यह है कि गुजरात मॉडल की कथा, जिसे चुनावों के लिए नमक-मिर्च लगा कर परोसा जा रहा है, कम से कम तीन बातों में भ्रामक है.
सामाजिक असमानता : एक, यह कथा गुजरात की विकास संबंधी उपलिब्धयों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करती है. दूसरे, यह कथा मान ही नहीं पाती कि गुजरात की विकासपरक उपलब्धियों का रिश्ता नऱेंद्र मोदी से ना के बराबर है. तीसरे, यह कथा बिना परखे गुजरात की उपलब्धियों को निजी उद्यम और आर्थिक-वृद्धि की देन ठहराती है. और, यह सब गुजरात के विकास के स्याह पहलू जैसे पर्यावरण के विनाश या फिर राजकीय दमन की बात पर गौर किये बगैर होता है. आखिरी बात यह कि गुजरात एक दिलचस्प पहेली है. पहली यह कि इतने लंबे समय के तेज आर्थिक प्रगति और गवर्नेंस के अपेक्षाकृत उच्च स्तर के बावजूद सामाजिक विकास के निर्देशांक गुजरात में गतिहीन क्यों हैं? शायद इस बात का रिश्ता आर्थिक और सामाजिक असमानता (जिसमें स्त्री-पुरु ष के रिश्तों में व्याप्त भारी गैर-बराबरी शामिल है) से है, या फिर हो सकता है सामाजिक विकास सूचित करने वाले भारत के आंकड़े ही पुराने पड़ चुके हैं या यह भी हो सकता है कि कारगर सार्वजनिक सेवा प्रदान करने के मामले में गुजरात अपनी पहले वाली प्रतिबद्धता ना दिखा पा रहा हो. नरेंद्र मोदी के पक्ष में सतही प्रचार करने की जगह इस पहेली को सुलझाना दरअसल दिमाग के लिए कहीं ज्यादा उपयोगी साबित होगा.
(लेखक रांची विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में विजिटिंग प्रोफेसर हैं.)
ज्यां द्रेज