Holi 2025: दरभंगा. जीवन के बहुविध रंगों को समेटे फाग गायन से नयी पीढ़ी का नाता टूटता जा रहा है. पारंपरिक होली गीतों के लिए अब कान तरसते रहते हैं. सरस फाग के बोल कानफोड़ू फूहड़ गीतों के शोर में गुम होते जा रहे हैं. इससे मिथिला की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की यह डोर कमजोर पड़ती जा रही है. इसने संस्कृति स्नेहियों को चिंतित कर रखा है. होली में अब फाग गीत और ढोलक व झाल की आवाज़ इक्का दुक्का जगहों को छोड़ सुनाई नहीं पड़ रही है. मन लुभावन होली के पारंपरिक गीत जैसे विलुप्त होते जा रहे है.
ग्रामीण क्षेत्र में भी कम हुआ झुकाव
ग्रामीण क्षेत्र में भी इसके प्रति लोगों का झुकाव कम हुआ है. अब नयी पीढ़ी को न तो स्थानीय होली गीत गाने आता है न होली के सुर वाला ढोलक बजाने आता है. गांव में कुछ उम्र दराज लोग एक दो दिन फाग गीत गाकर अपनी रश्म पूरी कर लेते हैं. दशक पूर्व की बात की जाय तो सरस्वती पूजा के बाद से होली तक हर रात ग्रामीणों की टोली द्वारा ढोलक व झाल के एक विशिष्ट आवाज़ के साथ होली के गीत गाये जाते थे. वृहद स्तर पर सामाजिक समरसता को दर्शाने वाला यह पारंपरिक पर्व अब लगभग सिमटता गया है. एकता और भाईचारा का प्रतीक होली के त्योहार में अब पौराणिक प्रथाएं पूरी तरह गौण हो चुकी हैं. इसके स्वरूप और मायने भी बदल चुके हैं.
वसंत पंचमी से रही है फाग गायन की परंपरा
मिथिला में रंगों के त्योहार होली को लेकर एक अलग ही उत्साह रहता है. इसका रंग करीब तीन पखवाड़ा पहले से ही मिथिलावासियों पर चढ़ जाता है. वसंत पंचमी पर भगवती सरस्वती के चरण में अबीर अर्पण के साथ यहां रंग-गुलाल उड़ने लगते हैं. इसी दिन से फाग गायन की भी परंपरा रही है. रात में भोजन आदि से निवृत्त होकर टोली, मंदिर- ठाकुरवाडी या किसी दरवाजे पर जुट जाती और पारंपरिक होली गीतों के बोल नीरव रात को भी अपनी मदमस्त करने वाली भावधारा में बहा ले जाती. वसंत पंचमी के बाद से ही फाग गायन की परंपरा रही है. होली का त्योहार आते ही कभी ढोलक की थाप व मंजीरों पर देर रात तक फाग गीत गुंजायमान होने लगते थे लेकिन आधुनिकता के दौर में आज ग्रामीण क्षेत्रों की यह परंपरा लुप्त सी हो गई है.
परंपराएं विलुप्त होती नजर आ रही
फाग गीत अपनी मधुर धुन से सभी को अपनी ओर आकर्षित करते थे लेकिन अब पश्चिमी सभ्यता व संस्कृति युवाओं पर इस कदर हावी हो गई है की पुरानी लोकगीत और परंपराएं विलुप्त होती नजर आ रही है. एक समय था जब फागुन महीना आते ही हर गांव में फागुनी गीत सुनाई देते थे. बड़े, बूढ़े, जवान सभी एक साथ मंदिर, मैदान, चौपाल या गांव के किसी व्यक्ति के दरवाजे पर शाम होते ही बैठ जाते थे. होली के गीत, फगुआ, लोक गीतों की धुन पर जैसे पूरा गांव ही फागुनी बयार में डूब जाता था. इन गीतों से गांव की एकता और परस्पर प्रेम परवान चढ़ता था.
आधुनिकता के अंधानुकरण में भूल रहे अपनी संस्कृति
गांव-गांव में फाग गायन करने वालों की टोलियां हुआ करती थी. शायद ही कोई ऐसा गांव रहा हो, जहां टोली नहीं थी. जैसे ही डंफे पर थाप पड़ती उम्र-वर्ग के सारे फर्क मिट जाते और जीवन में आनंददायी मादक उमंग का नव संचार करने वाले फाग गायन में सभी समवेत हो जाते थे. पुरानी पीढ़ी के साये में नई पीढ़ी तैयार होती थी. लेकिन, अब यह दृश्य विरले गांव में ही दिखते हैं. वहां भी नई पीढ़ी इससे दूर ही नजर आती है. फूहड़ गीतों पर ठुमके लगाते जरूर लोग नजर आ जाते हैं.
नई पीढ़ी को दोष देना सही नहीं
होली गायन की परंपरा के डोर टूटने की वजह आधुनिकता के अंधानुकरण में अपनी संस्कृति के प्रति बढ़ते हेय भाव और पलायन प्रमुख कहा जा सकता है. लोक गीतों के मर्मज्ञ मैथिली साहित्यकार डॉ योगानंद झा कहते हैं कि रोजी-रोटी की मजबूरी में गांव छोड़ने के कारण टोलियां टूट गई. परंपरा विभंजक मानसिकता एवं साजिश के तहत समाज में पैदा किए गए विभेद ने भी इस पर असर डाला है. अकेले नई पीढ़ी को दोष देना सही नहीं है. इसके लिए संपूर्ण समाज को जड़ से जुड़ने के लिए समवेत प्रयास करना चाहिए.
डीजे की कर्कश शोर में गुम हो गयी फाग की मधुरता
चुरहेत निवासी शिक्षाविद कामदेव सिंह कहते है कि समय के साथ जैसे-जैसे यह लोकगीत और परंपराएं गायब हो रही है. वैसे ही गांव की एकता, परस्पर प्रेम और आदर भी विलीन होता जा रहा है. रंगों से सराबोर कर देने वाली होली में मिठास घोलने वाली होली के गीत अब खामोश हो गई है. फाग का राग, ढोलक की थाप और झांझों की झंकार में जो मिठास थी अब वह मिठास डीजे की शोर में गुम हो गया है. कभी रंगो में प्यार और अपनत्व की भावना से मनाए जाने वाला होली पर्व अब फीकी पड़ने लगी है. उन्होंने कहा कि गांव के युवाओं का यह दायित्व है कि इस परंपरा को जीवंत रखें.
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