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Bokaro News : बोकारो की लक्ष्मीबाई अलवतिया देवी, खूब लड़ी मर्दानी

Bokaro News : जिले की एकमात्र महिला योद्धा, जिसने आजादी की लड़ाई में छोड़ी अमिट छाप, सुदूर ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी अलवतिया को आजादी का जुनून घर से ही मिला.

दीपक सवाल, कसमार, झारखंड के बोकारो जिले का नाम जब भी स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में दर्ज होगा, उसमें एक वीरांगना का उल्लेख विशेष रूप से किया जाना चाहिए- अलवतिया देवी. यह वही साहसी महिला हैं, जिन्होंने पीठ पर दूधमुंहे बच्चे को बांधकर अंग्रेजी हुकूमत से टक्कर ली और बोकारो की एकमात्र महिला स्वतंत्रता सेनानी के रूप में इतिहास में अमिट छाप छोड़ी. अलवतिया देवी का जन्म पेटरवार प्रखंड की कोह पंचायत अंतर्गत काटमकुल्ही (कपसाथान) गांव में हुआ था. उनके पिता शिवदयाल महतो खुद एक जुझारू स्वतंत्रता सेनानी थे. एक सुदूर ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी अलवतिया को बचपन से ही आजादी का जुनून घर के माहौल से मिला. उनका विवाह ओरदाना पंचायत के खैराजारा निवासी जटाशंकर महतो से हुआ, जो स्वयं भी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय थे. इस तरह अलवतिया को पति और पिता, दोनों ही ओर से क्रांतिकारी विचारधारा और संघर्ष की प्रेरणा मिली.

संघर्ष की शुरुआत

शिवदयाल महतो, जटाशंकर महतो और अलवतिया देवी, यह तिकड़ी गांव-गांव घूमकर अंग्रेजी शासन के खिलाफ लोगों को जागरूक और संगठित करती थी. तीनों का यह संघर्ष साधन-संपन्नता से कोसों दूर था. हाथ में तिरंगा, गठरी में चूड़ा और दिल में आजादी का जोश, यही इनकी पूंजी थी. उस समय अलवतिया की बड़ी बेटी महज साल-दो साल की थी, लेकिन मातृत्व ने उनके कदमों को नहीं रोका. पीठ पर बेटी को बांधकर वह आंदोलन में निकल पड़ती थीं. भूख से बिलखता बच्चा हो या कड़ाके की ठंड, अलवतिया का हौसला डिगता नहीं था.

1942 का भारत छोड़ो आंदोलन और त्रासदी

अगस्त 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन स्वतंत्रता संघर्ष का निर्णायक मोड़ था. 8 दिसंबर 1942 को जटाशंकर महतो व उनके ससुर शिवदयाल महतो को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर बांकीपुर जेल में डाल दिया. जेल में भी दोनों का जोश कम नहीं हुआ. वंदे मातरम् के नारे गूंजते रहे, जिससे खफा अंग्रेजों ने इन्हें बेरहमी से पीटा. पिटाई इतनी अमानवीय थी कि शिवदयाल महतो की वहीं जेल में मौत हो गयी और उनका अंतिम संस्कार भी वहीं कर दिया गया. जटाशंकर महतो की हालत भी नाजुक हो गयी और मरणासन्न अवस्था में उन्हें घर भेज दिया गया, जहां दो-तीन दिन बाद उनका भी निधन हो गया. यह त्रासदी अलवतिया के जीवन का सबसे कठिन मोड़ थी. गर्भावस्था में पति और पिता, दोनों को खोना, दो नन्हीं बेटियों की जिम्मेदारी और ऊपर से अंग्रेजी शासन का भय, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. पति की चिता ठंडी होने से पहले ही वह फिर से आंदोलन के मोर्चे पर लौट आईं.

साहस की मिसाल

अलवतिया देवी का साहस केवल उनके हथियार उठाने में नहीं, बल्कि परिस्थितियों को चुनौती देने में भी था. उन्होंने यह साबित किया कि स्वतंत्रता संघर्ष केवल पुरुषों का नहीं, बल्कि महिलाओं का भी उतना ही था. उनके जीवन का हर क्षण इस बात का प्रमाण है कि मातृत्व और देशभक्ति का संगम कैसा अद्भुत रूप ले सकता है. अंग्रेजों ने उन्हें भी गिरफ्तार किया, लेकिन गर्भवती होने के कारण जेल नहीं भेजा. चेतावनी देकर छोड़ देने के बावजूद उन्होंने आंदोलन से दूरी नहीं बनायी. अपने संघर्ष और साहस के कारण ही उन्हें बोकारो की ‘रानी लक्ष्मीबाई’ कहा जाता है.

सम्मान और उपेक्षा

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वर्ष 1972 में अलवतिया देवी को स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन मिलनी शुरू हुई और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हाथों ताम्रपत्र से सम्मानित किया गया. लेकिन यह भी विडंबना है कि जीवन के अंतिम वर्षों में उनकी पेंशन 2017 में अचानक बंद कर दी गयी, जो बाद में स्थानीय विधायक के प्रयासों से बहाल हो सकी. और भी दुखद यह है कि पेटरवार प्रखंड मुख्यालय परिसर में 1972 में स्वतंत्रता सेनानियों के सम्मान में स्थापित शिलापट्ट पर शिवदयाल महतो और जटाशंकर महतो के नाम दर्ज नहीं किये गये. हालांकि, अलवतिया देवी का नाम उस पर है, लेकिन उनके दो निकटतम साथी, उनके पिता और पति इस सूची से बाहर रह गये.

अंतिम पड़ाव

25 जून 2019 को करीब 100 वर्ष की आयु में अलवतिया देवी का निधन हुआ. उनकी बेटियों आशवा देवी और कौशल्या देवी ने मिलकर उन्हें मुखाग्नि दी. गांव में उनकी शवयात्रा निकाली गयी और जोरिया-नाला के पास अंतिम संस्कार हुआ.

नारी-शक्ति की प्रतीक

अलवतिया देवी का जीवन संघर्ष, साहस और देशभक्ति की अद्भुत मिसाल है. वह ना केवल बोकारो की, बल्कि पूरे झारखंड की नारी-शक्ति की प्रतीक हैं. आज जरूरत है कि उनकी स्मृति को संरक्षित किया जाए, उनकी प्रतिमा स्थापित की जाए और आने वाली पीढ़ियों को बताया जाए कि यह वह महिला थी, जिसने अपनी पीठ पर बच्ची को बांधकर भी अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी थी. अलवतिया देवी का नाम बोकारो के इतिहास में सदा-सदा के लिए स्वर्णाक्षरों में दर्ज रहेगा. एक ऐसी महिला के रूप में, जो अपने समय की सच्ची ‘रानी लक्ष्मीबाई’ थीं.

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