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इस बार देसी दीये व मूर्ति बाजार में तेजी के आसार

सारवां : पहले पर्व-त्योहार में मिट्टी के बने दीपक, मूर्ति, हांडी समेत अन्य सामान हमारी संस्कृति व विरासत का अहम हिस्सा हुआ करती थी. पिछले कुछ सालों में चीनी उत्पादों के बाजार ने कुम्हार के लिए संकट की घड़ी ला दी है. इससे कुम्हारों में निराशा छायी हुई है. मिट्टी कला काे जिंदा रखने वाले […]

सारवां : पहले पर्व-त्योहार में मिट्टी के बने दीपक, मूर्ति, हांडी समेत अन्य सामान हमारी संस्कृति व विरासत का अहम हिस्सा हुआ करती थी. पिछले कुछ सालों में चीनी उत्पादों के बाजार ने कुम्हार के लिए संकट की घड़ी ला दी है. इससे कुम्हारों में निराशा छायी हुई है. मिट्टी कला काे जिंदा रखने वाले कुंभकारों के समक्ष रोजी रोटी की समस्या उत्पन्न कर दी है.
दिन-भर मेहनत के बाद मिट्टी को गूंथ कर चाक को हाथ से घुमा कर उससे दीया, कच्चा घड़ा, हांडी, तवा, कड़ाही, गिलास समेत अन्य घरेलू व पूजा पाठ की सामग्री के अलावा देवी-देवताओं की मूर्तियों व खिलौनों का निर्माण करते हैं. कड़ी धूप में इन्हें सूखा कर जब बाजार में बेचने के लिए आते हैं तो इनकी निगाहें ग्राहकों के इंतजार में ढूंढती रहती है. अब तो मानो मिट्टी के उत्पाद अब औपचारिकता ही बन कर रह गये हैं.
किसी तरह ग्राहक आते भी हैं तो उनकी कला का ऊंचे मोल भाव कर ले जाते हैं. बाजार में प्लास्टिक निर्मित कोटेड कप, गिलास के अलावा चीन से निर्मित दीपक, स्टार लाइट, मोमबती, आदि सामान सस्ते दाम पर खरीद लेते हैं. जिस वजह से उन लोगों को काफी नुकसान झेलना पड़ता है. कुम्हारों ने पीड़ा सुनाते हुए बताया कि एक वक्त था जब मिट्टी के सामानों के बिना शादी-ब्याह, यज्ञ समेत पूजा-पाठ अधूरा रहता था. लेकिन अब मिट्टी के उत्पादों का कोई मोल नहीं रहा. सरकार की बेरुखी पर भी कुम्हारों में निराशा है.
प्रखंड के बेलटिकरी, कानूडीह, जीवडीह, बगेचा, टुहियो, मडराइनसारे, बन्हेरी, गोपालपुर, कुरावा, बाघापाथर, मनीगढी आदि गांवों में कुंभकार पंडितों की अच्छी खासी आबादी है, लेकिन 75 प्रतिशत लोग अपना पेशे से अलग होकर दूसरे काम धंधे में जुटने को बाध्य हैं. कुछ ही कुम्हार धरोहर को संजोने के लिए इससे जुड़े हैं.

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